तीर्थयात्रा प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाय

July 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विचारशील लोगों को, साधु-ब्राह्मणों को, वानप्रस्थों, धर्म-प्रचारकों को पुण्य-परम्परा-तीर्थयात्रा को पुनर्जीवित करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें अपने मानवी उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए। जिन्हें ईश्वर ने सद्ज्ञान और सद्भाव की सम्पदा प्रदान की है उसे उन्हें अभावग्रस्त क्षेत्र में वितरित करने की उदारता आनी चाहिए। अपने उपार्जन का अपने ही लिए उपयोग करते रहने वाले स्वार्थी, अनुदार और कृपण कहे जाते हैं वह लाँछन, सद्भाव-सम्पन्न विज्ञजनों पर नहीं लगना चाहिए। ज्ञान वितरण का उद्देश्य लेकर उन्हें भी अपने देश के पिछड़े क्षेत्र में मानवी आदर्शवादिता और युग के अनुरूप प्रगतिशीलता वितरित करने के लिए आगे आना चाहिए। अगले दिनों तीर्थयात्रा मंडलियाँ इसी उद्देश्य के लिए निकलें। इस लिए विचारशील लोग अपनी टोलियाँ गठित करें।

इन टोलियों में मधुर कण्ठ ध्वनि के गायन को भी स्थान दिया जाय। कारण कि अपना कार्यक्षेत्र प्रधानतया छोटी देहातें बनाना है। शहरों में इतने अधिक सभा, सम्मेलन होते रहते हैं कि वहाँ बड़े आकर्षण होने पर ही लोक रुचि उत्पन्न हो सकती है। दूसरे उस क्षेत्र में पहले से ही उद्बोधनकर्ताओं की भरमार है। तीसरे उन लोगों को पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, लाइब्रेरियों का लाभ भी मिल जाता है, चौथे वे लोग अत्यधिक व्यस्त होने के कारण इस प्रयोजन में रुचि भी कम लेंगे। पाँचवे परस्पर विरोधी राजनैतिक तथा सामाजिक संस्थाओं की प्रति द्वंद्वता ने उन क्षेत्र की जनता को दिग्भ्रांत कर दिया है और वह सभी प्रचारकों को एक लाठी से हाँकती, अविश्वस्त ठहराती है, ऐसे ही अन्य अनेक कारण हैं; जिनसे हमें देहात को अपना कार्यक्षेत्र बनाना चाहिए।

अस्सी प्रतिशत भारत उसी इलाके में रहता है। यातायात की कठिनाई, निर्धनता, गैर जानकारी के कारण, नेताओं के स्वागत-सत्कार की कमी, स्वल्प उपस्थिति जैसे कारणों से उद्बोधनकर्ता उस क्षेत्र में पहुंचते नहीं हैं। देश में 70 प्रतिशत अशिक्षा अभी भी है। इसका अधिकाँश भाग देहातों में है। रूढ़िवादिता, मूढ़मान्यता, अन्ध-विश्वास, जैसी विकृतियाँ उन क्षेत्र में अभी भी उतनी ही भरी पड़ी हैं जितनी अब से तीन सौ वर्ष पूर्व थीं। प्रगतिशीलता का प्रकाश वहाँ अभी भी बहुत कम पहुँचा है। हमें इसी क्षेत्र को जगाने में जुटने का साहस समेटना चाहिए। कहना न होगा कि यह जनता समाज-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, राजनीति आदि को उतना नहीं समझती जितना कि परम्परागत धर्म परम्परा को। धर्म तन्त्र से लोक-शिक्षण का महत्व प्रधानतया इसी वर्ग के लोगों के लिए है। जाना हमें इसी क्षेत्र की जनता के पास है।

उनके बौद्धिक विकास को देखते हुए अपनी सेवा साधना में दो तथ्यों का समावेश करना ही होगा-एक तो यह कि जो कहना है उनमें धर्म कथाओं का पुट लगाते हुए कथन को श्रद्धा सिक्त बनाते चला जाय। दूसरे संगीत, सहगान, कीर्तन, भजन को प्रमुखता दी जाय। संगीत में स्वभावतः जन-साधारण की रुचि होती है-बाल-वृद्ध शिक्षित-अशिक्षित उसे चावपूर्वक सुनते हैं। बौद्धिक प्रभाव ग्रहण करने के साथ-साथ भावान्दोलन की विशेषता भी उसमें रहती है। अस्तु तीर्थयात्रा पर निकलने वाली प्रचार मंडलियों को जन-मानस में नवयुग के अनुरूप प्रगतिशीलता स्थापित करने के लिए प्रवचन शैली में धर्म-कथाओं का समावेश एवं सहगान कीर्तन की समन्वित शैली को अपना कर चलना चाहिए।

मण्डली में इतनी योग्यता होनी चाहिए कि वह इन प्रयोजनों को भली प्रकार पूरी कर सके। बेकार की भीड़ साथ ले चलने से तो अव्यवस्था ही फैलेगी और असुविधा ही रहेगी। प्रायः पाँच प्रचारकों की तीर्थयात्रा टोली रहे यही उपयुक्त है। इस प्रयास में अधिक लोग सहयोग देने को उत्सुक हों तो एक साथ ही बड़ी भीड़ लगाने की अपेक्षा उन्हें पाँच-पाँच की टोलियों में- कई क्षेत्रों में चल पड़ना चाहिए। यदि सुनने-सीखने की दृष्टि से ही कुछ लोग साथ चलना चाहें तो पाँच प्रचारक और पाँच साथी दस की मण्डली पर्याप्त समझी जानी चाहिए अन्यथा अधिक लोगों के एक साथ चलने और दैनिक व्यवस्था जुटाने में ही सिरदर्द खड़ा हो जायगा। ब्रज चौरासी कोस की भाद्रपद की यात्रा के समान पूरे साज-सरंजाम और दलबल समेत निकलना हो तो बात दूसरी है। ऐसी बड़ी पद-यात्राओं की व्यवस्था में खान-पान, तम्बु-डेरा, पानी, दूध, प्रवचन-पण्डाल आदि पूरा ठाट-बाट लेकर चलना होता है और उतने लोगों के स्नान, शौच, भोजन आदि का पहले से ही प्रबन्ध करना होता है। समान ढोने, उसे यथास्थान जमाने सुविधाएँ उत्पन्न करने के लिए वाहनों और कर्मचारियों की अतिरिक्त भीड़ साथ चले तो ही उतनी बड़ी व्यवस्था बन सकती है। यह बड़ी योजनाओं का अंग है वैसा प्रबन्ध कोई बड़े अनुभवी और साधन सम्पन्न लोग ही कर सकते हैं। हमें फिलहाल छोटी प्रचार टोलियों की बात ही सोचनी चाहिए और अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही उन टोलियों के सदस्य होने चाहिएं।

तीर्थयात्रा को पदयात्रा ही समझा जाना चाहिए। प्रचारकों को गाँव-गाँव, झोंपड़े-झोंपड़े जाने का लक्ष्य रखकर चलना है तो वह कार्य द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर बढ़िया रास्तों से गुजरने पर सम्भव न हो सकेगा। उसमें पगडण्डियाँ ही लाँघनी होगी। ऐसी दशा में पदयात्रा की ही उपयोगिता बनती है। प्राचीन काल में भी पदयात्रा और तीर्थयात्रा पर्यायवाची शब्द थे। अभी भी वह परिभाषा यथावत रहनी चाहिए। नहाने-धोने के लिए वस्त्र, बिस्तर, दैनिक उपयोग के उपकरण, भोजन की सामग्री लाउडस्पीकर जैसे प्रचार साधन, दीवारों पर वाक्य लिखने के उपकरण जैसी वस्तुएँ यात्रा में स्वभावतः साथ चलेंगी ही। उन्हें कन्धे पर लादकर नहीं चला जा सकता। इसके लिए साइकिल का उपयोग भार वाहन के रूप में उपयोग करना अपेक्षाकृत अधिक सस्ता और सरल रहेगा। पर इसका कोई बन्धन नहीं है। जहाँ गधा, घोड़ा, बैलगाड़ी आदि की सुविधा हो सकती हो। भोजन बनाने आदि कार्यों के लिए स्वयंसेवक या कर्मचारी चल सकता हो तो उसमें भी हर्ज नहीं। बात खर्च बढ़ने भर की है। जहाँ जैसा प्रबन्ध बन पड़े वहाँ उसके लिए प्रसन्नतापूर्वक प्रबन्ध किया जा सकता है। सुविधा साधन बढ़ने से तो काम करने में सरलता ही पड़ती है।

तीर्थयात्रा धर्म परम्परा के पुनर्जीवन का लक्ष्य लेकर निकली हुई टोलियों के सामने निर्धारित लक्ष्य और कार्यक्रम रहेगा। वे निरुद्देश्य यत्र-तत्र भटकती हुई समय और धन का अपव्यय नहीं करेंगी। निश्चित है कि गाँव-गाँव, दीवार-दीवार पर नवयुग का सन्देश देने वाले प्रेरणाप्रद वाक्य लिखे जाने चाहिएं। बोलती दीवारों का सृजन करना चाहिए। हर गाँव में कीर्तन गान करते हुए मण्डलियों को गली कूँचों की परिक्रमा करनी चाहिए। पीले वस्त्रधारी-तीर्थयात्री शंख ध्वनि करते हुए-कीर्तन गाते हुए जब गाँव की परिक्रमा करेंगे तो स्वभावतः गाँव वासी उसके साथ चलेंगे। नारे लगाने और सहगान गाने में वे भी योग देंगे। परिक्रमा समाप्त होने पर टोली के सदस्य एक छोटा प्रवचन अपने भ्रमण प्रयोजन के सम्बन्ध में दें और शिक्षितों में प्रेमोपहार पुस्तिका का वितरण करें। इसके बाद अगले गांवों के लिए प्रयाण।

निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मार्ग के गाँवों में परिक्रमा, दीवार लेखन करते हुए पड़ाव के लिए नियत गाँव में पहुँचा जाय। टोली स्वयं परिक्रमा करे और नियत सत्संग स्थल पर जन-साधारण को पहुँचने के लिए आमन्त्रित करें। प्रायः आठ से साड़े दस का समय ग्रामीणों को सुविधाजनक रहता है। भोजन से निवृत्त होकर वे आ सकते हैं और कथा, कीर्तन के माध्यम से नव-चेतना उपलब्ध करने का लाभ उठा सकते हैं। प्रातःकाल संक्षिप्त यज्ञ, प्रभावित लोगों को बुलाकर उन्हें कुछ काम सौंपना, संकल्प देना, जलपान से निवृत्त होना और अगले दिन के कार्यक्रम पर चल देना। यह टोलियों का कार्यक्रम है। कहीं अत्यधिक आग्रह हो तो बात दूसरी है अन्यथा भोजन व्यवस्था का भार स्वयं ही टोलियों को वहन करना चाहिए। पकाया एक बार ही जाय। दूसरे समय के लिए बना हुआ रखा रहे। सवेरे या शाम कब पकाने में सुविधा रहेगी, क्या रसोई बने, यह निर्धारित करना टोली सदस्यों की रुचि सुविधा एवं व्यवस्था पर निर्भर रहेगा।

गर्मियों के दिनों में छात्रों, अध्यापकों, किसानों तथा दूसरे अनेक वर्गों के लोगों को अवकाश रहता है। मई, जून के दो महीने इन टोलियों के लिए अतीव सुविधाजनक है। इन दिनों बिस्तर या भारी कपड़े लेकर चलने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यह दो महीने तो हर क्षेत्र में तीर्थयात्रा के लिए अतीव उत्साहपूर्वक प्रयुक्त होने चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य महीनों में जब जहाँ जैसी व्यवस्था बन पड़े तब वहाँ उस प्रकार की योजना बना ली जानी चाहिए।

कर्मचारियों एवं दुकानदारों को साप्ताहिक अवकाश रहता है। वह पूरा दिन इस प्रयोजन के लिए लगा देने की बात बन सकती है। साल में 52 सप्ताह तथा प्रायः 13 त्यौहार इस प्रकार 65 दिन की छुट्टी तो रहती है। पाँच दिन काट दें तो प्रायः दो महीने इस कर्म के लिए लगाये जा सकते हैं। दूसरे वर्ग के लोग भी अपनी सुविधा के समय का अपने ढंग से उपयोग कर सकते हैं। जिनके पास पूरा समय है तो वे नई-नई टोलियों का गठन और नेतृत्व करते हुए दूरवर्ती क्षेत्रों में भी अपनी गतिविधियाँ सुविस्तृत कर सकते हैं।

जो दूर नहीं जा सकते, घर नहीं छोड़ सकते वे नित्य एक-दो घंटे समीपवर्ती गली-मुहल्लों, बाजारों, कारखानों में जन सम्पर्क के लिए निकल सकते हैं और झोला पुस्तकालयों की ढकेल गाड़ी-चल पुस्तकालयों की, सरल प्रक्रिया अपनाकर सत्साहित्य पढ़ने देने एवं वापिस लेने का कार्य कर सकते हैं। साप्ताहिक अवकाश का अधिकाँश समय इस पुण्य कार्य में लगा सकते है। कथा कहने के लिए साप्ताहिक, मासिक तथा एक-एक दिन एक-एक घर, मुहल्ले में कार्यक्रम बनायें जा सकते हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर का प्रबन्ध हो सके तो प्रकाश चित्र दिखाते हुए हर रात्रि को एक मुहल्ले में लोकरंजन और लोकशिक्षण की दुहरी प्रचार प्रक्रिया चल सकती है। चित्र प्रदर्शनियाँ बन सकें तो उन्हें भी यत्र-तत्र दिखाया जा सकता है। कुछ साधन न हों तो ऐसे ही जनसम्पर्क के लिए वार्तालाप सामान्य प्रसंगों से आरम्भ करके किसी आदर्शवादी निष्कर्ष तक पहुँचने का उपक्रम अभ्यास में लाया जा सकता है। बच्चों में कहानियाँ कहने की अपनी एक विशेष शैली है जिसमें बाल, वृद्ध सभी समान रूप से रस ले सकते हैं। प्रचार के ऐसे ऐसे अनेकों साधन ढूँढ़े जा सकते हैं। तीर्थयात्रा की धर्म-परम्परा का आंशिक निर्वाह इन छोटे एवं स्थानीय कार्यक्रमों से भी हो सकता है। बड़े रूप में तो कुम्भ के मेले में जहाँ तहाँ से जाने वाली साधु मण्डलियों जैसा विशाल रूप भी बन सकता है। वे रास्ते में पड़ाव डालती हुई अपने दल-बल के साथ चलती हैं और ठहरती हैं वहाँ आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। रूप-रेखा क्या रहे-योजना किस स्तर की बने यह निर्णय करना टोलियों की मनःस्थिति एवं परिस्थिति पर निर्भर है। किन्तु उन्हें किसी न किसी रूप में चल पड़ना तो सर्वत्र ही चाहिए। ‘अलख निरंजन’ की - घर-घर धर्म प्रेरणा की साधु परम्परा पुनर्जीवित होनी ही चाहिए। विज्ञ विचारशील लोगों को आगे बढ़ कर उसका शुभारम्भ एवं नेतृत्व करना ही चाहिए।

इस सन्दर्भ में एक बात सबसे अधिक महत्व की है कि जब देश का प्रत्येक देहाती क्षेत्र इस धर्म प्रचार योजना के अन्तर्गत लिया जाना हो तो तीर्थ स्थानों का भी अभिनव सृजन होना चाहिए। प्राचीन तीर्थों तक सीमित रहने से तो वह गतिविधियाँ अमुक क्षेत्रों तक ही सीमाबद्ध होकर रह जायेंगी। अति हर चीज की बुरी होती है अमुक क्षेत्र में ही तीर्थयात्री जाया करें तो उनका आकर्षण ही समाप्त हो जायगा दूसरे अन्य पिछड़े स्थान उस लाभ से वंचित ही बने रहेंगे। यों अपनी तीर्थयात्रा के लिए आवश्यक नहीं कि उनमें किन्हीं देवालयों का दर्शन या विराग जुड़ा ही रहे। सदुद्देश्य के लिए जिधर भी जाया जायगा उधर ही तीर्थ बन जायगा। फिर भी यदि तीर्थ स्थानों की बात भी प्रयोजन के साथ जुड़ी रह सके तो इससे सोने और सुगन्ध का दुहरा उद्देश्य पूरा होगा।

देवताओं-देवियों, अवतारों, ऋषियों, सन्तों, सिद्ध पुरुषों, राजाओं, रानियों, राजनेताओं, धनियों, विद्वानों और ऐतिहासिक महापुरुषों, कलाकारों आदि के स्मारक जगह-जगह बने हुए हैं। इन उच्च वर्ग की सत्ताओं ने प्रायः उनके वर्चस्व ने बलात् जन-सम्मान हथियाया है। वह वर्ग इस अधिकार से वंचित ही रह गया जो आर्थिक, बौद्धिक एवं परिस्थितियों के पिछड़ेपन के कारण आदर्शवादिता के उच्चस्तरीय प्रमाण प्रस्तुत करते हुए भी उपेक्षित एवं उपहासास्पद बना रहा। यों स्तर की दृष्टि से वे देवताओं से भी किसी प्रकार कम नहीं थे। आवश्यकता इस बात की है कि नये तीर्थों की स्थापना में उनकी यश गाथा को उभारने का दृष्टिकोण अपनाया जाय।

जब पुनर्जीवन ही अपना लक्ष्य है तो लगे हाथों नये तीर्थों की स्थापना की बात भी हाथ में लेकर चला जा सकता है। काम कठिन तो है, पर कठिन काम भी तो मनुष्य ही करते हैं। प्राचीन काल में भी तो मनीषियों ने तीर्थों की स्थापना के लिए प्रयास किया था। अकेले आद्य शंकराचार्य ने ही देश के चार कोनों पर, चार धामों की स्थापना की थी। मथुरा, वृन्दावन के अधिकाँश तीर्थों के स्थान चैतन्य महाप्रभु ने अपनी दिव्य दृष्टि से बताये थे और उन विस्मृत स्थानों पर उनके अनुयायियों ने स्मारक खड़े किये थे। अन्यत्र भी आगे-पीछे ऐसी ही परम्परा चलती रही है। अकेले हजारी किसान ने बिहार के हजारी बाग जिले में हजार आम के बगीचे लगाने में सफलता पाई थी; तो कोई कारण नहीं कि अपना भाव-भरा परिवार अपने संगठित प्रयत्नों के द्वारा अभिनव तीर्थों का सृजन न कर सके।

परम्परागत तीर्थ प्रायः पौराणिक देव गाथाओं से जुड़े हैं। कहीं-कही ऋषियों, महापुरुषों की स्मृति स्वरूप भी तीर्थ बने हैं। उनसे अतीत पर श्रद्धा एवं भक्ति भावना की स्फुरणा होती है, पर बहुत खींचतान करने पर भी वह प्रकाश नहीं मिलता जो दर्शकों को नव-युग के अनुरूप प्रेरणा दे सके। समय की माँग है कि उद्देश्य के अनुरूप आधार भी खड़े किये जायँ। प्रेरणा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा स्रोत ढूँढ़े जायँ। इस दृष्टि से एक सुनियोजित योजना बनाकर देश के कोने-कोने में विशेषतया देहाती क्षेत्र में ऐसे तीर्थ स्थापित करने की तैयारी करनी चाहिए जो पदयात्रा टोलियों के लिए ही नहीं समीपवर्ती क्षेत्रों के लिए भी आदर्शवादी उत्साह का केन्द्र बन सकें।

होना यह चाहिए कि जिस क्षेत्र की जो प्रेरणाप्रद घटना-घटी हो-अथवा आदर्शवादी व्यक्तियों ने अपने पीछे जो अनुकरणीय गाथा छोड़ी हो वहाँ छोटे स्मारक बनाये जायँ। उन पर तीर्थयात्री श्रद्धांजलियां चढ़ाने जाया करें और स्थानीय लोग घटना का जयन्ती पर्व मनाते हुए एक प्रेरणाप्रद उत्सव आयोजन वर्ष में एक बार गठित किया करें। ऐसे आयोजनों से न केवल भावना की दृष्टि से वरन् मेलों-सम्मेलनों के माध्यम से होने वाले आर्थिक तथा भावनात्मक लाभ भी मिलते हैं। प्रचार के नये द्वार खुलते हैं। आदर्शवादी महामानव ही सच्चे देवता हैं। उत्कृष्टता का प्रतिपादन करने वाली घटनाओं की स्मृतियाँ सच्चे अर्थों में तीर्थ प्रयोजनों की पूर्ति करती हैं। अनुभव बताता है कि देव स्मारकों की तुलना में प्रेरणाप्रद व्यक्तित्वों एवं घटना-क्रमों की स्मृतियाँ भी कम श्रद्धाभाजन नहीं होती। सच तो यह है कि विचारशील लोगों का आकर्षण उनकी और अपेक्षाकृत और भी अधिक होता है।

तलाश करने पर ऐसे सत्पुरुषों एवं घटनाक्रमों का इतिहास हर क्षेत्र में मिल सकता है जिनकी स्मृति बना देने से उस क्षेत्र के लोगों को सदुद्देश्य की दिशा में सदा प्रकाश एवं उत्साह मिलता रह सकता है। यहाँ प्रगति-शीलता का ध्यान भी रखना होगा अन्यथा अविवेकपूर्वक स्थापित किये स्मारक उलटे हानिकारक सिद्ध होने लगेंगे। पतियों के साथ जल मरने वाली सतियों की स्मृतियाँ बना देने से उस क्षेत्र की स्त्रियोँ इसी प्रकार के आत्मघात की पुनरावृत्ति की अवाँछनीय प्रेरणा ले सकती हैं। इसी प्रकार मौनी बाबाओं की मठिया बना देने पर लोगों को वैसे ही अनगढ़ कृत्य कर गुजरने की सनक उठ सकती है। स्मारकों के पीछे चरित्र-निष्ठा, समाज-निष्ठा की आदर्शवादिता जुड़ी हो तभी उनकी कुछ उपयोगिता हो सकती है।

नये तीर्थों की स्थापना में विशालकाय इमारतों की आवश्यकता नहीं। निर्माण सामग्री का उपयोग हमें मानवी आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रहने देना चाहिए। नये तीर्थों को उद्यान, उपवनों के रूप में विकसित होना चाहिए। न्यूनतम एक वृक्ष को स्मारक बनाकर भी काम चलाया जा सकता है। भवन निर्माण की दृष्टि से इतना ही पर्याप्त है कि दस-दस फुट या न्यूनाधिक लम्बाई-चौड़ाई का चबूतरा किसी वृक्ष की छाया में अथवा खुले में-बना दिया जाय उस पर मध्य में दिवंगत आत्माओं के पत्थर पर खुदे चरण चिन्ह बने हों। सामने वाले भाग पर संगमरमर पर काले अक्षरों में स्मृति का विवरण लिखकर लगा दिया जाय। इतने में कोई बड़ी लागत नहीं आती। सस्ता बनाना हो तो श्रमदान नियोजित होना चाहिए और उस क्षेत्र के जन-जन का मुट्ठी-मुट्ठी सहयोग संग्रहीत किया जाना चाहिए। सस्ते चबूतरे दो-पाँच सौ में बन सकते हैं। महंगे पत्थर के बनाने हों तो कुछ हजार पर्याप्त हैं। आवश्यकता समझी जाय तो स्तम्भ भी खड़े किये जा सकते हैं। उनमें भी कोई लम्बी-चौड़ी लागत नहीं आने की यदि आवेगी भी तो जनता उसे खुशी-खुशी दे देंगी।

स्मारकों के लिए स्थान चुनते समय कुछ बातों की दूरदर्शितापूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। वहाँ अधिक लोगों के जमा होने एवं समीप ही मेला लगने की गुंजाइश हो। पेड़ों की छाया तथा जलाशय का उपयुक्त प्रबन्ध हो ताकि वहाँ पहुंचने वाले लोग शान्ति से सुस्ता सकें और प्यास बुझाने तथा नहाने की आवश्यकता पूरी कर सकें। आने-जाने के लिए बैलगाड़ियाँ पहुँच सकने जितना चौड़ा रास्ता भी वहाँ तक होना चाहिए। कोई किसान अपने बाबा की स्मृति किसी खेत के कोने पर बना ले तो वहाँ तक बड़ी संख्या में जनता को पहुँचने और ठहरने आदि की सुविधा कहाँ होगी? स्थान की उपयुक्तता पर दूरदर्शी दृष्टि डाली जानी चाहिए और भविष्य में वहाँ बड़े आयोजन सम्भव हो सकें इस तथ्य को पूरी तरह ध्यान में रखना चाहिए। जल्दबाजी में अनुपयुक्त स्थान पर तीर्थ खड़ा कर देने में कुछ संकीर्णतावादियों का आग्रह हो सकता है वे घटना स्थल को ही महत्व देने का आग्रह कर सकते है, पर दूरदर्शी लोग ऐसी क्षुद्रता पर विचार नहीं करते। राम अयोध्या में और कृष्ण मथुरा में पैदा हुए थे, पर उनके स्मारक देश-विदेश में सर्वत्र फैले हुए हैं। इस दृष्टि से तीर्थ स्थापना से स्मारकों को थोड़े इधर-उधर करना पड़ता हो तो भी उसमें किसी प्रकार का संकोच नहीं किया जाना चाहिए।

छायादार वृक्षों को लगाने के लिए उपयुक्त जमीन प्राप्त करके वहाँ नये सिरे से बगीचा लगाने का विचार भी अच्छा है; पर उसके बढ़ने में कई वर्षों का समय लग जायगा। इसलिए अच्छा यह है कि जहाँ पहले से ही छायादार वृक्षों के बगीचे मौजूद हैं उन्हें दान से प्राप्त करने अथवा खरीदने का प्रयत्न किया जाय। स्वभावतः जहाँ बगीचा होगा वहाँ कुआँ भी रहा होगा। अन्यथा बगीचा लगाना ही कठिन होता। यदि कुआँ नहीं है तो वह बनना चाहिए। तीर्थ स्थापना में चबूतरा तो प्रतीक भर है। वस्तुतः सघन छाया और शुद्ध जल के साधनों का प्रबन्ध होने से पूरी बात बनती है। ऐसे स्थान में एक छोटा प्रचार केन्द्र बनाकर वहाँ कोई वानप्रस्थ रह सकते हैं और उस क्षेत्र में दूर-दूर तक अपना सेवा-क्षेत्र निर्धारित कर सकते हैं।

जिस घटना या व्यक्ति का यह तीर्थ स्मारक बन रहा हो उसका विवरण-आदर्श एवं प्रेरणा प्रकाश एक छोटी पुस्तिका के रूप में छपा होना चाहिए और उसका प्रचार उस सारे क्षेत्र में होना चाहिए। वस्तुतः यह तीर्थ स्थापन योजना आदर्शवादिता को सम्मान के उच्चस्तर पर प्रतिष्ठापित करने की नव-युग के अनुरूप प्रक्रिया है। अब तक लोक सम्मान-धनवानों, सत्ताधीशों, कलाकारों, विभूतिवानों के इर्द-गिर्द ही मँडलाता रहा है अब उसे आदर्शवादिता के प्रति समर्पित होने के लिए मोड़ा जायगा। अन्यथा सम्मान प्राप्ति की मानवी आकाँक्षा अपनी पूर्ति भौतिक साधनों में ही ढूँढ़ती रहेगी। आदर्शवादिता विकसित होने में सब से बड़ा अवरोध एक ही है कि उस मार्ग पर चलने वालों को आर्थिक दृष्टि से तो घाटा रहता ही है; लोक सम्मान का स्वाभाविक अधिकार भी दूसरे लोग ही हड़प जाते हैं। अब इस स्थिति का अन्त होना चाहिए। आदर्शवादी तत्वों का अन्वेषण किया जाना चाहिए और जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी स्मृति बनाये रहने से उन आत्माओं को भी सन्तोष होगा कि जीवन काल में न सही मरणोत्तर उन्हें लोक मान्यता मिल गई। ऐसे जीवन वृत्तान्त उभरने चाहिएं जो जनसाधारण के लिए प्रेरणा केन्द्र बन सकें। जिनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति उपलब्ध लोक-सम्मान को देखकर सहज ही विकसित हो सके। जन-मानस के परिष्कार में यह प्रक्रिया कितनी अधिक सहायक हो सकती है इसकी अभी तो कल्पना ही की जा सकती है। पर विश्वास यह है कि जब इस स्थापना का परिणाम सामने आवेगा तो व्यक्तियों को उत्कृष्टता की दिशा में उछालने की दृष्टि से अतीव आशाजनक सिद्ध होगा। इस प्रकार के असंख्य तीर्थ बनें और जीवन चरित्र छपें तो प्रतीत होगा कि अपना देश इन गई गुजरी परिस्थितियों में भी महामानवों की खदान बना रहा है। उसकी महान् परम्पराएँ अभी भी जीवन्त हैं। हमारे लिए यह सब भी कम गर्व-गौरव का प्रसंग नहीं है। इन प्रयासों से समूचे वातावरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन होगा और लोक मान्यता में आदर्शवादिता की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना होगी।

तीर्थयात्रा टोलियाँ गठित करना और उनके परिश्रम का कार्यक्रम बनाना सरल है। इस प्रयास में सामान्य प्रयत्नों से-सामान्य व्यक्तित्व भी भली प्रकार सफल हो सकते हैं। पर तीर्थ स्थापना का काम बड़ा है उसके लिए देशव्यापी सर्वे करना होगा। तीर्थयात्रा धर्म-परम्परा के निर्वाह में नये-नये तीर्थों की संगति बिठानी पड़ेगी कि मण्डलियाँ किस रास्ते कितना चलकर कहाँ विराम करेंगी ? ऐतिहासिक तथ्यों को मिलाकर ही यह प्रतिष्ठापनाएँ होंगी। अस्तु इसे एक सुविस्तृत योजना समझा जायगा और इसके लिए सर्वेक्षण के साथ-साथ यह भी सोचा जायगा कि कहाँ क्या कर सकना सम्भव हो सकता है?

राजा मान्धता की सहायता से आद्य शंकराचार्य के लिए चारों धामों की प्रतिष्ठापना कर सकना सम्भव हुआ था। बुद्ध के हर्ष वर्धन सरीखे अनुयायियों ने अनेकों बौद्ध विहारों की स्थापना की थी। अब वैसा एकाकी प्रयत्नों से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए किन्हीं बड़े आयोगों की आवश्यकता पड़ेगी और उसका संचालन प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ही सम्पन्न करेंगे। यों इसके लिए आर्थिक एवं श्रम सहयोग स्थानीय जनता का भी मिलेगा, पर उसकी रूपरेखा बनाने एवं साधन सामग्री जुटाने का कार्य तो क्रिया-कुशल हाथों से ही होना चाहिए। इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने मन्दिरों, घाटों का जीर्णोद्धार कराने में ख्याति प्राप्त की थी। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्वों की है जो उसी प्रकार भूमिका निभा सके। स्वयं आगे आयें और उस धर्म क्षेत्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में अन्य अनेकों का भी सहयोग जुटा सकें। ऐसे व्यक्तित्व अपने परिवार में से ही उभर कर आयें इसकी अपेक्षा समय की आवश्यकता ने की है युग की इस चुनौती को भी हमें ही स्वीकार करना होगा।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles