आत्मबोध चिंतन—तत्त्वबोध मनन

January 1976

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“हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत” की मान्यता लेकर जीवनक्रम बनाकर चला जाए तो वर्तमान स्तर से क्रमशः ऊँचे उठते चलना सरल पड़ेगा। मस्तिष्क और शरीर की हलचलें अन्तःकरण में जड़ जमाकर बैठने वाली आस्थाओं की प्रेरणा पर अवलंबित रहती हैं। आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य इस संस्थान को प्रभावित एवं परिष्कृत करना ही होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में वह साधना बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, जिसमें उठते ही नए जन्म की और सोते ही नई मृत्यु की मान्यता को जीवंत बनाया जाता है।

प्रातः बिस्तर पर जब आँख खुलती है, तो कुछ समय आलस को दूर करके शय्या से नीचे उतरने में लग जाता है। प्रस्तुत उपासना के लिए यही सर्वोत्तम समय है। मुख से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं, पर यह मान्यता−चित्र मस्तिष्क में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जमाना चाहिए कि “आज का एक दिन एक पूरे जीवन की तरह है। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाना चाहिए। समय का एक भी क्षण न तो व्यर्थ गँवाया जाना चाहिए और न अनर्थ कार्यों में लगाना चाहिए।” सोचा जाना चाहिए कि “ईश्वर ने अन्य किसी जीवधारी को वे सुविधाएँ नहीं दीं, जो मनुष्य को प्राप्त हैं। यह पक्षपात या उपहार नहीं; वरन् विशुद्ध अमानत है। जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर पूर्णता प्राप्त करने—स्वर्ग और मुक्ति का आनंद इसी जन्म में लेने के लिए दिया गया है। यह प्रयोजन तभी पूरा होता है, जब ईश्वर की इस सृष्टि को अधिक सुंदर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उपलब्ध जीवन-संपदा का उपयोग किया जाए। उपयोग के लिए यह सुरदुर्लभ अवसर मिला है। यह योजनाबद्ध सदुपयोग करने में ईश्वर की प्रसन्नता और जीवन की सार्थकता है।”

मंत्रजाप की तरह इन शब्दों को दुहराने की जरूरत नहीं है, वरन अत्यंत गंभीरतापूर्वक इस तथ्य को हृदयंगम किया जाना चाहिए। कल्पना-चित्र सिनेमा फिल्म की तरह स्पष्ट उभरने चाहिए और उनके साथ इतनी गहरी आस्था का पुट देना चाहिए कि यह चिंतन वस्तुस्थिति बनकर मस्तिष्क को पूरी तरह आच्छादित कर ले।

शौच जाने की आवश्यकता अनुभव हो तो विलंब नहीं करना चाहिए और शय्या त्यागकर नित्यकर्म में लग जाना चाहिए। थोड़ी गुंजाइश हो तो उठने से लेकर सोने के समय तक की दिनचर्या इसी समय बना लेनी चाहिए। यों नित्यकर्म करते हुए भी दिन भर का समय विभाजन कर लेना कुछ कठिन नहीं है। फुरती और चुस्ती से काम निपटाए जाएँ तो कम समय में अधिक काम हो सकता है। सुस्ती और उदासी में ही समय का तो भारी अपव्यय होता है। योजनाबद्ध दिनचर्या बनाई जाए और उसका मुस्तैदी से पालन किया जाए, तो ढेरों समय बच सकता है। एक काम के साथ दो काम हो सकते हैं। जैसे आजीविका उपार्जन के बीच खाली समय में स्वाध्याय तथा मित्रों में परामर्श हो सकता है। परिवार-व्यवस्था में मनोरंजन का पुट रह सकता है। निद्रा, नित्यकर्म, आजीविका उपार्जन, स्वाध्याय, उपासना, परिवार-व्यवस्था, लोक-मंगल आदि कार्यों में, कौन, कब, किस प्रकार, कितना समय देगा, यह हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति पर निर्भर है, पर समन्वय इन सब बातों का रहना चाहिए। दृष्टिकोण यह रहना चाहिए कि आलस्य-प्रमाद में एक क्षण भी नष्ट न हो और सारी गतिविधियाँ इस प्रकार चलती रहें, जिनमें आत्मकल्याण, परिवार निर्माण एवं लोक-मंगल के तीनों तथ्यों का समुचित समावेश बना रहे। इन सारे क्रियाकलापों में आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाया जाए। दुष्प्रवृत्तियों को— दुर्भावनाओं को स्थान न मिलने दिया जाए। जहाँ भी जब भी गड़बड़ दिखाई पड़े, तब वहीं उसकी रोक-थाम की जाए और गिरते कदमों को संभाल लिया जाए। समय, श्रम, चिंतन एवं धन का तनिक-सा अंश भी अवांछनीय प्रयोजन में नष्ट न होने दिया जाए। इन चारों ही संपदाओं का एक-एक कण सदुपयोग में लगता रहे। इस तथ्य पर तीखी दृष्टि रखी जाए। भूलों को तत्काल सुधारते रहा जाए, तो उस दिन के, उस जीवन को संतोषजनक रीति से जिया जा सकता है।

जल्दी सोने और जल्दी उठने का नियम जीवन-साधना में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बनाना ही चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त का समय अमृतोपम है। उस समय किया गया हर कार्य बहुत ही सफलतापूर्वक संपन्न होता है। अस्तु, जो भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रतीत होता हो, उसे उसी समय में करना चाहिए। सवेरे जल्दी उठना उन्हीं के लिए संभव है, जो रात्रि को जल्दी सोते हैं। इस मार्ग में जो अड़चने हों, उन्हें बुद्धिमतापूर्वक हल करना चाहिए। किंतु जल्दी सोने और जल्दी उठने की परंपरा तो अपने लिए ही नहीं, पूरे परिवार के लिए बना ही लेनी चाहिए।

रात्रि को सोते समय वैराग्य एवं संन्यास जैसी स्थिति बनानी चाहिए। बिस्तर पर जाते ही यह सोचना चाहिए कि निद्राकाल एक प्रकार की मृत्यु— विश्राम है। आज का नाटक समाप्त कल दूसरा खेल खेलना है। परिवार ईश्वर का उद्यान है। उसमें अपने को कर्तव्यनिष्ठ माली की भूमिका निभानी थी। शरीर, मन, ईश्वरीय प्रयोजनों को पूरा करने के लिए मिले जीवन-रथ के दो पहिये हैं। इन्हें सही राह पर चलाना था। धन, प्रभाव, पद यह विशुद्ध धरोहर है। उन्हें सत्प्रयोजनों में ही लगाना था। देखना चाहिए कि वैसा ही हुआ या नहीं? जहाँ गड़बड़ी हुई दिखाई दे, वहाँ पश्चात्ताप करना चाहिए और अगले दिन वैसी भूल न होने देने में कड़ी सतर्कता बरतने की अपने आपको चेतावनी देनी चाहिए।

संन्यासी अपना सब कुछ ईश्वर अर्पण करके परमार्थ-प्रयोजन में लगता है। सोते समय साधक की वैसी ही मनःस्थिति होनी चाहिए। मिली हुई अमानतें और सौंपी हुई जिम्मेदारियाँ आज ईमानदारी के साथ सँभाली गईं। यदि कल वे फिर मिलीं तो फिर उन्हें ईश्वरीय आदेश मानकर सँभाला जाएगा। अपना स्वामित्व किसी भी व्यक्ति या पदार्थ पर नहीं। यहाँ जो कुछ है सो सब ईश्वर का है। अपना तो केवल कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व भर है। उसे पूरी ईमानदारी और पूरी तत्परता से निवाहते भर रहना अपने लिए पर्याप्त है। परिणाम क्या होते हैं, क्या नहीं—यह परिस्थितियों पर निर्भर है। अस्तु, सफलता-असफलता की चिंता न करते हुए हमें आदर्शवादी कर्त्तव्यपरायणता अपनाए रहने मात्र में पूरा-पूरा संतोष अनुभव करना चाहिए।

सोते समय ईश्वर की अमानतें ईश्वर को सौंपने और स्वयं खाली हाथ प्रसन्नचित्त विदा होने की— निद्रादेवी की गोद में जाने की बात सोचनी चाहिए। हलके मन से शांतिपूर्वक गहरी नींद में सो जाना चाहिए। चिंता, आशंका, खीज, क्रोध जैसी किसी भी उद्विग्नता को मन पर लादकर नहीं सोना चाहिए। यह प्रयास शांत निद्रा लाने की दृष्टि से भी उपयोगी है। साथ ही आत्परिष्कार की दृष्टि से भी अतमहत्त्वपूर्ण है।

मृत्यु को भूलने से ही जीवन-संपदा को निरर्थक कामों में गँवाते रहने की चूक होती है; दुष्कर्म बन पड़ते हैं और वासना-तृष्णा-अहंता की क्षुद्रताओं में समय गुजरता है। यदि यह ध्यान बना रहेगा कि मृत्यु का निमंत्रण कभी भी सामने आ सकता है तो यह ध्यान बना रहेगा कि इस महान अवसर का सही उपयोग किया जाए और पूरा लाभ उठाया जाए। निद्रा की तुलना मृत्यु से करते रहने पर मौत का भय मन से निकल जाता है और अलभ्य अवसर के सदुपयोग की बात चित्त पर छाई रहती है।

प्रातः उठते समय नए दिन की मान्यता, जीवनोद्देश्य की स्पष्टता तथा सुव्यवस्थित दिनचर्या बनाने का कार्य संपन्न करना चाहिए। रात्रि को सोते समय मृत्यु का चिंतन, आत्मनिरीक्षण, पश्चात्ताप और कल के लिए सतर्कता—वैरागी एवं संन्यासी जैसी मालिकी त्यागने की हलकी-फुलकी मनःस्थिति लेकर शयन किया जाए। दिन भर हर घड़ी चुस्ती-फुरती, मुस्तैदी और दिलचस्पी के साथ प्रस्तुत कार्यों को निपटाया जाए। भीतर दुर्भावनाओं और बाहरी दुष्प्रवृत्तियों के उभरने का अवसर आते ही उनसे जूझ पड़ा जाए और निरस्त करके ही दम लिया जाए। यह है वह जीवन-साधना, जिसमें चौबीसों घंटे निमग्न रहकर और इसी जीवन में स्वर्ग जैसे उल्लास आनंद और मुक्ति जैसे आनंद का हर घड़ी अनुभव करते रहा जा सकता है।


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