शब्द की प्रचण्ड शक्ति और मंत्र साधना

January 1976

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मुख को अग्निचक्र कहा गया है। मोटे अर्थों में उसकी संगति जठराग्नि से मिलाई जा सकती है। मंदाग्नि, तीव्राग्नि का वर्णन मुँह से लेकर आमाशय अन्त्रि संस्थान तक विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई पाचन ग्रन्थियों की निष्क्रियता−सक्रियता का परिचय देने के रूप में ही किया जाता है। मुँह चबाता है और पचाने का प्राथमिक कार्य अपने गह्वर में पूरा करता है। आगे चलकर आहार की पाचन क्रिया अन्यान्य रूपों में विकसित होती जाती हैं। अग्निचक्र की—मुख में अवस्थित ऊष्मा की—स्थूल चर्चा ही पाचन प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है। वस्तुतः उस संस्थान को यज्ञाग्नि का दिव्य कुण्ड कह सकते हैं, जिससे पाचन का ही नहीं, वाक्−शक्ति का भी उद्भव होता है। वाणी की शक्ति का जीवन के उत्कर्ष−अपकर्ष में कितना अधिक योगदान है। इसकी जानकारी किसी गूँगे और ओजस्वी वक्ता की स्थिति की तुलना करके देखने से मिल सकती है। संभावना का आदान−प्रदान कितना प्रभावी है इसका इसलिए पता नहीं चलता कि वह ढर्रा सहज अभ्यास में चलता रहता है। और हम उससे कुछ विशेष निष्कर्ष नहीं निकाल पाते। यदि हम किसी मूक योनि के प्राणी रहे होते और बातचीत का आनन्द एवं लाभ लेने वाले मनुष्य की सुविधा का लेखा−जोखा लेते तो पता चलता कि यह कितनी बड़ी उपलब्धि है।

मुख का अग्निचक्र स्थूल रूप से पाचन का—सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है। उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़ कर हैं। पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है। दिव्य प्रवाह संचार की बात कोई−कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ संबद्ध है।

शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता वरन् उनके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएँ—संवेदनाएँ—प्रेरणाएँ एवं शक्तियाँ भी जुड़ी होती हैं। यदि ऐसा न होता तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती। दूसरों को उठाने गिराने में उसका उपयोग न हो पाता। कटु शब्द सुनकर क्रोध का आवेश चढ़ आता है और न कहने योग्य कहने तथा न करने योग्य करने की स्थिति बन जाती है। चिन्ता का समाचार सुनकर भूख−प्यास और नींद चली जाती है। शोक संवाद सुनकर मनुष्य अर्धमूर्छित जैसा हो जाता है। तर्क तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते−देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित असंख्य मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं। द्रौपदी ने थोड़े से व्यंग−उपहास भरे अपमानजनक शब्द दुर्योधन से कह दिये थे। उनका भाव इतना गहरा उतरा कि अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश करने वाले महाभारत के रूप में उसकी भयानक प्रतिक्रिया सामने आई। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है। शब्द प्रवाह के साथ−साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रह कर जहाँ भी टकराते हैं वहाँ चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। शब्द को पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पन्दन भर कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली−संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती। वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है।

जपयोग में शब्द शक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को छान कर काम में लाया जाता है। नींबू का रस निचोड़ कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता है। दूध में से घी निकाल कर छाछ को महत्वहीन ठहरा दिया जाता है। जपयोग में ऐसा ही होता है। उसके द्वारा ऐसी चेतन शक्ति का उद्भव होता है। जो जपकर्त्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न करती है और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ट व्यक्तियों को—विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।

मंत्रों का चयन ध्वनि−विज्ञान को आधार मान कर किया गया है। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मंत्र की सामर्थ्य अद्भुत है। पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मंत्र श्लोक हजारों हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मंत्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता? वस्तुतः मंत्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुँथन ही महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीज मंत्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है नहीं। ह्रीं, श्री क्लीं, ऐ, हुं यं, फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है। उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कंपन उत्पन्न करता है और उनका जपकर्त्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

मानसिक, वाचिक एवं उपाँशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। वेद मंत्रों के अक्षरों के साथ−साथ उदात्त−अनुदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे−ऊँचे तथा मध्यवर्ती उतार−चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके अस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके।

मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर, दूसरी बाहर। आग जहाँ जलती है उस स्थान को गरम करती है, साथ ही वायुमण्डल में ऊष्मा बिखेर कर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप का ध्वनि प्रवाह—समुद्र की गहराई में चलने वाली जल धाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र−तत्र, सन्निहित अनेकों ‘चक्रों’ तथा ‘उपत्यिका’ ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। लगातार एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रवाह उत्पन्न करती हैं, जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है। पुलों पर सैनिकों के पैरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न न करने के लिए इसलिए मना किया जाता है कि इस साधारण-सी क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।

जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस प्रक्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्टर किसी छत के बीचों बची लटका दिया जाय और उस पर पाँच ग्राम भारी हलके से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जायं तो कुछ ही समय में वह सारा गार्डर काँपने लगेगा। यह लगातार—एक गति से—आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में—अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को जप ध्वनि का अनवरत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करके जागृति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थिभेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्त्ता को प्राप्त होता है। जगे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्मबल का नया संचार करते हैं। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इस नवीन उपलब्धि के नाम भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टि गोचर होते हैं।

टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। उँगली से चाबियाँ दबाई जाती हैं और कागज पर तीलियाँ गिर कर अक्षर छापने लगती हैं। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुञ्जियाँ कह सकते हैं। मन्त्रोच्चारण उँगली से उन्हें दबाना हुआ। यहाँ से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुँचता है और उन्हें झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना वह उपलब्धि है जो इन जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जपयोग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।

पुलों पर होकर गुजरती हुई सेना को पैर मिलाकर चलने पर, ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करने की मनाही कर दी जाती है। पुलों पर से गुजरते समय वे बिखरे हुए—स्वच्छतापूर्ण कदम बढ़ाते हैं। कारण यह है कि लेफ्ट राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है उसकी अद्भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में दरार पड़ सकती है और भारी नुकसान हो सकता है। मन्त्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है। और उसके फलस्वरूप शरीर के अन्तः संस्थानों में विशिष्ट हलचल उत्पन्न होती है। यह हलचलें उन आलौकिक शक्तियों की मूर्छना दूर करती हैं जो जागृत होने पर सामान्य मनुष्य को असामान्य चमत्कारों से संपन्न सिद्ध कर सकती हैं।

हाथों को लगातार थोड़ी देर तक घिसा जाय तो वे गरम हो जाते हैं। रगड़ से गर्मी और बिजली पैदा होती है, यह नियम विज्ञान की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले छात्र भी जानते हैं। जप में अनवरत उच्चारक्रम एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसाव के निशान बन जाते हैं। श्वास के आवागमन तथा रक्त की भाग−दौड़ से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और उसी पर जीवन अवलम्बित रहता है। डायनेमो में पहिया घूमने से बिजली उत्पन्न होने की बात सभी जानते हैं। जप में जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वह दौड़ लगाने पर शरीर के उत्तेजित हो जाने की तरह सूक्ष्म शरीर में उत्तेजना पैदा करती है और उस गर्मी से मूर्छित पड़ा अन्तर्जगत नये जागरण का अनुभव करता है। यह जागरण मात्र उत्तेजना नहीं होती उसके साथ−साथ दिव्य उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।

ध्वनियाँ उतनी ही नहीं है जितनी कि कानों से सुनाई पड़ती हैं। कान तो एक निश्चित स्तर के ध्वनि कंपन को ही सुन पाते हैं। उनके पकड़ से ऊँचे और नीचे कम्पनों वाले भी असंख्य ध्यान प्रवाह होते हैं जिन्हें मनुष्य के कान तो सुन नहीं सकते, पर उनके प्रभावों को उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष देखा जाना जा सकता है। इन्हें ‘सुपर सोनिक’ ध्वनि तरंगें कहते हैं।

मनुष्य की ग्रहण और धारण शक्ति सीमित है। वह अपनी दुबली−सी क्षमता के लिए उपयुक्त शब्द प्रवाह ही पकड़ सके, इसी स्तर की कानों की झिल्ली बनी है। किन्तु यह संसार तो शक्ति का अथाह समुद्र है और इसमें ज्वार−भाटे की तरह श्रवणातीत ध्वनियाँ गतिशील रहती हैं। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य की ग्रहण शक्ति सीमित है और वह अपने लिए सीमित प्रवाह ही ले पाता है अन्यथा यदि श्रवणातीत ध्वनियाँ भी उसे प्रभावित कर सकतीं तो जीवन धारण ही सम्भव न हो पाता।

शब्द की गति साधारणतया बहुत धीमी है। वह मात्र कुछ सौ फुट प्रति सैकिण्ड चल पाती है। तोप चलने पर धुँआ पहले दीखता है और धड़ाके की आवाज पीछे सुनाई पड़ती है। जहाँ दृश्य और श्रव्य का समावेश है वहाँ हर जगह ऐसा ही होगा। दृश्य पहले दीखेगा और उस घटना के साथ जुड़ी हुई आवाज कान तक पीछे पहुँचेगी।

रेडियो प्रसारण में एक छोटी−सी आवाज को विश्व व्यापी बना देने और उसे 1 लाख 86 हजार मील प्रति सैकिण्ड की चाल से चलने योग्य बना देने में इलेक्ट्रोमैगनेटिक तरंगों का ही चमत्कार होता है। रेडियो विज्ञानी जानते हैं कि ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक वैव्स’ पर साउण्ड का सुपर कम्पोज रिकार्ड कर दिया जाता है और वे पलक मारते सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती हैं।

इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों की शक्ति से ही अन्तरिक्ष में भेजे गये राकेटों की उड़ान को धरती पर से नियंत्रित करने, उन्हें दिशा और संकेत देने , याँत्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। वे ‘लेसर’ स्तर की बनती हैं तो शक्ति का ठिकाना नहीं रहता। एक फुट मोटी लोहे की चद्दर में सूराख कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। पतली वे इतनी होती हैं कि आँख की पुतली के लाखवें हिस्से में खराबी होने पर मात्र उतने ही टुकड़े का निर्धारित गहराई तक ही सीमित रहने वाला सफल आपरेशन कर देती हैं। अब इन किरणों का उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी बहुत होने लगा है। केन्सर, आंत्रशोध, यकृत की विकृति, गुर्दे की सूजन, हृदय की जकड़न जैसी बीमारियों की चिकित्सा में इनका सफल उपयोग हो रहा है।

‘सुपर सोनिक’ तरंगों का जप प्रक्रिया के द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। जप के समय उच्चारण किये गये शब्द—आत्म−निष्ठा, श्रद्धा एवं संकल्प शक्ति का समन्वय होने से वही क्रिया संपन्न होती है, जो रेडियो स्टेशन पर बोले गये शब्द−विशिष्ट विद्युत् शक्ति के साथ मिलकर अत्यंत शक्तिशाली हो उठते हैं और पलक मारते समस्त भूमण्डल में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जप प्रक्रिया में एक विशेषता यह है कि उससे न केवल समस्त संसार का वातावरण प्रभावित होता है, वरन् साधक का व्यक्तित्व भी झनझनाने, जगमगाने लगता है। जबकि रेडियो स्टेशन से प्रसारण तो होता है, पर कोई स्थानीय विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। लेसर रेडियम किरणें फेंकने वाले यंत्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता वे उन स्थानों को ही प्रभावित करते हैं जहाँ उनका आघात लगता है। जप−प्रक्रिया में साधक को और वातावरण को प्रभावित करने की वह दुहरी शक्ति है—जो नव वैज्ञानिकों के सामान्य यन्त्र उपकरणों में नहीं पाई जाती।


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