एकाकी-साधना (kavita)

July 1976

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चारों ओर तिमिर होता है, एकाकी जलती है बाती। ‘मैं क्यों जलूँ अकेली, ऐसा तुच्छ भाव मन में कब लाती॥

जलना अपना धर्म समझती, इसीलिए जलती रहती है। कोई नहीं जल रहा, इसकी चिन्ता उसे नहीं होती है॥

देखा-देखी करके जीना, उसने ऐसा सीखा ही कब। अपने ही बल पर जीती है, इस जीवन को जीना है जब॥

कौन जल रहा, कौन न जलता, इसकी उसे कहाँ है फुरसत ? वह तो निज कर्तव्य समझ, निरपेक्ष भाव से जलती जाती॥

उसकी जीवन-ज्योति न औरों के इंगित पर जलती-बुझती। देख दूसरों को न कभी वह जीवन-लक्ष्य सुनिश्चित करती॥

उसे नहीं भाता तिनकों-सा लहरों का पिछलग्गू होना। औरों की कायरता लख, भाता न उसे निज-साहस खोना॥

अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करती है एकाग्र-भाव से, देख और को नहीं उफनती और न उदासीन हो पाती॥

दुनिया क्या करती है, इस पर दृष्टि रही तो जी न सकेंगे॥ अमृत की लालची भीड़ को देख, जहर हम पी न सकेंगे॥

हमको तो एकाकी शिव बन, विश्व-वेदना-विष पीना है। भोगी कीड़ों की भीड़ों में योगी बन शिव-सा जीना है॥

जो तपसी-सा जीवन जीते, वे ही जन-मंगल कर पाते, टकराती है अवरोधों से उनकी शिव-संकल्पी छाती॥

आओ ! एकाकी-दीपक सा जन-पथ पर अविलम्ब जलें हम। जन-पथ के घनघोर तिमिर को जितना भी हो सके हरें हम॥

चारों और देखकर तम को हम ही हिम्मत हार गये तो। जन-पथ नहीं प्रकाशित होगा, ज्योति पुत्र मन मार गये तो॥

कौन साथ चल रहा हमारे, इस चिन्ता से दूर रहें हम, हमको एकाकी जलना है, दीप-शिखा हमको सिखलाती॥

-मंगल विजय

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*समाप्त*


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