तप द्वारा दिव्य शक्तियों का जागरण

January 1976

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आत्मिक प्रगति की साधना में कई प्रकार के कठोर नियम पालन करने पड़ते हैं। व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य जैसी तितीक्षाओं से शरीर को इस योग्य बनाया जाता है कि वह कठिनाइयाँ सहने का अभ्यस्त तथा तज्जनित गर्मी से सुदृढ़ होने का अवसर प्राप्त कर सके।

उपवास के लाभ सर्वविदित हैं। पेट को विश्राम देने से उसमें जमा अपच दूर होता है और थकान दूर होने से पाचन क्रिया में तीव्रता आती है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोग निवृत्ति का प्रधान उपाय उपवास को माना गया है। उदर शोधन के अतिरिक्त उपवास का विशेष लाभ यह है कि उससे मनोविकारों का शमन होने लगता है। जो शक्ति पालन में लगती है वह यदि बच सके तो उसका उपयोग मन के अपच को—विचार विकृति को दूर करने में लग सकता है। भारतीय धर्म में पुण्य पर्वों एवं शुभ अवसरों पर उपवास को बहुत महत्व दिया गया है। विवाह के दिन वर−वधू के उपवास करने की प्रथा है। दैनिक उपासना पूरी न हो जाने तक कुछ न खाने−पीने का नियम कई लोग पालते हैं—यह उपवास का ही छोटा रूप है। उपवास को तप माना गया है।

अन्न का मन से घना संबंध है। दैनिक जीवन में सतोगुणी आहार ही अपनाने की बात ध्यान में रखी जाय तो उसका प्रतिफल विचार शुद्धि के रूप में भी परिलक्षित होगा। नीति उपार्जित परिश्रम की कमाई ही खाई जाय। पकाने वाले तथा परोसने वाले व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से पवित्र हों। खाते समय भगवान को मन ही मन भोग लगाने और उसे प्रसाद समझ कर औषधि रूप में ग्रहण करने की भावना रखी जाय। चटोरेपन की विलासिता से बच कर केवल आहार की सात्विकता भर से संतुष्ट रहा जाय। अन्न को देवता मानकर उसका सम्मान किया जाय और जूठन के रूप में उसकी अनावश्यक बर्बादी न की जाय। यह बातें सामान्य लगती हैं, पर आत्मिक प्रगति की दृष्टि से उनका बहुत महत्व है। “जैसा खाये अन्न—वैसा बने मन” वाली उक्ति बहुत ही सारगर्भित है। मन को सात्विक बनाना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से निताँत आवश्यक है। उसके लिए आहार शुद्धि को प्रथम चरण कहा जा सकता है। माँसाहार—नशेबाजी—अशुद्ध व्यक्ति और वातावरण में पकाया और परोसा गया मिर्च मसालों से भरा गरिष्ठ और उत्तेजक आहार मनः क्षेत्र में तमोगुण उत्पन्न करता है और उसका प्रभाव चित्त की अस्थिरता बनकर उपासना क्रम में भारी विघ्न उत्पन्न करता है।

पिप्पलाद ऋषि पीपल वृक्ष के फल खाकर निर्वाह करते थे। कणाद ऋषि शिलौञ्च वृत्ति से जंगली धान्य खा कर गुजारा करते थे। यह अन्न बुद्धि की प्रक्रिया है। हमें स्वयं लंबी अवधि तक मात्र जौ की रोटी और छाछ इन दो ही वस्तुओं पर रह कर पुरश्चरण क्रम चलाना पड़ा है। अभक्ष्य खाने से मन की विकृति का होना स्पष्ट है। शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह जब धर्मोपदेश दे रहे थे तब द्रौपदी ने पूछा—देव! जब मुझे भरी सभा में निर्वस्त्र किया जा रहा था, तो आपने यही धर्मोपदेश कौरवों को क्यों नहीं दिये? उत्तर में भीष्म ने इतना ही कहा—उन दिनों मैं कुधान्य खा रहा था, अस्तु धर्मज्ञान रहते हुए भी उसे चरितार्थ करने का साहस सम्भव न हो सका।

आहार शुद्धि के लिए हम अपने खाद्य पदार्थों में सात्विक वस्तुएँ ही स्वीकार करें। दो बार से अधिक भोजन न करने का नियम बना लें। दूध, छाछ, रस, क्वाथ जैसे पेय पदार्थों के अतिरिक्त बीच−बीच में अन्य चीजें न लें। भूख से कम खायें। जल्दी न निगलें, चबा कर खायें। सप्ताह में एक दिन अथवा एक जून निराहार रहें अथवा फल शाक दूध आदि पर निर्वाह करें। साप्ताहिक उपवास की परम्परा चल पड़े तो देश की जटिल खाद्य समस्या का सहज समाधान निकल सकता है। साथ ही अपच का हल निकल आने से स्वास्थ्य संकट भी बहुत हद तक हल हो सकता है।

सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत का पालन भी एक प्रकार का उपवास ही माना जा सकता है। नमक, मसाले, शकर जैसी वस्तुएँ मात्र स्वाद के लिए खाई जाती हैं। उपयोगी स्तर का—उपयुक्त मात्रा में नमक शकर आदि तो अन्न, शाक, फल, दूध आदि में सहज ही मिल जाता है। ऊपर से इन चीजों का लिया जाना स्वास्थ्य के लिए नहीं वरन् स्वाद के लिए ही प्रयुक्त होता है। स्वाद के लोभ में आहार की अधिक मात्रा उदरस्थ होती है और अपच उत्पन्न करके तरह−तरह के रोगों को जन्म देती है। स्वाद पर काबू पाना भी एक प्रकार का तप है। बिना नमक, शकर, मसाले आदि का भोजन सप्ताह में एक दिन भी किया जाता रहे तो इससे स्वादेन्द्रिय पर नियन्त्रण करने की तपश्चर्या चल पड़ेगी। गाँधी जी ने अपनी ‘सप्त महाव्रत’ पुस्तिका में ‘अस्वाद’ को प्रथम व्रत माना है और उसके फलस्वरूप ब्रह्मचर्य पालन तथा मनोनिग्रह में सफलता मिलने का प्रतिपादन किया है।

मनोनिग्रह तपश्चर्या में दूसरा व्रत ब्रह्मचर्य पालन है। स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से रतिक्रिया के अवसर न्यूनतम ही आने देने चाहिएं। बहुमूल्य जीवन रस को फुलझड़ी की तरह जलाने का अत्यन्त महंगा खिलवाड़ करने से बचना चाहिए। इससे अपनी और सहयोगी की हानि ही हानि है। क्षणिक विनोद की तुच्छता और शक्ति सञ्चय की महत्ता को समझते हुए इस दिशा में अधिकाधिक संयम बरता जाना ही दूरदर्शिता है। इस बचत का लाभ शारीरिक और मानसिक सुदृढ़ता के रूप में सामने आता है और आत्मिक प्रगति की दिशा में उस संचय से भारी सहायता मिलती है।

शारीरिक ब्रह्मचर्य से भी अधिक महत्व मानसिक कामुकता से बचने का है। शरीर क्षरण तो यदा−कदा ही होता है, पर कुदृष्टि एवं काम चिन्तन के फलस्वरूप मानसिक विकृति घड़ी−घड़ी उत्पन्न होती रहती है। काम सेवन से जिस प्रकार शारीरिक शक्ति घटती है उसी प्रकार काम चिन्तन से मनोबल एवं आत्मबल घटता है इससे आत्म−शक्ति में कमी पड़ती जाती है। ऐसी दुर्बल मनःस्थिति में वे आधार नहीं बन पाते जिनसे आत्मोत्कर्ष की दिशा में आशाजनक प्रगति संभव होती है। पुरुषों को नारियों के प्रति और नारियों को पुरुषों के प्रति पवित्र दृष्टि रखनी चाहिए। कामुक चिन्तन भी मानसिक व्यभिचार माना गया है और उससे होने वाली हानि को आत्मिक प्रगति के मार्ग में भारी व्यवधान माना गया है। मन को कामुक चिन्तन से बचाने के लिए उसके प्रति−पक्षी पवित्र भावों को अधिक समय तक मन में स्थान देना चाहिए। जितनी देर अशुद्ध चिन्तन के लिए मस्तिष्क को छूट दी जाती है, उतनी ही सुविधा यदि परिष्कृत चिन्तन के लिए दी जा सके तो उस परिष्कृत मनोभूमि से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, चिन्ता, निराशा, भय आदि का कोई कुविचार, मनोविकार पनप न सकेगा। सृजनात्मक शुभ चिन्तन के विचारों से मन को भरा पूरा रखने के लिए स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन का आश्रय लेकर मनोभूमि ऐसी प्रौढ़, परिपक्व बनाई जा सकती है जिसमें कुविचारों को पैर जमाने के लिए तनिक भी गुंजाइश न रहे।

हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, समर्थ विवेकानन्द आदि ब्रह्मचारियों के उज्ज्वल चरित्रों पर बार−बार विचार किया जाना चाहिए। शिवाजी ने एक अनिद्य सुन्दरी को उपभोग के लिए प्रस्तुत किये जाने पर इतना ही कहा था—“ऐसी सुन्दर मेरी माता होती तो मैं इतना सुन्दर होता”। अप्सरा उर्वशी ने अर्जुन से उसी जैसा पुत्र पाने के उद्देश्य से काम प्रस्ताव किया तो अर्जुन ने उत्तर दिया—“आप कुन्ती की तरह मेरी माता और मैं आपका सगे पुत्र की तरह बालक हूँ। इसी प्रकार तत्काल आपकी पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण हो जाती है।” ऐसी ही पवित्र दृष्टि रखने से आत्मबल सञ्चित होता है। इस मनोनिग्रह को तप की ही संज्ञा दी गई है। स्वादेन्द्रिय और कामेन्द्रिय की स्थूल और सूक्ष्म लिप्सा पर काबू पाया जा सके तो समझना चाहिए कि इन्द्रिय निग्रह का उद्देश्य पूरा हो गया। आँख, नाक, कान आदि की चित्त को चंचल बनाने में तनिक ही भूमिका रहती है। प्रधान तो यही दो स्वादेन्द्रियाँ हैं इनका उपभोग और चिन्तन रोकने के लिए जो प्रयत्न किये जाते है, उन सभी को तपश्चर्या का अंग माना गया है।

भूलों के लिए शारीरिक−मानसिक दण्ड, प्रताड़ना को प्रायश्चित कहते हैं। यह भी तप वर्ग में ही आती हैं। दैनिक भूलों को समझना और भविष्य में वैसा न होने देने की सतर्कता तीव्र करना—यदि नैतिक गलतियाँ हुई हैं तो उनके लिए भोजन में आँशिक कटौती, अमुक समय का मौन, नींद में कटौती, अतिरिक्त श्रम, उठक−बैठक जैसी प्रताड़ना, दण्ड व्यवस्था स्वयं की जा सकती है। पिछले जीवन में कोई बड़े अपराध बने हों तो उनके लिए चांद्रायण व्रत, दाढ़ी बढ़ाना, अमुक समय नंगे पैर रहना, पैदल तीर्थ यात्रा, धनदान जैसी किन्हीं विशेष प्रायश्चित्यों की व्यवस्था किसी उपयुक्त नीतिवेत्ता के परामर्श से करनी चाहिए। इससे मन पर चढ़े हुए पाप भार से निवृत्ति मिलती है।

स्थूल शरीर को तपाने वाली उपरोक्त कुछ कष्ट साध्य तप-तितीक्षाओं का उल्लेख किया गया है। सूक्ष्म शरीर मन को तपाने के लिए तृष्णा और वासना का लोभ और मोह का परित्याग करना पड़ता है। वैराग्य इसी का नाम है। सादा जीवन उच्च विचार का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूक्ष्म शरीर में उत्कृष्टता बनी रहे इसके लिए सादगी का नम्रता एवं मितव्ययिता का अपनाया जाना आवश्यक है। खर्चीली तड़क-भड़क और उद्धत ठाट−बाट से बचाया जाय और भोजन, वस्त्र, निवास आदि जीवन चर्या के प्रत्येक क्षेत्र और औसत नागरिक जैसी सादगी बरती जाय। खर्च उतना ही किया जाय जितना निर्वाह के लिए निताँत आवश्यक हो। आवश्यकताएँ और भौतिक महत्वाकांक्षाएँ घटाई जाएं ताकि उनमें लगने वाला समय श्रम और मनोयोग परमार्थ प्रयोजनों में लगाने के लिए बचाया जा सके।

संयम और सादगी की नीति अपना कर शक्तियों का संचय एवं अभिवर्धन करने के लिए प्रयत्नशील रहने में अपने साथ कठोरता बरतना (2) लोक मंगल के पुण्य प्रयोजनों में अपनी सामर्थ्य का बड़ा भाग लगाने के कारण स्वयं को कठिनाई में रहने की स्थिति का अभ्यास (3) स्वार्थरत लोगों जितना भौतिक लाभ उपार्जन करने में न्यूनता रह जाने पर भी संतोष (4) अनीति से संघर्ष करने में आसुरी तत्वों के आक्रमण से आघात। यह सब कारण ऐसे हैं कि जिनसे उच्चस्तरीय महा मानवोचित जीवन जीने वालों को आये दिन बास्ता पड़ता है। विलासी और महत्वाकांक्षी रीति−नीति अपनाने वालों का न्यायोचित उपार्जन अपनी बढ़ी−चढ़ी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाता और फिर वे मानवता के महान् कर्तव्यों का पालन करने के लिए समय और साधन कहाँ से पायें? यह प्रयोजन अपने साथ मितव्ययिता कष्ट सहिष्णुता, मनोनिग्रह जैसी सख्ती बरते बिना और किसी प्रकार पूरे नहीं हो सकते।

अनीति पर उतारू लोगों को सिद्धान्तवादी सहन नहीं हो सकते वे देखते हैं कि प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से वे उनके स्वेच्छाचार में बाधक हैं। नीति का समर्थन और अनीति का विरोध करना भी उनके स्वार्थों पर चोट पहुँचाता है। वे सोचते हैं, यह रोड़ा रास्ते से हटाकर निष्कंटक होना चाहिए। ऐसी दशा में अनीति पोषकों के आक्रमण का शिकार होना पड़ता है। फिर कई बार ऐसी विवशता आ जाती है कि अवाँछनीयताओं को चुपचाप सहने के लिए अपना अन्तरात्मा तैयार नहीं होता और अन्याय से जूझने में बड़ी से बड़ी हानि उठाने के लिए भी अपना शौर्य−साहस तन कर खड़ा हो जाता है। प्रसिद्ध है कि आक्रान्ता लोग संगठित हमला करते हैं, पर बचाव पक्ष के लोग अपनी भीरुता अथवा तथाकथित शांतिप्रियता के कारण मुँह छिपाये बैठे रहते हैं। चार गुण्डों का मुकाबला करने में चालीस सामान्य लोग हलके पड़ते हैं। ऐसी दशा में अन्याय विरोधी अकेला पड़ जाता है और उसे अपनी विरोधात्मक साहसिकता के कारण कई प्रकार के आघात सहने पड़ते हैं। इतिहास के पृष्ठों पर संतों सुधारकों और शहीदों को दुष्टों द्वारा तरह−तरह से सताये जाने के अगणित घटनाक्रम मिलते हैं। इनका दोष इतना ही था कि उनने अवाँछनीयताओं के साथ असहयोग, विरोध प्रकट किया था और उनका उन्मूलन करने का प्रयास कर रहे थे। विरोध न करने से अनीति को प्रोत्साहन मिलता है और वह सौ गुने उत्साह से विनाश पर उतारू होती है ऐसी दशा में प्रतिरोध अनिवार्य हो जाता है। तब जो इतना साहस दिखाएं वे चोट सहने को भी तैयार रहें। इसी की पूर्व तैयारी के लिए भी कष्ट सहिष्णुता का पूर्वाभ्यास करना पड़ता है।

सुविधा भरा जीवन आलसी बनाता है और प्रतिभा को प्रसुप्त स्थिति में धकेल देता है। संघर्षमय, कठिनाई भरे जीवन में अन्य असुविधाएँ कितनी ही क्यों न हों, इतना लाभ स्पष्ट है कि उससे मनुष्य की प्रखरता निखरती है। अमीरी के वातावरण में से कदाचित ही कभी कोई प्रतिभाएँ उभरती हैं। संसार भर के महामानवों के इतिहास में यह तथ्य स्पष्ट है कि वे या तो कठिनाइयों की परिस्थिति में जन्मे थे अथवा उनने जानबूझकर कठिनाइयों से भरा जीवन−क्रम अपनाया था। पत्थर पर रगड़ने से ही चाकू की धार तेज होती है मानवी प्रतिभा के तीक्ष्ण होने में भी यही तथ्य काम करता है।

गायत्री पुरश्चरणों के समय आमतौर से साधकों को भोजन संयम, अस्वाद, व्रत−उपवास, ब्रह्मचर्य पालन, अपने शरीर की सेवा—कपड़े धोना, हजामत बनाना आदि कार्य स्वयं करना, कोमल शैय्या त्याग कर भूमि या तख्त पर सोना, मारे हुए पशुओं का चमड़ा प्रयोग में न लाकर करुणा का परिचय देना, कुछ समय मौन रहना जैसी तितीक्षाएँ बरतने के लिए कहा जाता है। इस निर्देश के पीछे तथ्य इतना ही है कि कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करते हुए हर घड़ी यह विचार करते रहा जाय कि आदर्श जीवन जीने वाले के लिए स्वेच्छापूर्वक असुविधाएँ सहन करने में उत्साह एवं संतोष करने का स्वभाव परिपक्व करना आवश्यक है। अभ्यास रहने से, वैसा चिन्तन चलते रहने से अवसर आने पर वे अड़चनें अप्रत्याशित नहीं लगतीं और सोचा जाता है यह तो होना ही था, इसकी तैयारी तो पूर्वाभ्यास के रूप में देर से की जाती रही है।

तप तितीक्षा में शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक कठिनाई को स्वेच्छापूर्वक आमंत्रित किया जाता है। इसे देवता के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शन का प्रमाण माना जाता है। वस्तुतः यह देवता और कोई नहीं ‘आत्म देव’ ही है। अपने आपको परिष्कृत करके देव के स्तर तक पहुँचाने के प्रयास ही वास्तविक साधनाएँ हैं। उसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधन—विधान का ढाँचा खड़ा किया गया है। यह तथ्य समझ लेने पर ही साधक को तत्व ज्ञान उपलब्ध हो गया माना जायगा।


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