उच्चस्तरीय प्राणयोग सोऽहम् साधना

January 1976

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प्राणायाम के दो आधार हैं एक श्वास, प्रश्वास क्रिया का विशिष्ट विधि-विधान- कृत्य उपकर्म द्वारा मंथन। दूसरा प्रचंड संकल्प शक्ति द्वारा उत्पन्न चुम्बकत्व के सहारे प्राण-चेतना को खींचने और धारण करने का आकर्षण। मंथन और आकर्षण का द्विविधि समन्वय ही प्राणयोग का उद्देश्य पूरा करता है। इनमें से किसी एक को ही लेकर चला जाय तो ध्यानयोग का अभीष्ट उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। गहरी साँस लेना- डीप ब्रीदिंग- फेफड़ों का व्यायाम भी है। इसकी कई विधियाँ शरीर शास्त्रियों ने ढूँढ़ निकाली हैं और उनका उपयोग स्वास्थ्य लाभ के लिए किया है। अमुक विधि से दौड़ने से- दंड-बैठक, सूर्य नमस्कार आदि क्रियाएँ करने से भी यह प्रयोजन एक सीमा तक हो जाता है और इससे फेफड़े मजबूत होने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुधारने में सहायता मिलती है। इस श्वास-क्रिया की विविधता का साधन विज्ञान में चौंसठ प्रकार के विधानों में वर्णन है। भारत से बाहर इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार की विधियों का प्रचलन है।

दूसरा पक्ष संकल्प है। जिसके निमित्त अमुक मंत्रों का उच्चारण, अमुक आकृतियों का- अमुक ध्वनियों का ध्यान जोड़ा जाता है। इस ध्यान में दिव्य चेतना-शक्ति के रूप में प्राण तत्व के शरीर में प्रवेश करने का आस्था विकसित की जाती है। आस्था का चुम्बकत्व संकल्प का आकर्षण मात्र कल्पना की उड़ान नहीं है। विचार विज्ञान के ज्ञाता समझते हैं कि संकल्प कितना सशक्त तत्व है। उसी आधार पर समूचा मन:संस्थान, मन-बुद्धि, चित्त अहंकार का अन्त:करण चतुष्टय काम करता है और उसी से शरीर की विविध-विधि क्रियाओं की हलचलें गतिशील होती है। शरीर और मन के संयोग से ही कर्म बनते हैं और उन्हीं के भले-बुरे परिणाम सुख-दुःख के- हानि-लाभ के रूप में सामने आते रहते हैं। संक्षेप में यहाँ जो कुछ भी बन बिगड़ रहा है वह संकल्प के अनुरूप ही अपना स्तर बनाते, बढ़ाते और बदलते हैं। समष्टि के संकल्प से ही इस विश्व के सृजन, अभिवर्धन एवं परिवर्तन का क्रम चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में, बदलने की आवश्यकता जब ब्रह्म चेतना को होती है तब उसका संकल्प ही अवतार रूप में प्रकट होता है और अभीष्ट प्रयोजन पूरा करके चला जाता है।

योगाभ्यास में जिस श्रद्धा-विश्वास को आत्मिक प्रगति का आधार स्तम्भ माना गया है वह तथ्यतः भावभरा सुनिश्चित संकल्प भर ही है। साधनात्मक कर्मकाण्डों की शक्ति अधिक से अधिक एक चौथाई मानी जा सकती है। तीन चौथाई सफलता तो संकल्प की प्रखरता पर अवलम्बित रहती है। संकल्प शिथिल हो तो कई तरह के क्रिया-कृत्य करते रहने पर भी योग साधना के क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित न की जा सकेगी।

प्राणायाम का प्राण यह संकल्प है। योग-कृत्य तो उसका कलेवर भर है। सफल प्राण-योग के लिए जहाँ निर्धारित विधि-विधान को तत्परतापूर्वक क्रियान्वित करना पड़ता है वहाँ संकल्प को भी प्रखर रखते हुए उस साधना को सर्वांगपूर्ण बनाना पड़ता है।

प्राणायामों के विधान एवं स्वरूप अनेक हैं। इनमें से हमें दो ही पर्याप्त जँचे हैं। एक वह जो आत्म-शुद्धि के षट्कर्मों में सामान्य रूप से किया जाता है- जो सर्व-सुलभ और बाल कक्षा के छात्रों तक के लिए सुविधाजनक हैं। उसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है। धीरे-धीरे भरपूर साँस खींचना- जब तक रोका जा सके रोकना- धीरे-धीरे वायु को बाहर निकालना और फिर कुछ समय साँस को बाहर रोके रहना- बिना साँस लिये ही काम चलाना। वह प्राणायाम इतना भर है। उससे मनोनिग्रह की तरह श्वास निग्रह का एक बड़ा प्रयोजन पूरा होता है। मन के निग्रह का प्राण−निग्रह के साथ घनिष्ठ संबंध है। प्राण−निग्रह करने वाले के लिए—प्राणायाम साधक के लिए मनोनिग्रह सरल पड़ता है। उस प्राणायाम में प्राण तत्व का शरीर में प्रवेश, स्थापन, विकास, स्थिरीकरण हो रहा है, ऐसी भावना की जाती है और ध्यान किया जाता है कि जो भी विकृतियाँ तीनों शरीरों में थीं वे सभी साँस के साथ निकल कर बाहर जा रही हैं।

फेफड़े अपना कार्य संचालन करके सारे शरीर की गतिविधियों को आगे धकेलते रहने के लिए साँस द्वारा हवा खींचते हैं, यह प्रथम चरण हुआ। दूसरे चरण से रक्त कोष्ठ प्रविष्ट वायु में से केवल ऑक्सीजन तत्व खींचते हैं और अपनी खुराक पाते हैं। यह दो क्रियाएँ शारीरिक हैं और साधारण रीति से होती रहती हैं। तीसरा चरण विशिष्ट है। संकल्प शक्ति वायु के अन्तराल में घुले हुए प्राण को खींचती है। प्राण चेतन है, वह संकल्प चेतना द्वारा ही खींचा जा सकता है। प्राणायाम कर्त्ता का संकल्प, प्राण सत्ता के अस्तित्व उसके खींचे जाने तथा धारण किये जाने तथा तीनों शरीरों पर उसकी सुखद प्रतिक्रिया होने के संबंध में जितना सघन होगा उतना ही उसका चमत्कार उत्पन्न होगा। संकल्प रहित अथवा दुर्बल धुँधली भाव संवेदना का प्राणायाम श्वास व्यायाम भर बन कर रह जाता है और उसका लाभ श्वास संस्थान तक में मिलने तक सीमित रह जाता है। यदि प्राण−तत्व का चेतनात्मक लाभ उठाना हो तो उसके लिए श्वांस क्रिया से भी अधिक महत्वपूर्ण प्राणायाम के लिए नितान्त आवश्यक संकल्प बल को जगाया जाना चाहिए। यह निष्ठा परिपक्व की जानी चाहिए कि प्राण का आगमन, प्रवेश, कण−कण में उसका संस्थापन एवं शक्ति अनुदान सुनिश्चित तथ्य है इसमें संदेह के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है।

संध्यावन्दन के समय प्रयुक्त होने वाला प्राणायाम उपासना क्षेत्र में प्रवेश करने वालों प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना मनोनिग्रह में गड़बड़ी बनी रहेगी और प्रत्याहार धारणा एवं ध्यान के अगले चरण ठीक तरह से उठ सकना कठिन पड़ेगा।

उच्चस्तरीय प्राणायामों में ‘सोऽहम्’ साधना को सर्वोपरि माना गया है क्योंकि उसके साथ जो संकल्प जुड़ा हुआ है वह चेतना में उच्चतम स्तर तक उछाल देने में जीव और ब्रह्म का समन्वय करा देने में विशेष रूप से समर्थ है। इतनी—इस स्तर की—भाव संवेदना और किसी प्राणायाम में नहीं है। अस्तु उसे सामान्य प्राणायामों की पंक्ति में रखकर स्वतंत्र नाम दिये गये हैं। इसे “हंस योग” कहा गया है। हंस योग का महात्म्य, प्रयोग और परिणाम इतने विस्तारपूर्वक साधना शास्त्र में लिखा है कि वह उसे एक स्वतन्त्र योग शाखा मानने जैसी स्थिति बन जाती है।

‘सोऽहम् साधना को ‘अजपा जाप’ अथवा प्राण गायत्री भी कहा गया है। मान्यता है कि श्वास के शरीर में प्रवेश करते समय ‘स’ जैसी साँस रुकने के तनिक से विराम समय में “सो” जैसी—और बाहर निकलते समय ‘हम’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती रहती है। इसे श्वास क्रिया पर चिरकाल तक—ध्यान केन्द्रित करने की साधना द्वारा सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। चूँकि ध्वनि सूक्ष्म है स्थूल नहीं—इसलिए उसे अपने छेद वाले कानों से नहीं—सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा—शब्द तन्मात्रा के रूप में ही सुना जा सकता है। कोई खुले कानों से इन शब्दों को सुनने का प्रयत्न करेगा तो उसे कभी भी सफलता न मिलेगी।

नादयोग में मात्र सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा शंख, घड़ियाल, बादल, झरना, वीणा जैसे कितने ही दिव्य शब्द सुने जाते हैं। किन्तु हंस−योग में नासिका एवं कर्णेन्द्रिय की समन्वित सूक्ष्म शक्ति का दुहरा लाभ मिलता है।

‘सोऽहम्’ को अनाहत शब्द कहा गया है। आहत वे हैं, जो कहीं कोई चोट लगने से उत्पन्न होते हैं। अनाहत वे जो बिना किसी आघात के उत्पादन होते हैं। नादयोग में जो दिव्य ध्वनियां सुनी जाती हैं, उनके बारे में दो मान्यताएँ हैं। एक यह है कि प्रकृति के अंतराल सागर में पाँच तत्वों और सत, रज, तम यह तीन गुणों की जो उथल−पुथल मचती रहती है यह उनकी प्रतिक्रिया है। दूसरे यह माना जाता है कि शरीर के भीतर जो रक्त−संचार, आकुँचन−प्रकुँचन, श्वास−प्रश्वास जैसी क्रियाएँ अनवरत रूप से होती रहती हैं, यह शब्द उन हलचलों से उत्पन्न होते हैं। अस्तु यह आहत हैं। नादयोग को भी कई जगह अनाहत कहा गया है, पर आम मान्यता यही है कि वे आहत हैं। मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी होठ, जीभ, कंठ, तालु आदि अवयवों की—माँस-पेशियों की उठक−पटक से उत्पन्न होते हैं; अस्तु जप भी आहत हैं। आहत से अनाहत का महत्व अधिक माना गया है। अनाहत ब्रह्म चेतना द्वारा निश्चित और आहत प्रकृतिगत हलचलों से उत्पन्न होते हैं अस्तु उनका महत्व भी ब्रह्म और प्रकृति की तुलना जैसी ही न्यूनाधिक है।

तत्वदर्शियों का मत है कि जीवात्मा के गहन अंतराल में उसकी आत्मबोध प्रज्ञा स्वयमेव जगी रहती है और उसी की स्फुरणा से ‘सोऽहम्’ का आत्म−बोध अजपा जाप बनकर स्वसंचालित बना रहता है। संस्कृत भाषा के स+अहम् शब्दों से मिलकर ‘सोऽहम्’ का आविर्भाव माना जाता है। यहाँ व्याकरण शास्त्र की संधि प्रक्रिया के झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है। जो सनातन ध्वनियाँ चल रही हैं वे व्याकरण शास्त्र के अनुकूल हैं या नहीं यह सोचना व्यर्थ है। देखना इतना भर है कि इन सनातन शब्द संचार का क्या बैठता है? ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं’। दोनों का मिला−जुला निष्कर्ष निकला—वह मैं हूँ। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा—अहम् अर्थात् जीवात्मा। दोनों का समन्वय एकी भाव—‘सोऽहम्’। आत्मा और परमात्मा एक है, यह अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन है। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म−शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम्—शुद्धोसि, बुद्धोसि निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है। उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।

‘सोऽहम्’ उपासना के निमित्त किये गये प्राणायाम में इसी अविज्ञात तथ्य को प्रत्यक्ष करने का—प्रसुप्त जगाने का प्रयत्न किया जाता है। जीव अपने आपको शरीर मान बैठा है। उसी की सुविधा एवं प्रसन्नता की बात सोचता है, उसी के लाभ प्रयत्नों में संलग्न रहता है। काया के साथ जुड़े हुए व्यक्ति और पदार्थ ही उसे अपने लगते हैं और उसी सीमित संबंध क्षेत्र तक ममत्व को सीमित करके—अन्य सबको पराया समझता रहता है। ‘अपनों’ के लाभ के लिए ‘परायों’ को हानि पहुँचाने में उसे संकोच नहीं होता। यही है माया मग्न—भव−बंधनों में जकड़े हुए—मोहग्रस्त जीव की स्थिति। इसी में बंधे रहने के कारण उसे स्वार्थ के व्यर्थ के, अनर्थ के, कामों में संलग्न रहना पड़ता है। यही स्थिति प्राणी को अनेकानेक आधि−व्याधियों में उलझाती और शोक−संताप के गर्त में धकेलती है। इससे बचा, उभरा जाय, इसी समस्या को हल करने के लिए आत्म−ज्ञान एवं साधना विज्ञान का ढाँचा खड़ा किया गया है।

‘सोऽहम्’ को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इससे आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। “वह परमात्मा मैं ही हूँ” इस तत्वज्ञान में माया मुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नरकीट, नर−पशु और नर−पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आततायी ही लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिए बाधित करते थे। अहंकार−उन्मत्त मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे। पर इससे बना क्या, उनका अहंकार ही ले डूबा। ‘सोऽहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने घिरे शरीर को ईश्वर मानने के लिए नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उलटा अहंकार लगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी। यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश है। समुद्र और लहरों की, सूर्य और किरणों की, मठाकाश और घटाकाश की, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, आग और चिनगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल−आवरण, विक्षेपों से—कषाय−कल्मषों से मुक्त हुआ जीवन वस्तुतः ब्रह्म ही है। दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, वह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थ−परता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने हाथों आप बनाता है। साधना का उद्देश्य मनःक्षेत्र में भरी कुण्ठाओं और शरीर क्षेत्र में अभ्यस्त कुत्साओं के निराकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सर्वतोमुखी निर्मलता का अभिवर्धन ही ईश्वर प्राप्ति की दिशा में बढ़ने वाला महान् प्रयास माना गया है। सोऽहम्−साधना की प्रतिक्रिया यही होनी चाहिए।

‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की उक्ति धर्मशास्त्रों में अनेक स्थानों पर लिखी पाई जाती है और अनेक धर्मोपदेशकों द्वारा आये दिन सुनी जाती है। उसे सामान्य बुद्धि जानती और मानती भी है। पर इतने भर से बनता कुछ नहीं। यह मान्यता अन्तःकरण के गहनतम स्तर की गहराई तक उतरनी चाहिए। गहन आस्था बनकर प्रतिष्ठापित होने वाली श्रद्धा ही— अन्तःप्रेरणा बनती है और उसी के धकेले हुए मस्तिष्क तथा शरीर रूपी सेवकों को कार्य संलग्न होना पड़ता है। ‘सोऽहम्’ तत्वज्ञान यदि अन्तरात्मा की प्रखर श्रद्धा रूप में विकसित हो सके तो उसका परिणाम सुनिश्चित रूप में दिव्य जीवन जैसा काया−कल्प बनकर सामने आना चाहिए। तब व्यक्ति को उसी स्तर पर सोचना होगा जिस पर ईश्वर सोचता है और वही करना होगा जो ईश्वर करता है। एकता की स्थिति में दोनों का स्वरूप भी एक हो जाता है। नाला जब गंगा में मिलता है और बूँद समुद्र में घुलती है तो दोनों का स्वरूप एवं स्तर एक हो जाता है। ब्रह्म भाव से जगा−हुआ जीव अपने चिन्तन और कर्म क्षेत्र में सुविकसित स्तर का देव मानव ही दृष्टिगोचर होता है।

कहा जा चुका है कि-प्राणायाम के दो आचार हैं। एक श्वास−क्रिया का विधिविधान—दूसरा संकल्प शक्ति का प्रखर प्रयोग। संकल्प शक्ति से भावनात्मक स्तर का—अंतःकरण की भाव चेतना का परिष्कार होता है। विधि−विधान से शरीर और मनःक्षेत्र में काम करने वाली कितनी ही अज्ञात विशेषताओं का जागरण सम्भव होता है। इन्हें व्यक्तित्व में कितनी ही विशेषताएँ और अलौकिकताएँ उत्पन्न करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। सामान्य प्राणायामों से भी स्वास्थ्य संवर्धन एवं मानसिक विकास के कितने ही विचित्र लाभ मिलते हैं। फिर ‘सोऽहम्’ साधना जैसी अति उच्चस्तरीय प्राण-प्रक्रिया के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या? उसे यदि सही रीति से सम्पन्न किया जा सके तो आत्म-चेतना के महा समुद्र का मंथन करके वैसे ही रत्न प्राप्त किये जा सकते हैं जैसे कि पौराणिक गाथाओं में समुद्र मंथन के फलस्वरूप उपलब्ध हुए बताये गये हैं।


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