जनसंख्या वृद्धि की विभीषिका की और संसार के विचारशील लोगों का ध्यान विगत शताब्दी से ही आकर्षित हो गया था और उन्होंने इस खतरे की ओर विश्व नेताओं, सरकारों तथा सर्वसाधारण का ध्यान आकर्षित किया था। उनका कहना था कि समय रहते जनसंख्या वृद्धि की विभीषिका से निपटने का उपाय किया जाय अन्यथा समय निकल जाने पर कुछ करते धरते न बन पड़ेगा और केवल पश्चाताप ही हाथ रह जायगा।
इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्री थामस माल्थस ने इस विषय में सप्रमाण बहुत कुछ कहा है। विगत शताब्दी में फ्रामप्लास, नार्म डायस्टेले, ऐने बेनेट, चार्ल थ्रेडली, मेरी स्टोप्स प्रभृति विचारकों ने जोरदार प्रमाणों के साथ जनसंख्या नियन्त्रण की आवश्यकता सिद्ध की और इंग्लैण्ड की ही नहीं समस्त संसार की जनता ने उन विचारों को ध्यानपूर्वक सुना और उस आवश्यकता को अनुभव किया।
वर्तमान शताब्दी के आरम्भ में अमेरिका में मार्डरेट सेगर अब्राह्म स्टोन ने इस आवश्यकता को भली भाँति सिद्ध किया। भारत की अपेक्षा पाँच गुनी भूमि और अत्यन्त स्वल्प जनसंख्या के कारण यों अमेरिका की आर्थिक समस्या वैसी नहीं थी जिसके आधार पर परिवार नियन्त्रण की बात सोचनी पड़े पर व्यक्तिगत, पारिवारिक और स्वयं शिशुओं के विकास पर इसका जो बुरा प्रभाव पड़ता है उसे देखते हुए यह भली-भाँति स्वीकार किया गया है कि अवाँछनीय गति से बढ़ता हुआ प्रजनन केवल संकट ही उत्पन्न कर सकता है।
विलियम गोडविन, सर वाल्टर रेले, प्रो0 फ्रीड, प्रो0 ग्वेर्डे, बिटरेणु प्रभूति कितने ही सांख्यिकी विज्ञों का माल्थस से उन उपायों के बारे में मतभेद है जिनके आधार पर संख्या नियन्त्रण किया जाना चाहिए पर वे सभी एक स्वर से इस बात का समर्थन करते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या इस युग की सबसे बड़ी समस्या है और यदि उसे हल न किया गया तो अपनी मूर्खता के दण्ड स्वरूप ही मनुष्य जाति को रोते-बिलखते अपनी ही आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ेगा। अति उत्पादन और न्यायोचित वितरण से राहत मिलने की बात पर जोर देने वाले भी यह स्वीकार करते है कि यह उपाय सामयिक संकट हलका कर सकते हैं, पर जनसंख्या का बढ़ता हुआ क्रम यथावत चलने देना तो उन्हें भी स्वीकार नहीं।
बढ़ती हुई जनसंख्या का एक बड़ा दोष है कि प्राकृतिक सुविधा के अभाव में तथा खाद्य पदार्थों में जीवन घटते जाने के कारण पीढ़ियाँ दुर्बल होती चली जाती हैं वे रुग्ण रहती हैं और काम करने की क्षमता घटती चली जाती है। फलतः हर स्तर का उत्पादन घटता है। शारीरिक और मानसिक बलिष्ठता घटने पर कामों का स्तर तथा परिणाम घटेगा ही। भीमकाय स्वसंचालित यन्त्र जन-शक्ति की आवश्यकता तो पूरी कर सकते हैं, पर उनसे बेकारी बेहिसाब बढ़ती है जो और भी अधिक घातक है।
पशुओं को जीवित न रखा जा सकेगा ऐसी दशा में दूध या माँस की उपलब्धि भी असम्भव हो जायगी समुद्र पर भी जब धावा पूरे वेग से बोला जायगा बेचारे जल-जन्तु कब तक अपना अस्तित्व बनाये रख सकेंगे। उन्हें भी आधी-चौथाई शताब्दी के अन्दर अपने अस्तित्व खो बैठने के लिए विवश होना पड़ेगा। बढ़ता हुआ जल प्रदूषण अभी भी जल जन्तुओं को समाप्त करने में लगा हुआ है। कल-कारखानों का विषाक्त जल नदी नालों से लेकर समुद्री जल तक को विषैला किये दे रहा है जल जन्तु बेहिसाब मर रहे हैं। अगले दीनों औद्योगिक प्रगति के साथ कल-कारखाने बढ़ेंगे ही, जल प्रदूषण का निर्बाध क्रम चलेगा तब जल जन्तुओं पर गुजारा करने की बात भी मृग-मरीचिका बनकर ही रह जायगी।
इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्री थामस राबर्ट ने विश्व जनसंख्या वृद्धि की समस्या का लगभग तीस वर्ष तक गहन अध्ययन किया और वे इस शोध के सन्दर्भ में विश्व के अनेक देशों में गये। उन्होंने अपने शोध प्रबन्धों में यह प्रतिपादित किया है कि-बढ़ती हुई जनसंख्या की स्वाभाविक गति यदि नियन्त्रित न की जाय तो खाद्य सामग्री के अभाव में बेमौत मरने की परिस्थिति उत्पन्न हो जायगी। पृथ्वी में जितने लोगों के भरण-पोषण की, आवास-प्रवास की जितनी क्षमता है अब वह पूर्ण हो गई। एक सीमा तक पहुँचने के बाद खाद्य उत्पादन में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। रासायनिक खादों एवं वैज्ञानिक उपकरणों का कितना ही उपयोग क्यों न किया जाय ? धरती की स्वाभाविक क्षमता में अत्यधिक वृद्धि नहीं हो सकती। बिल्ली को कितना ही दूध क्यों न पिलाया जाय वह एक सीमा तक ही मोटी होगी, हथिनी की ऊँचाई तक पहुँचने का स्वप्न वह कभी भी साकार न कर सकेगी। जनसंख्या की बढ़ोतरी “गुणोत्तर गति” से होती है। वह 1,2,4,8,16,32 के क्रम से बढ़ती है। जबकि खाद्य सामग्री को केवल “अंक गणित गति” से ही बढ़ाया जा सकता है वह 1,2,3,4,5 क्रम से ही बढ़ेगी। यदि 25 वर्षों तक दोनों की वृद्धि अपने ढंग ढर्रे से बढ़ती रहने दी जाय तो जनसंख्या दूनी हो जायगी जबकि खाद्योन्नति का परिणाम सवाया ही हो सकेगा। तीन-चौथाई जनसंख्या को या तो दूसरों के ग्रास छीनने पड़ेंगे या भूखा मरना पड़ेगा। भूतकाल में धरती की क्षमता बढ़ती हुई जनसंख्या का पोषण करने जितनी बनी रही, पर अब उसमें भावी सम्भावनाओं का सामना करने की क्षमता दीखती नहीं।
समुद्र से जल जीव, वनस्पतियाँ तथा पशु-पक्षियों का माँस प्राप्त करने के प्रयास भी एक सीमा तक ही उस आवश्यकता को पूरा कर सकेंगे। माँस के लिए पाले जाने वाले जानवरों के लिए चारा तो चाहिए ही। भूमि की सीमा जब लोगों के निवास-प्रवास की-अन्न की आवश्यकता ही पूरा नहीं कर पाती तो इस माँस या दूध के लिए पाले जाने वाले पशुओं के लिए निवास तथा चारे के लिए भूमि कहाँ से आवेगी? अर्थशास्त्री बताते हैं कि अगले दिनों पशुओं और मनुष्यों में प्रतिद्वंद्विता होगी। कौन जीवित रहे इस संघर्ष में पशु हार जायगा और भूमि को पशुओं के उपयोग से छीनकर मनुष्यों के लिए प्रयुक्त किया जायगा। अन्न का भूसा तथा घास, कागज, काष्ठ जैसी सभ्यता सामग्री बनाने में खप जायगा।
विवाहित जीवन का मूल प्रयोजन दो समान स्थिति के साथियों का मिलकर जीवनोद्देश्य की दिशा में ठीक तरह गतिशील होने की सुविधा प्राप्त करना है। भिन्न लिंग के सहयोगी प्रकृति प्रेरित आकर्षण की पूर्ति भी करते हैं और उसमें भावनात्मक तृप्ति भी मिलती है। अस्तु जब शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुविधा हो तब विवाह के लिए उपयुक्त साथी ढूँढ़ लिया जा सकता है किन्तु विवाह की सफलता प्रजनन के साथ नहीं जोड़ी जानी चाहिए। सन्तान रहित दाम्पत्य जीवन किसी भी प्रकार असुविधाजनक नहीं होता वरन् उससे प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने की और अधिक सम्भावना रहती है। जो शक्ति नये बालकों को न्योत-बुलाने में और उसका भार वहन करने में खर्च की जाती है यदि उसे पति-पत्नी अपने विकास में खर्च करे तो निःसंदेह इससे वे लोग अपना और समाज का अधिक हित कर सकते हैं। सन्तान तभी उत्पन्न की जाय जब उसकी जिम्मेदारियाँ उठा सकने की पूर्व तैयारी भली प्रकार कर ली गई हो। जब तक ऐसी स्थिति न आये तब तक विवाहित युग्मों को भी सन्तानोत्पादन से बचना चाहिए।
विवाह योग्य युवकों के लिए भी यही उचित है कि जब वे शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ सन्तानोत्पादन के योग्य परिपुष्ट हो जायँ और आर्थिक दृष्टि से अपने पैरों पर खड़े हो जाने योग्य हो जायं तभी विवाह की स्वीकृति अभिभावकों को दें। यदि मोहवश समय से पूर्व विवाह के लिए दबाव डाला जा रहा है तो उसके लिए नम्रतापूर्वक किन्तु साथ ही अत्यन्त दृढ़ता के साथ इनकार ही कर देना चाहिए। इसमें न तो अवज्ञा की बात है और न अशिष्टता की। पेट भरा होने पर प्रियजनों के भोजन आग्रह से इनकार किया जा सकता है और उसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं होती तो फिर विवाह के सम्बन्ध में यदि कोई लड़का या लड़की अपनी स्थिति स्पष्ट कर दे तो अभिभावकों को उससे प्रसन्न ही होना चाहिए। बलात् किसी पर अवांछनीय विचार थोपना जितना अनैतिक है उसकी तुलना में इस प्रकार के दबाव से इनकार कर देना अपेक्षाकृत कम ही अनुचित माना जाना चाहिए।
जो लोग विवाह की आवश्यकता अनुभव करें उन्हें प्रसन्नतापूर्वक वैसा करना चाहिए। घर के लोगों को उनकी रुचि के अनुरूप साथी उपलब्ध कराने में सहायता करनी चाहिए, पर इसके लिए किसी को अपनी सन्तान पर दबाव नहीं डालना चाहिए। यह दबाव अनैतिक, अदूरदर्शिता पूर्ण, असामाजिक और अवाँछनीय है। कोई बालक कुमार्गगामी हो रहा हो तो उसे सुधारने के लिए दबाव देने का औचित्य है। पर यदि किसी लड़की या लड़के की इच्छा विवाह की नहीं है वह वैवाहिक उत्तरदायित्वों को निबाहने में उस समय अपने को असमर्थ पाता है तो उचित यही है कि उसकी अपनी इच्छा को जीवनयापन करने की रीति-नीति को मान्यता दी जाय और उसे अपने ढंग से अपना मार्ग चुनने दिया जाय। विवाह कौन कब किस उम्र या स्थिति में करे, इसके सम्बन्ध में हर किसी को स्वतन्त्रता होनी चाहिए। गलत साथी के चुनाव का खतरा टाला जाना चाहिए, पर अविवाहित रहने की यदि किसी बालक की इच्छा है तो अभिभावकों के लिए यह उचित है कि उस सन्दर्भ में किसी प्रकार का दबाव न डालें। कारण कि इसमें अनौचित्य जैसी कोई बात नहीं है, वरन् सच पूछा जाय तो इस प्रकार का निर्णय वैयक्तिक एवं सामाजिक सुविधाजनक ही है।
अपने समाज में रूढ़िवादी अभिभावक इस बात के लिए अत्यधिक उत्सुक पाये जाते हैं कि वे अपने बालकों का विवाह जितनी जल्दी हो सके निपटा कर निश्चिंत हो जायँ। इसमें वे धन और श्रम भी बहुत खर्च करते हैं। यदि वह धन या श्रम उन बालकों की शारीरिक, मानसिक उन्नति के लिए खर्च किया जाय तो विवाह की अपेक्षा उन्हें हजार गुना अधिक लाभान्वित किया जा सकता है यह सूझ-बूझ न जाने क्यों अपने समाज में उठती ही नहीं है ?
व्यभिचार अविवाहितों में बढ़ता है विवाहितों में नहीं यह आशंका व्यर्थ है। व्यभिचार और सदाचार मानसिक स्थिति पर निर्भर है। विवाहित हो जाने पर इस कुकर्म पर कोई बन्धन नहीं बँधता वरन् अविवाहितों के व्यभिचारों की अपेक्षा वह और भी अधिक निरापद हो जाता है। यदि अन्वेषण किया जाय तो इस सन्दर्भ में अविवाहितों की अपेक्षा विवाहित ही अधिक दुराचरण अपनाये हुए पाये जायेंगे। मर्यादाओं का पालन यदि सीखा और सिखाया जाय तो अविवाहित रहना किसी भी दृष्टि से व्यक्ति और समाज के लिए अहितकर सिद्ध नहीं हो सकता। हर किसी का विवाह अवश्य ही होना चाहिए आजकल जो यह मूढ़ मान्यता प्रचलित है उसके पीछे विवेकशीलता नहीं वरन् रूढ़िवादिता की ही प्रधानता रहती है। अपने समाज में कन्याओं की किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते कुहराम मच जाता है और हर कोई उनके विवाह की चिन्ता करने लगता है। लड़के बीस-पच्चीस वर्ष तक पढ़ते भी रह सकते हैं और अविवाहित भी रह सकते हैं, पर लड़कियों के लिए इतनी उम्र बहुत भारी पड़ती है। लड़की और लड़कों के बीच तर्क संगत नहीं, इसे रूढ़िवादी पूर्वाग्रह के ढर्रे पर लुढ़कने के अतिरिक्त और किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। अविवाहित जीवन के खतरे अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर हमने अपने मस्तिष्क में जमा लिए है यदि विश्लेषण किया जाय तो वे आशंकाएं बहुत अंशों में निरर्थक और निर्मूल ही प्रतीत होंगी।