मनुष्य जीवन ईश्वर का अनुपम उपहार है। इससे बड़ा अनुदान उसके पास ऐसा और कोई नहीं है जो प्राणी को दिया जा सके। इसकी विशेषताएं और सम्भावनाएँ इतनी अद्भुत हैं जिनका स्वरूप सामने आने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह उपहार ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक बनने की भूमिका निबाहने के लिए मिला है। जीवन अपने कषाय कल्मषों को धोकर ईश्वरीय सत्ता में विलीन होने की मुक्ति का अधिकारी बने यह मनुष्य जीवन का प्रथम उद्देश्य है। इसे पाने के लिए उसे हर दृष्टि से आदर्श बनना पड़ता है। दूसरों के लिए ऐसे ही लोग प्रकाश स्तम्भ बनते हैं। जीवन का दूसरा उद्देश्य है भगवान के इस विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुविकसित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में सहायक सिद्ध होना—परमात्मा का हाथ बटाना। इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए मनुष्य शरीर जैसा अनुपम उपहार प्राणी को दिया गया है। यह अमानत इसी विश्वास के आधार पर दी गई है कि उसका सही एवं समुचित उपयोग किया जायगा। यदि वैसा न करके इस अनुदान को व्यक्तिगत विलासिता एवं अहंकारिता की पूर्ति में लगा दिया जाता है तो यह ईश्वर के साथ एक प्रकार का विश्वासघात ही हुआ। इसे धरोहर का दुरुपयोग, अमानत में खयानत कहा जा सकता है।
हम अपने स्वरूप, ईश्वर के अनुग्रह—जीवन के महत्व एवं लक्ष्य की बात को एक प्रकार से पूरी तरह भुला बैठे हैं। न हमें अपनी सत्ता का ज्ञान है, न ईश्वर का ध्यान और न लक्ष्य का ज्ञान। अज्ञानान्धकार की भूल भुलैया में बेतरह भटक रहे हैं। यह भुलक्कड़पन विचित्र है। लोग वस्तुओं को तो अक्सर भूल जाते हैं, सुनी, पढ़ी बातों को भूल जाने की घटनाएं भी होती रहती हैं। कभी के परिचित भी विस्मृत होने से अपरिचित बन जाते हैं। पर ऐसा कदाचित ही होता है कि अपने आपे को ही भुला दिया जाय। हम अपने को शरीर मात्र मानते हैं। उसी के स्वार्थों को अपना स्वार्थ, उसी की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता मानते हैं। शरीर और मन यह दोनों ही साधन जीवन रथ के दो पहिये मात्र हैं, पर घटित कुछ विलक्षण हुआ है। हम आत्मसत्ता को सर्वथा भुला बैठे हैं। यों शरीर और आत्मा की पृथकता की बात कही सुनी तो अक्सर जाती है। पर वैसा भान जीवन भर में कदाचित ही कभी होता हो। यदि होता भी है तो बहुत ही धुंधला। यदि वस्तुस्थिति समझ ली जाती है और जीव−सत्ता तथा उसके उपकरणों की पृथकता का स्वरूप चेतना में उभर जाता है तो आत्मकल्याण की बात प्रमुख बन जाती है और वाहनों के लिए उतना ही ध्यान दिया जाता है जितना कि उनके लिए आवश्यक था। आज तो ‘हम’ नंगे फिर रहे हैं और वाहनों को स्वर्ण आभूषणों से सजा रहे हैं। ‘हम’ भूखे मर रहे हैं और वाहनों को घी पिलाया जा रहा है। ‘हम’ से मतलब है आत्मा और वाहन का मतलब है शरीर और मन। स्वामी सेवकों की सेवकाई में लगा है और अपने उत्तरदायित्वों को सर्वदा भुला बैठा है यह विचित्र स्थिति है।
वस्तुतः हम अपने आपे को खो बैठे हैं। उसी को खोजते हैं। ध्यान−साधना का उद्देश्य इस विस्मृति को स्मृति में बदलना है। कोई वस्तु खो जाती है तो ध्यान करते हैं कि उसे घर से लेकर चले थे तब कहाँ−कहाँ तक साथ थी और फिर कहाँ से खाली हाथ चले। पैसा घटता है तो ध्यान करते हैं कि कहीं रखा तो नहीं—किसी को दिया तो नहीं—कहीं गिरा तो नहीं। मस्तिष्क पर अधिक जोर देने से स्मृति पहले उभरती है और प्रायः याद आ जाती है कि वस्तु या पैसा कहाँ रहा होगा। भौतिक जीवन में हम प्रायः ध्यान के सहारे ही विस्मृति के कारण उत्पन्न होती रहने वाली कठिनाईयों से पीछा छुड़ाते हैं और जो गुम गया है, उसे प्राप्त करते हैं।
आध्यात्मिक ध्यान का उद्देश्य है, अपने स्वरूप और लक्ष्य की विस्मृति के कारण उत्पन्न वर्तमान विपन्नता से छुटकारा पाना। एक बच्चा घर से चला ननिहाल के लिए। रास्ते में मेला पड़ा और वह उसी में रम गया। वहाँ के दृश्यों में इतना रमा कि अपने घर तथा गन्तव्य को ही नहीं अपना नाम पता भी भूल गया।’ यह कथा बड़ी अटपटी लगती है, पर है सोलह आने सच और वह हम सब पर लागू होती है। अपना नाम पता, परिचय पत्र, टिकट आदि सब कुछ गंवा देने पर हम असमंजस भरी स्थिति में खड़े हैं कि आखिर हम हैं कौन—कहाँ से आये और कहाँ जाना था? स्थिति विचित्र है इसे न स्वीकार करते बनता है और न अस्वीकार करते। स्वीकार करना इसलिए कठिन है कि हम पागल नहीं, अच्छे खासे समझदार हैं। सारे कारोबार चलाते हैं फिर आत्म−विस्मृत कहाँ हुए? अस्वीकार करना भी कठिन है क्योंकि वस्तुतः हम ईश्वर के अंश हैं—महान मनुष्य जन्म के उपलब्ध कर्त्ता हैं तथा परमात्मा को प्राप्त करने तक घोर अशान्ति की स्थिति में पड़े रहने की बात को भी जानते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट है जो होना चाहिए वह नहीं है और जो करना चाहिए था वह कर भी नहीं रहे हैं। यही अंतर्द्वंद्व उभर कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छाया रहता है और हमें निरन्तर घोर अशाँति अनुभव होती है।
जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता—ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए उस लक्ष्य पर ध्यान को एकाग्र करना आवश्यक है। महत्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे, छापे एवं मॉडल बनाये जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसी को देख−देख कर अपना निर्माण कार्य चलाते हैं। भगवान का स्वरूप और गुण, कर्म, स्वभाव कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता—तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। ध्यान प्रक्रिया का यही स्वरूप है।
व्यक्तिगत जीवन में कितने ही व्याकुल विचलित कर देने वाले ऐसे प्रसंग आते हैं जो मनःस्थिति को उद्विग्न करके रख देते हैं इन आवेश ग्रस्त क्षणों में मनुष्य संतुलन खो बैठता है—न सोचने योग्य सोचता है—न कहने योग्य कहता है और न करने योग्य करता है। गलती आखिर गलती ही रहती है और उसके दुष्परिणाम भी निश्चित रूप से होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मुसीबत अकेली नहीं आती अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेट कर लाती है। इस कथन में सचाई इसलिए है कि जिन कारणों से मानसिक संतुलन बिगड़ा था उनकी हानि तो प्रत्यक्ष ही थी। हानि न होती तो उद्वेग क्यों होता? अब उद्वेग के कारण जो असंगत चिन्तन कथन और क्रिया−कलाप आरम्भ हुआ उसने अन्यान्य कितनी ही नई समस्याएँ उत्पन्न करके रख दीं। कई बार तो उद्विग्नता शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करने में भी आगे बढ़ जाती है और आत्म−हत्या अथवा दूसरों की हत्या कर डालने जैसे संकट उत्पन्न करती है।
असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए ध्यान एकाग्रता के कुशल−अभ्यास से बढ़कर और कोई अधिक उपयोगी उपाय हो नहीं सकता। कई बार मन क्रोध, शोक, कामुकता, प्रतिशोध, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में बेतरह फँस जाता है और उस स्थिति में अपना या पराया कुछ भी अनर्थ हो सकता है। उद्विग्नताओं में घिरा हुआ मन कुछ समय में सनकी या विक्षिप्त स्तर का बन जाता है। सही निर्णय कर सकना और वस्तु स्थिति को समझ सकना। उसके बस से बाहर की बात हो जाती है। इन विक्षोभों से मस्तिष्क को कैसे उबारा जाय और कैसे उसे संतुलित स्थिति में रहने का अभ्यस्त कराया जाय, इसका समाधान ध्यान साधन के साथ जुड़ा हुआ है। मन को अमुक चिन्तन प्रवाह से हटाकर अमुक दिशा में नियोजित करने की प्रक्रिया ही ध्यान कहलाती है। इसका प्रारम्भ भटकाव के स्वेच्छाचार से मन को हटाकर एक नियम निर्धारित दिशा में लगाने के अभ्यास से आरंभ होता है। इष्टदेव पर अथवा अमुक स्थिति पर मन को नियोजित कर देने का अभ्यास ही तो ध्यान में करना पड़ता है। मन पर अंकुश पाने—उसका प्रवाह रोकने में—सफलता प्राप्त कर लेना ही ध्यान की सफलता है। यह स्थिति आने पर कामुकता शोक संतप्तता, क्रोधान्धता, आतुरता ललक, लिप्सा जैसे आवेशों पर काबू पाया जा सकता है। मस्तिष्क को इन उद्वेगों से रोक कर किसी उपयोगी चिन्तन में मोड़ा−मरोड़ा जा सकता है। कहते हैं कि अपने को वश में कर लेने वाला—सारे संसार को वश में कर लेता है। आत्म−नियंत्रण की यह स्थिति प्राप्त कर लेता है। आत्म−नियन्त्रण की यह स्थिति प्राप्त करने में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। इसका लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मिलता है। अभीष्ट प्रयोजनों में पूरी तन्मयता, तत्परता नियोजित करने से ही किसी कार्य का स्तर ऊँचा उठता है, सफलता का सही मार्ग मिलता है और बढ़ी−चढ़ी उपलब्धियाँ पाने का अवसर मिलता है। आत्मिक क्षेत्र में भी यही तन्मयता प्रसुप्त शक्तियों के जागरण से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक का महत्वपूर्ण माध्यम बनती हैं।
यदि यह अभ्यास हो जाय तो असंतुलनजन्य उन सभी कठिनाइयों से बचा जा सकता है जो सामान्य मानव जीवन को अस्त−व्यस्त और नष्ट भ्रष्ट करके रख देती हैं। आलस्य, प्रमाद, चिन्ता, निराशा, भय, आशंका जैसे रक्त को ठंडा कर देने वाले और सशक्त मनुष्य को अपंग, असफल बना कर रख देने वाली अवसादग्रस्त मनःस्थिति को यदि बदला जा सके और उसे श्रम−निष्ठा, काम में दिलचस्पी, उत्साह, आशा, साहस, दृढ़ निश्चय जैसे स्तर तक पहुँचाया जा सके तो गतिविधियों में काया−कल्प जैसा परिवर्तन हो सकता है और पग−पग पर असफल होने वाला व्यक्ति एक के बाद दूसरी सफलता प्राप्त करते हुए उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। इसी प्रकार सामान्य जीवन में आये दिन प्रस्तुत होने वाली दुःख, शोक, क्षोभ, विद्रोह, क्रोध, आवेश उत्पन्न करने वाली घटनाओं को धैर्यपूर्वक सहन किया जाय और मस्तिष्क को विक्षुब्ध न करके कठिनाइयों का हल सोचा जाय तो इतने भर आत्म−नियंत्रण से, उपस्थित नई कठिनाई का आधा समाधान निकल सकता है।
अवसाद की ‘लो ब्लड प्रेशर’ और आवेश की ‘हाई ब्लड प्रेशर’ से तुलना की जा सकती है। यह दोनों मानसिक रोग प्रायः आधी शक्ति नष्ट कर देते हैं। इनसे बचा जा सके तो जीवन संपदा का पूरा लाभ उठाया जा सकता है । इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए अपने में यह शक्ति होनी चाहिए कि आवेशों के प्रवाह को रोक कर मन को सन्तुलित रखा जा सके और उसे उपयोगी दिशा में सोचने के लिए बलपूर्वक नियोजित किया जा सके। ध्यान योग में इसी का अभ्यास करना पड़ता है। मन को अमुक प्रकार के चिन्तन से—स्वेच्छाचार से रोककर उसे अरुचिकर होते हुए भी अमुक ‘चिन्तन में बलपूर्वक लगाने के लिए कड़ाई बरतने का नाम ही तो ध्यानयोग है। इस दिशा में न्यूनाधिक जितनी सफलता मिलती चलेगी उतना ही भौतिक एवं आत्मिक प्रगति का द्वार खुलता जायगा।
कइयों को एक विचित्र मानसिक रोग होता है कि वे सोते−सोते उठकर चल देते हैं—अमुक काम करने लगते हैं और फिर उसे करने के बाद अपनी जगह पर वापस आकर सो जाते हैं । मनोरोग चिकित्सा में इस व्याधि का विस्तृत वर्णन और चिकित्सा विधान मौजूद है। अब यह रोग और भी अधिक बढ़ने लगा है। फ्रांस में तो ऐसी घटनाएँ पिछले ही दिनों इतनी हुई हैं जिनमें लोग घर से बाहर जाकर अपना नाम, पता, व्यवसाय एवं अब तक का सारा घटनाक्रम ही भूल गये और अजनबी व्यक्ति की तरह नये ढंग का जीवन आरम्भ करके गुजारा करने लगे। बहुत वर्षों बाद उन्हें अपनी पुरानी स्थिति का स्मरण आया तब वे उस नये जंजाल को छोड़−छाड़कर घर वापस लौटे। कभी−कभी कुछ विचित्र मनःस्थिति के लड़के घर से भाग खड़े होते हैं और कहीं जाकर गुजर करने लगते हैं। अपना नाम पता तो याद रहता है, पर घर वालों के साथ मधुर संबंधों का एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाता है और वे नई जगह में, नये वातावरण में इतने घुल जाते हैं कि जहाँ से आये थे वहाँ वापिस जाने या चिट्ठी पत्री लिखने या समाचार देने तक की आवश्यकता नहीं समझते। इस स्थिति में रहते हुए उन्हें मुद्दतें बीत जाती हैं। घर वालों की याद उन्हें तनिक भी विचलित नहीं करती। वे ऐसी मनःस्थिति में रहते हैं मानो घर से कोई संबंध ही न हो। घर वाले ढूँढ़ते, रोते, कलपते रहते हैं पर उन्हें इसकी तनिक भी अनुभूति नहीं होती। यह भी स्नेह संबंधों का अर्ध विस्मरण ही है। जिन्हें ऐसी स्थिति प्राप्त है उन्हें भी एक प्रकार का भावनात्मक रोगी ही कह सकते हैं। स्नेह संबंध का रक्त बहाने वाली उनकी संवेदन शिराएं सूक्ष्म शरीर में एक प्रकार से सूख ही जाती हैं और वे प्रकारान्तर से मानसिक पक्षाघात पीड़ित कहे जा सकते हैं।
लगभग ऐसी ही मानसिक स्थिति कारण−शरीर के क्षेत्र में हम सबकी है। अपने मूल स्वरूप के बारे में, जीवन के महत्व और लक्ष्य के बारे में गम्भीरतापूर्वक सोच सकना बन ही नहीं पड़ता। बहिर्मुखी जीवन की शरीर यात्रा से संबंधित खेल−खिलवाड़ों में ही सारी चेतना जुड़ी रहती है। वासना, तृष्णा की पूर्ति के लिए ही नट−मरकट स्तर की उथली खिलवाड़ में उलझे रहना ही पर्याप्त लगता है। यह तो स्मरण ही नहीं आता कि हम हैं कौन और यहाँ क्या करने आये हैं? ईश्वर ने यह सुर−दुर्लभ अनुदान किस प्रयोजन के लिए दिया है?
ध्यानयोग का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में अपने स्वरूप के बारे में सोच−विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है। यदि किसी प्रकार वह वापिस लौट सके तो लंबा सपना देखकर डरे हुए व्यक्ति जैसी अन्तः स्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा कि मेले में खोये हुए बच्चे से—आत्म विस्मृत मानसिक रोगियों से—अपनी स्थिति भिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं घाटे में रहते हैं और अपने संबंधियों को दुःखी करते हैं। हम आत्म−बोध को खोकर भेड़ों के झुण्ड में रहने वाले सिंह की तरह दयनीय स्तर का जीवन−यापन कर रहे हैं और अपनी माता—परमात्मा−सत्ता को कष्ट दे रहे हैं—रुष्ट कर रहे हैं।
विस्मरण का निवारण—आत्म बोध की भूमिका में जागरण—यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है—अपने स्वरूप का भी अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की स्मृति फिर से ताजा की जाती है और यह अनुभव किया जाता है कि जिन दिव्य सत्ता से एक तरह संबंध विच्छेद कर रखा गया है, वही हमारी जननी और परम शुभ चिन्तक है। इतना ही नहीं वह कामधेनु की तरह इतनी सशक्त भी है कि उसका पयः पान करके देवोपम स्तर का लाभ ले सकें। कल्प−वृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है, ईश्वरीय सत्ता से सम्पर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने के बाद भी ऐसा कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव दारिद्रय अथवा शोक−संताप कहा जा सके। ध्यान−योग हमें इसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है। स्पष्ट है कि आत्म−बोध से बढ़कर मानव जीवन का दूसरा लाभ नहीं हो सकता। भगवान बुद्ध को जिस वट-वृक्ष के नीचे आत्म-बोध हुआ है उसकी डालियाँ काट-काट कर संसार भर में इस आशा से बड़ी श्रद्धापूर्वक आरोपित की गई थीं कि उसके नीचे बैठ कर अन्य लोग भी आत्म-बोध का लाभ प्राप्त करेंगे और दूसरे बुद्ध बनेंगे। किसी स्थूल वृक्ष के नीचे बैठकर महान जागरण की स्थिति प्रात कर सकना कठिन है। पर ध्यानयोग के कल्प-वृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म-बोध का लाभ ले सकता है और नर-पशु के स्तर से ऊँचा उठकर नर-नारायण के समकक्ष बन सकता है।
मन जंगली हाथी की तरह है, जिसे पकड़ने के लिए पालतू प्रशिक्षित हाथी भेजने पड़ते हैं। सधी हुई बुद्धि पालतू हाथी का काम करती है। ध्यान के रस्से में पकड़-जकड़ कर उसे काबू में लाती है और फिर उसे सत्प्रयोजनों में संलग्न हो सकने योग्य सुसंस्कृत बनाती है।
हरी घास में रहने वाले टिड्डे हरे रंग के होते हैं, पर यदि उन्हें सूखी घास में रहना पड़े तो कुछ समय बाद उसी रंग के हो जायेंगे। यह ध्यान साधना का चमत्कार है। जो वातावरण मस्तिष्क में छाया रहता है व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढलने लगता है। भगवत् चिन्तन से न केवल मन:स्थिति, वरन् सारी जीवन सत्ता ही उसी ढाँचे में ढलने लगती है।
पानी का स्वभाव नीचे गिरना है। उसे ऊँचा उठाना है तो पम्प, चरखी, ढेंकी आदि लगाने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। निम्नगामी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों में हमारी अधिकाँश शक्तियाँ नष्ट होती रहती हैं। उन्हें पर उठाने के लिए मस्तिष्क में दिव्य-प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने की ध्यान की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। नीचे की मंजिल पर लगे हुए नल से पानी बहना बन्द हो जाता है तभी ऊपर की मंजिल के नल में पानी आता है। निम्नगामी प्रवृत्तियों से मन हट कर ब्रह्म लोक में- मस्तिष्क में- उन्हें केन्द्रित करने का कार्य ध्यान साधना से सम्पन्न होता है।