शक्ति का प्रचण्ड स्रोत परमाणुओं का समूह मिट्टी धूल बन कर पैरों तले उपेक्षित स्थिति में पड़ा रहता है। एक बड़ा ढेला भी तुच्छ प्रतीत होता है और उसका बाजारू मूल्य छदाम जितना भी नहीं आँका जाता। किन्तु जब थोड़ी गहराई में उतर कर इस ढेले के सब से छोटे−आँखों से न देखे जा सकने जैसे तुच्छ−टुकड़े का विश्लेषण किया जाता है तो प्रतीत होता है कि वह न तो तुच्छ है और न निष्क्रिय। उसके भीतर प्रचण्ड हलचल हो रही है। वह एकाकी नहीं है वरन् इलेक्ट्रॉनों का एक समूह साथ लिये हुए है। परमाणु के ये अति तुच्छ घटक इलेक्ट्रॉन सौर मण्डल के ग्रहों की गति से अपनी कक्षा पर द्रुतगति से भ्रमण करते हैं। उसकी विनाश लीला विस्तृत क्षेत्र को मटिया−मेट करके रख देती है। आश्चर्य होता है कि मोटे तौर पर धूलि का एक नगण्य सा टुकड़ा जो नितान्त उपेक्षणीय प्रतीत होता था अपनी यथार्थ स्थिति में कितना महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली था।
प्रत्येक पदार्थ में अपनी असीम शक्ति भरी हुई है। जरा−सी बारूद विशालकाय चट्टानों को आसमान में उड़ा देती है। माचिस की एक तीली विस्तृत बन प्रदेश को जला कर खाक कर देने वाली दावानल का रूप बना लेती है। प्रेशर कुकर में कैद जरा सी भाप और स्टोव में बन्द तनिक सी हवा जब फटती है तो बन्दूक चलने जैसे उपद्रव खड़े कर देती है। मोटी दृष्टि से पदार्थों की सामर्थ्य का कुछ पता नहीं चलता क्योंकि वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। जब कभी उसे जागृत होने का अवसर मिलता है तब प्रतीत होता है कि इस विश्व में कहीं भी न तो निष्क्रियता है और न अशक्तता। मूर्छना का आवरण ही हर वस्तु को तुच्छ स्तर की बनाये हुए है। तनिक सी हलचल उत्पन्न कर देने पर वह आवरण हटता है और सर्वत्र अनन्त शक्ति का समुद्र लहलहाता दीखता है।
परमाणु से जीवाणु की सत्ता उतनी ही अधिक है जितनी कि एक ढेले की तुलना में जीवित प्राणी की। प्रकृति की जड़ समझी जाने वाली सत्ता का उपयोग करने की दिशा में प्रगति करते हुए ही विज्ञान के भयंकर शक्ति भण्डार हाथ लगा है। अन्तरिक्ष में अनन्त काल से भरा हुआ विद्युत प्रवाह पकड़ कर मनुष्य की सेवा में प्रस्तुत कर दिया गया है और उससे श्रम की बचत एवं रोशनी, पंखा, अंगीठी, तार, टेलीफोन, सिनेमा, रेडियो जैसी असंख्य सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं, जड़ परमाणुओं की मूल सत्ता को जगाना और प्रयोग में लाना ही पदार्थ विज्ञान का एक मात्र काम है। उतने भर से मनुष्य की सुविधा एवं क्षमता में निरन्तर वृद्धि होती चली जाती है।
चेतन जीवाणु की शक्ति जड़ परमाणु की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है। प्राणी की क्षमता अनिर्वचनीय है। चेतना वस्तुतः परब्रह्म का एक छोटा घटक है। इस अंश भाग में अपनी मूल सत्ता के समान ही सामर्थ्य है। परमात्मा और आत्मा में इतना ही अन्तर है कि एक विभु है दूसरा अणु; पर मूल सत्ता की दृष्टि से दोनों का गुण धर्म और सामर्थ्य सूत्र एक है। परमाणु अपने आप में एक सूर्य है। उसका छोटा परिवार भी सौर मण्डल के सदृश ही गतिशील है। अन्तर छोटे बड़े का है। इस छोटेपन को विशालता में विकसित होने की पूरी गुंजाइश है। प्रत्येक जीवाणु का नाभिक अपने भीतर एक समूची दुनिया छिपाये बैठा है। उसके उदर में हो रही हलचलों को यदि पूरी तरह देख सकें तो प्रतीत होगा कि एक जीवाणु एक समूचा संसार है और उसमें बीज रूप से वह सब कुछ विद्यमान है जो बाहर की दुनिया में इन्द्रियों अथवा उपकरणों की सहायता से देखा जाना जाता है।
असंख्य जीवाणुओं का समूह प्राणी का शरीर है। प्राणियों में भी मनुष्य की संरचना विशिष्ट है। उसका चेतन संसार और भी अद्भुत है। जड़ और चेतन की तुलना इस प्रकार की जा सकती है कि सशक्त रेल इंजन हवाई जहाज, स्वसंचालित यंत्र भी चेतन मनुष्य के नियंत्रण में ही अपना कार्य ठीक तरह कर पाते हैं। मानवी बुद्धि कौशल का प्रयोग न हो तो बहुमूल्य और अत्यन्त सामर्थ्यवान समझे जाने वाले यन्त्र भी जहाँ के तहाँ निष्क्रिय पड़े रहेंगे। जड़ के ऊपर चेतन का अनुशासन सर्वविदित है। इतने पर भी मनुष्य की सत्ता का बाजारू मूल्य तनिक सा है। कितने ही लोग दीन दयनीय स्थिति में पड़े हुए जिन्दगी की लाश बड़ी कठिनाई से रोते−धोते किसी प्रकार ढोते हैं। न उन्हें अपने आप पर संतोष होता है और न अन्य कोई उनसे संतुष्ट रहता है। यह सब व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के साथ जुड़े हुए चेतना स्तर की गिरावट के कारण है। असहाय और अशक्त कोई मनुष्य−तन धारी हो नहीं सकता। दुर्गति तो मूर्छना कराती है। सोई हुई क्षमता का नाम ही दरिद्रता है। आलस्य और प्रमाद के कारण ही दुर्बलता के अनेक आकार−प्रकार सामने आते हैं। सतत जागरुकता और क्रमबद्ध सक्रियता जहाँ भी होगी वहीं मनुष्य तेजस्वी, ओजस्वी बन कर रह रहा होगा।
उपेक्षित मिट्टी के ढेले की तरह ही दीन−दुर्बल मनुष्य भी नगण्य समझा जाता है। शक्ति के भांडागार को इस मूर्छना ने ही अपरिचित स्थिति में ले जाकर पटक दिया है और तो और—परब्रह्म की भी वैसी ही दुर्गति हुई है। उसकी दिव्य शक्ति पत्ते−पत्ते में लहलहा रही है और प्राणी के भीतर आत्म−सत्ता बन कर ज्योतिर्मय हो रही है फिर भी ईश्वर दर्शन की हमारी प्यास ज्यों की त्यों है। भगवान कहीं दीख नहीं पड़ता। सुदूर तीर्थ स्थान की कष्टसाध्य यात्रा करके लोग भगवान का दर्शन करने के लिए जाते हैं और खाली हाथ लौट आते हैं। जिस−तिस विधि से किये जाने वाले विधि−विधान ज्यों−त्यों करके किये जाते रहते हैं फिर भी निराशा ही पल्ले बँधती है। ईश्वर पकड़ में आता नहीं केवल भटकाव ही हाथ लगता है। इसका कारण भी वही मूर्छना है। भगवान है तो सर्वत्र पर पड़ा मूर्छित स्थिति में है। उसे जगाया जा सके और प्रयोग में लाया जा सके तो निश्चित रूप से दैवी−सत्ता का सान्निध्य मिल सकता है और उसके सहयोग भर सहचरत्व से लाभान्वित हुआ जा सकता है।
सर्वत्र प्रश्न एक ही है—जो बहुमूल्य है वह आवरण के पीछे मूर्छित स्थिति में पड़ा है। संभवतः यह इसलिए है कि अविकसित स्तर के लोग उन उपलब्धियों को पाकर असंतुलित न हो बैठें और दुरुपयोग करके सर्वनाश न कर बैठें। जागरुक व्यक्ति ही शक्ति की महत्ता समझते हैं और उन्हीं के द्वारा सदुपयोग बन पड़ता है। अस्तु अपनी मूर्छा छोड़ने और सम्पर्क क्षेत्र की मूर्छना दूर करना ही प्रगति का प्रथम चरण माना जाता है। अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले विद्यार्थी को अपना पाठ यहीं से आरम्भ करना होता है। आत्मबोध की प्रक्रिया अपनाकर अन्तरंग में छिपी गरिमा को जगाया जाता है और तत्वबोध से बाह्य जगत में फैले हुए पदार्थों और प्राणियों में सुव्यवस्थित संबंध साधा जाता है। आत्मज्ञानी उसे कहते हैं जो अपने आपे को सही तरीके से संभाल सके और सदुद्देश्य में नियोजित कर सके। तत्वज्ञानी उसे कहते हैं जो संसार की यथार्थता और प्राणियों की स्थिति विचित्रता को ठीक तरह पहचान सके। सही रीति का लोक व्यवहार इसी स्थिति में बन पड़ता है। लगता तो ऐसा है मानो आत्म−ज्ञानी लोक व्यवहार को भुला बैठा पर वस्तुतः वही सबसे अधिक क्रिया कुशल होता है। भेड़चाल के साथ पटरी न बिठाने के कारण उसे मूर्ख समझा तो जाता है, पर वस्तुतः वह वैसा होता नहीं।
सर्वत्र प्रसुप्त स्थिति की घोर तमिस्रा छाई हुई है। निस्तब्ध सन्नाटा छाया हुआ है। शक्ति के प्रचण्ड भांडागार का समुद्र ध्रुव प्रदेश जैसी हिमाच्छादित स्थिति में नितान्त निस्तब्ध बना हुआ है। परमाणु सत्ता—उपेक्षणी धूल बनकर रह रही है। प्राणों को जिन्दगी भारी पड़ रही है। मनुष्यों को दीन दयनीय असहाय स्थिति में अभावों और सन्तापों से दुर्दशाग्रस्त देखा जाता है। यहाँ तक सर्वव्यापी, सर्वसमर्थ परमेश्वर भी अपने विराट् विस्तार में मूर्छाग्रस्त होकर लंबी चादर ताने हुए सो रहा है। इस व्यापक निस्तब्धता में भटकने वाला जीवात्मा जिधर भी दृष्टि दौड़ाता है, उधर ही निराशा छाई दीखती है। कुछ पाने योग्य दीखता नहीं। जो दीखता है, वह भी हाथ नहीं लगता। ऐसी दशा में सिवाय ऊब और खीज के और क्या मिलना है? मिलता तो जागृति में है। ‘जागा पाता है और सोया खोता है’ यह कहावत सुनी तो बहुत बार है, पर उसका प्रभाव तनिक भी नहीं पड़ा। जागने की इच्छा कभी नहीं हुई। जो स्वयं सो रहा है वह अन्यों को किस तरह जगाये? बिना जगाये मूर्छाग्रस्त वातावरण में कौन क्या पाये? जागरण आवश्यक है। अपने जगने पर ही मूर्छितों को जगाना और जो जगे हुए हैं उन्हें पहचानना सम्भव होता है। अध्यात्मयोग इस महान जागरण का ही दूसरा नाम है। उपलब्धियाँ जागृतों को ही मिलती हैं। जो है उसे संभालना और जो नहीं है उसे पाना मात्र जागृति की स्थिति में ही सम्भव है। आत्म−साधना को दूसरे शब्दों में समग्र जागरण का अभिनव प्रयास ही कह सकते हैं। आत्मबोध का प्रथम और तत्वबोध का द्वितीय चरण जब क्रमिक गति से उठना आरम्भ होता है तो उस प्रयास से महान जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है। आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने वाला पथिक प्रत्येक कदम पर एक से एक बढ़ी−चढ़ी उपलब्धियाँ, ऋद्धि−सिद्धियाँ प्राप्त करता चला जाता है।