योग साधना से चरम लक्ष्य की प्राप्ति

January 1976

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आत्मिक प्रगति के दो साधनों में एक योग और दूसरा तप है। इन दोनों को साथ−साथ आहार के अन्न, जल की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। इनमें से पिछले लेख में योग−साधना में चित्त−वृत्तियों के निरोध और उन्हें आत्मा एवं परमात्मा के बीच सघनता के बंधन में बाँधने के लिए प्रयुक्त किये जाने की चर्चा की गई है अब उसी प्रसंग में यह जानना होगा कि यह आत्मा और परमात्मा आखिर है क्या? और उनकी सघनता एवं एकता, किसलिए आवश्यक है और किस प्रकार सम्भव है?

परमात्मा को निखिल ब्रह्माण्ड−व्यापी चेतना कहा जा सकता है। चेतना की शक्ति असीम है। उन शक्तियों में प्रमुख है इच्छा। इच्छा से चिन्तन, चिन्तन से कर्म और कर्म से पदार्थ उत्पन्न होता है। इस तथ्य को जीवन के हर क्षेत्र में नित्य ही प्रयुक्त होते देखा जा सकता है। धन का लाभ सोचकर उसे कमाने की आकाँक्षा उठती है मस्तिष्क उसके लिए व्यवसाय ढूँढ़ता है, शरीर उसके लिए श्रम करता है, फलतः विभिन्न पदार्थों का उत्पादन एवं विनिमय आरम्भ हो जाता है। इसी तथ्य ने सृष्टि के आदि में ब्राह्मी चेतना में हलचल उत्पन्न की। इसे एक से बहुत बनकर क्रीड़ा−कल्लोल करने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसी से सत्चित्, आनन्द की, सत्य शिव सुन्दर की, ब्रह्मा, विष्णु महेश की, सत रज तम की, त्रिविध चिन्तन धाराएँ उभरने लगीं। शाँत वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न हुआ, चिन्तन हलचलों में बदला, कर्म का गठन हुआ और उस सूक्ष्म कर्म ने स्थूल पदार्थ का रूप धारण कर लिया।

स्थूल जगत की सबसे छोटी इकाई परमाणु है। उसके भीतर भी छोटे−छोटे इलेक्ट्रान घटक हैं। वे घटक गतिशील हैं। नदी प्रवाह में जिस तरह भ्रमर पड़ते हैं। शक्ति प्रवाह के यह भ्रमर—विद्युतीय अन्धड़ के यह चक्रवात हैं। वे अपनी मूल सत्ता, ब्रह्माण्डीय स्थिति अथवा सौर−मण्डलीय प्रक्रिया के अनुरूप गतिशील रहते हैं। यह गति ही उनका स्वरूप निर्धारण करती है और सघन होते−होते वे तत्वों के रूप में विकसित हो जाते हैं। इन्हीं के समूह, यौगिकों और रासायनिक पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उन्हीं के उत्पादन, विकास एवं परिवर्तन से प्रकृति की सूक्ष्म गतिविधियाँ तथा स्थूल हलचलें होती रहती हैं। प्रकृति प्रक्रिया इसी का नाम है। इसका अस्तित्व ब्रह्म चेतना की इच्छा शक्ति से प्रकाश में आया। परमाणु सत्ता से दृश्य जगत आरम्भ होता है, पर उससे पूर्व की स्थिति में वह विशुद्ध रूप से विद्युतीय आवेश भर होता है। इस आवेश को ब्रह्म और प्रकृति का संयुक्त अन्तराल कह सकते हैं।

विज्ञानवेत्ता अपने आरम्भिक प्रयोगों में इस विद्युतीय आवेश को अचेतन मानते थे। इसलिए उन्होंने जड़वाद की भौतिकी को ही सृष्टि का मूल आधार माना। पर वह मान्यता एक शताब्दी पूर्व की है। इस बीच बात बहुत आगे बढ़ गई। आज का आधुनिकतम विज्ञान यह सोचने को विवश हो गया है कि सृष्टि प्रवाह अनैच्छिक नहीं है। इसमें सन्तुलन की विचित्र चतुरता भरी पड़ी है। सन्तुलनवाद, इकोलॉजी—के सूक्ष्मदर्शी इसी निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि सृष्टि की जड़ और चेतन दोनों धाराएँ एक दूरदर्शी योजना का परिणाम हैं। प्रकृति के अंतराल में जो चित्र−विचित्र हलचलें चलती हैं वे न तो निरुद्देश्य हैं और न निरर्थक, अनगढ़। वरन् इनके पीछे वे चतुरतापूर्ण परिवेश काम कर रहे हैं जिनके बिना इस सुन्दर संसार का न तो कुछ स्वरूप ही बन सकता था और न उसमें कुछ क्रम ही रह सकता था।

प्रकृति को जड़ इस मानी में समझा जा सकता है कि उसके घटक हलचल निरत हैं, सम्वेदना प्रकट नहीं करते। चेतन इस अर्थ में कह सकते हैं कि उन हलचलों की पीछे अत्यंत दूरदर्शिता और अतीव बुद्धिमत्ता पूर्ण प्रेरणा काम कर रही है। बात को और भी स्पष्ट करने के लिए यों कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक यन्त्रों और प्रयोगशालाओं की पकड़ में आने वाली प्रकृति जड़ है और तत्वदर्शन की सूक्ष्म बुद्धि से समझी जाने वाली प्रकृति की मूल प्रेरणा−चेतन है। इन्हें उपनिषद्कारों ने परा ओर अपरा प्रकृति के नाम से पहले ही दो भागों में बाँट दिया है ताकि सूक्ष्मदर्शी और प्रत्यक्षवादी अपने−अपने क्षेत्र में सन्तुष्ट रह सकें और अधिक समझदारी बढ़ चलने पर दोनों का समन्वय कर सकें।

आत्मा और परमात्मा का संबंध बताने के लिए प्रकृति की चर्चा अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गई क्योंकि इसके बिना दोनों की पृथकता को समझाया जा सकना कठिन है और उनकी एकता के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों की आवश्यकता को गले उतारना कठिन है।

जीवात्मा ईश्वर का अंश है। समुद्र की लहरों और सूर्य की किरणों से उसकी तुलना की गई है। इस भिन्नता को घटाकाश और मठाकाश के रूप में भी समझाया जाता है। घटाकाश अर्थात् घड़े की भीतर की सीमित पोल और मठाकाश अर्थात् विशाल विश्व में फैली हुई पोल। घड़े के भीतर की पोल वस्तुतः ब्रह्माण्ड−व्यापी पोल का ही एक अंश है। घड़े की परिधि से आवृत्त हो जाने के कारण उसकी स्वतंत्र सत्ता दिखाई पड़ती है, पर तात्विक दृष्टि से वह कुछ है नहीं। घड़े के आवरण ने ही यह पृथक रूप से देखने और सोचने का झंझट खड़ा कर दिया है। शाँत समुद्र में लहरें नहीं उठतीं, पर विक्षुब्धता की स्थिति में वे अलग−सी लगती हैं और उछलती दिखाई पड़ती हैं। सूर्य के तेजस की विस्तृत परिधि ही उसके किरण विस्तार की सीमा है। सूर्य सत्ता का जहाँ तक जिस स्तर का विस्तार है वहाँ तक उसी स्तर की धूप का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। इस प्रभा विस्तार की जो विभिन्न प्रकार की हलचलें हैं उन्हीं को किरणें कहते हैं। किरणों का सात रंगों में अथवा अल्ट्रावायलेट, अल्फावायलेट एक्स−लेसर आदि में अलग से जाना माना जा सकता है, पर यह विभाजन सूर्य से भिन्न किसी पृथक सत्ता का मान नहीं करता। ऐसे ही उदाहरणों से जीवन और ईश्वर की एकता भिन्नता समझी जा सकती है।

पानी में से असंख्य बुलबुले उठते, तैरते और फिर उसी में समा जाते हैं। विश्व−व्यापी अग्नि तत्व तीली या लकड़ी में प्रकट और प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। आग बुझ जाने से वह उसी मूल सत्ता में लय हो जाता है। इन उदाहरणों में भी जीव और ईश्वर की पृथकता एवं एकता का अनुमान लगाया जा सकता है। एक बड़ा ढेला फूटकर रज−कण के रूप में बिखर जाता है। पानी ऊपर से गिरने पर जमीन से टक्कर खाता है और उसकी बूँदें अलग से छितराती हुई दीखती हैं। जीव और ईश्वर की पृथकता के संबंध में ऐसे ही उदाहरणों से वस्तुस्थिति समझी जा सकती है। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्म ने ‘एकोऽहम् बहुस्याम’ की इच्छा की और उसने अपने आपको टुकड़ों में बखेर दिया यह बिखराव प्रकृति के साथ संयुक्त हुआ और इसके साथ घुलकर अहंता का आवरण अपने ऊपर लपेट बैठा। सूखी मिट्टी पर जब पानी पड़ता है तो वह गीली हो जाती है और उस पर काई तथा दूसरी वनस्पति जमने लगती हैं। आत्मा के अंत प्रकृति के साथ मिलकर आधे तीतर, आधे बटेर बन जाते हैं। कच्ची धातुएँ खदान से मिट्टी मिली स्थिति में निकलती हैं, पीछे उन्हें भट्टी में डालकर शुद्ध किया जाता है। जीव को मिट्टी मिला लोहा कहा जा सकता है। जिसमें प्रकृति और पुरुष दोनों का समन्वय है।

जीव की मूल सत्ता ईश्वरीय है। चेतना का समुद्र इस विश्व में एक ही है। उससे भिन्न या प्रतिपक्षी दूसरी कोई सत्ता देवी−देवताओं के या जीवों के रूप में कहीं नहीं है। तत्ववेत्ताओं ने जाना है—‘‘यहाँ केवल एक है दूसरा नहीं।’’ जीव की पृथकता प्रकृति के समन्वय से है। प्रकृति के तीन स्तर सत, रज, तम कहलाते हैं। इन्हीं तीनों की तीन परतें जीव के ऊपर चढ़ जाती हैं और वे तीन शरीर कहलाती हैं। स्थूल शरीर अर्थात् हाड़−माँस की जन्मने−मरने वाली काया। सूक्ष्म शरीर अर्थात् बुद्धि संस्थान, सुख−दुःख, प्रिय−अप्रिय, अपने−विराने का अन्तर करने वाला मस्तिष्कीय विचार विस्तार। कारण शरीर अर्थात् मान्यताओं एवं भावनाओं का समुच्चय—अन्तरात्मा। जिसे अन्तःकरण भी कहा गया है। इन तीन शरीरों की यों प्याज के छिलके—केले के तने या एक के ऊपर एक पहने हुए वस्त्रों से तुलना की जाती है, पर यह उपमा बहुत ही अधूरी है। कारण कि वह सब आवरण एक−दूसरे से पृथक हैं जबकि शरीर एक−दूसरे के साथ इस प्रकार घुले हुए हैं जैसे दूध में घी, सरसों में तेल। प्रयत्नपूर्वक इन्हें पृथक किया जा सकता है। मृत्यु के उपराँत स्थूल और सूक्ष्म शरीर का संबंध टूट जाता है। क्लोरोफार्म सुंघा देने या गहरी नींद आ जाने पर सूक्ष्म शरीर का चेतन भाग मूर्च्छित हो जाता है, अचेतन भर जागता रहता है। समाधि अवस्था में सूक्ष्म शरीर को कारण से अलग किया जा सकता है। मुक्ति अवस्था में कारण शरीर का आवरण भी छूट जाता है और बूँद समुद्र में समा जाने की तरह आत्मा का लय परमात्मा में हो जाता है। इस प्रकार यह तीनों ही आवरण हटाये तथा मिटाये जा सकते हैं, पर सामान्य स्थिति में वे परस्पर घुले−मिले ही रहते हैं।

जीव को इन आवरणों में लिपटे रहने से कई तरह के—कई स्तर के सुख मिलते हैं; इसलिए वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहता फलतः ‘बद्ध’ अवस्था में बना रहता है। स्थूल शरीर में कई प्रकार के वासनात्मक सुख हैं। सूक्ष्म शरीर में कल्पना लोक के मनोरम स्वप्न, विनोद, मनोरंजन, सफलता, पद, सम्मान, वैभव आदि के बुद्धि−विलास के अनेकों साधन मौजूद हैं। कारण शरीर में ‘अहंता’ की गहरी परतें जमी हैं। ‘मैं’ अत्यन्त प्रिय है। इस ‘मैं’ की परिधि में जितना क्षेत्र आता है वह मेरा बन जाता है और जिस प्राणी या पदार्थ पर यह ‘मेरापन’ आलोकित होता है वह भी प्रिय लगने लगता है। आकाँक्षाओं की उमंग इसी केन्द्र से उठती है। मान्यताओं की आस्था और सम्वेदनाओं की पुलकन खट्टी−मीठी गुदगुदी तो है, पर वह मिलाकर है—मधु। जीवन में प्रिय−अप्रिय, प्रसंग आते जाते रहते हैं, पर कुल मिलाकर स्थिति ऐसी है जिसके कारण इन तीनों शरीर आवरणों को छोड़ने को मन नहीं करता। फलतः जीव सत्ता का ऐसा सघन अस्तित्व बन जाता है जिसे स्वतंत्र भी कहा जा सकता है।

दर्शन−शास्त्र के सभी पक्षों ने ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों का अस्तित्व तो माना है, पर उनके पारस्परिक संबंधों के बारे में अपने−अपने विचार भिन्न रूप से व्यक्त किये हैं। त्रैत, द्वैत और अद्वैत मान्यताओं में इसी प्रकार का मतभेद है। त्रैतवादी कहते हैं ईश्वर, जीव, प्रकृति की तीनों सत्ताएँ अनादि एवं स्वतंत्र हैं—उनका सह अस्तित्व भर है। द्वैतवादी, ब्रह्म और माया−पुरुष और प्रकृति की दो सत्ताएँ मानते हैं, उनकी दृष्टि में जीव का इन दोनों का समन्वय ऐसा ही है जैसा दिन और रात के मिलन से उत्पन्न हुआ संध्या काल। अद्वैत मत में एक ही ब्रह्म चेतना की सत्ता को जड़ और चेतन के रूप में माना गया है। प्रकृति ब्रह्म का विकार है और यहाँ जो कुछ दीख मास रहा है वह बुद्धि विपर्यय का ऐसा ही जादू है जैसा इन्द्र धनुष का अथवा स्वप्न संसार का दीखना। इस स्थिति को भ्रान्ति अथवा माया कहा गया है।

इन दार्शनिक मतभेदों के रहते हुए भी हम एक समन्वित तथ्य और सर्वमान्य निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं; वह यह कि जीवात्मा को प्रिय−अप्रिय की विक्षुब्ध अव्यवस्था−विवशता से उबरना चाहिए और ऐसी स्थिति में रहना चाहिए जहाँ आदतों की, संस्कारों की पराधीनता उसे अवांछनीय कर्तृत्व, अवांछनीय चिन्तन एवं अवाँछनीय सम्वेदनाओं का कष्ट देने में समर्थ न हो सके। समस्त विपन्नताओं की जड़ यह पराधीनता ही है। जीवन का आनन्द उठाने से इसी विवशता के कारण वंचित रहना पड़ता है। यही बन्धन मनुष्य को उच्चस्तर तक पहुँचा कर देवोपम आनन्द, उल्लास उपलब्ध करने के मार्ग में एकमात्र व्यवधान बने रहते हैं। इस स्थिति को बदल सकना यही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है—इसी को ‘मुक्ति’ कहा गया है। मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य माना गया है।

मुक्ति का अर्थ है—स्वाधीनता। पराधीनता के बंधनों को काट देना ही स्वाधीनता है। यह पराधीनता—मात्र चिर−संचित संस्कारों की है जो स्वभाव बनकर हमारे चिन्तन एवं कर्म को अपने ढर्रे पर चलाती है—अपनी लाठी से हाँकती है। शरीर को यह पराधीनता, वासना के बंधन में बाँधकर बेतरह घसीटती है, उसका स्वास्थ्य चौपट करती है, दीर्घजीवन से वंचित करती है और सत्कर्म निरत रहकर समृद्धियाँ, सफलताएँ प्राप्त करने के स्थान पर ऐसा कुछ करते रहने में लगता है जिसके कारण रुग्णता, निन्दा, असफलता, दरिद्रता, कुरूपता जैसी विपन्नताएँ ही आये दिन सामने खड़ी रहती हैं। विवेक कई बार सोचता है कि अपनी गतिविधियों में अमुक प्रकार का परिवर्तन करना चाहिए। किन्तु औचित्य समझते हुए भी वैसा कुछ बन नहीं पड़ता। आदतें इतनी जबरदस्त सिद्ध होती हैं कि उपयोगी सुधार के मनसूबे एक कोने में रखे रह जाते हैं और आदतें अपनी बेढंगी राह पर शरीर को घसीटती चली जाती हैं और वे काम कराती हैं जिनके लिए पीछे पश्चाताप ही करना शेष रह जाता है। यदि आदतें शरीर का संचालन न करें, विवेक के हाथ से नियन्त्रण, संचालन किया जाने लगे तो स्वास्थ्य, सौन्दर्य, दीर्घजीवन जैसी उपलब्धियाँ तो अति साधारण हैं। समर्थ काया से अभीष्ट प्रयोजनों में आश्चर्यजनक सफलताएँ देने वाले पराक्रम पुरुषार्थ का अभिनव स्रोत खोल सकता है और उसके फलस्वरूप जो जीवन लाभ मिल सकता है, उसकी कल्पना मात्र से आँखें चमकने लगती हैं। दुर्बल शरीर इन्द्रिय सुख की लिप्सा भर में लगा रहता है साधन उपस्थित होने पर भी वह उनका समुचित आनन्द नहीं ले सकता। भोजन का आनंद कड़ाके की भूख लगने वाले को ही मिल सकता है। रति क्रीड़ा एवं गहरी निद्रा का लाभ शरीर पर नियंत्रण रख सकने वाले ही भोगते हैं। आलस्य, प्रमाद को भगाकर—व्यवस्थित दिनचर्या बनाना और उस पर निष्ठापूर्वक आरुढ़ रहना—सफलताओं का प्रधान आधार माना गया है। शरीर भौतिक पदार्थों से बना है, भौतिक जगत से सीधा संबंध उसी का है। समर्थ शरीर ही भौतिक उपलब्धियों का केन्द्र होता है। शरीर पर विवेक का नियंत्रण जिस मात्रा में होता जाता है उसी अनुपात से भौतिक सफलताओं का पथ-प्रशस्त होता चला जाता है। यह स्थिति शरीर क्षेत्र की मुक्ति कही जा सकती है। इसका प्रतिफल है भौतिक सुख।

सूक्ष्म शरीर के क्षेत्र में हमारा चिन्तन उस ढर्रे में ढला हुआ होता है, जिसकी प्रतिक्रिया ही हमें अर्धविक्षिप्त स्तर का बनाये रहती है। कितने प्रकार की सनकें, कितने वहम, कितने भ्रम मस्तिष्क में लदे होते हैं यदि उन्हें ठीक तरह समझा जाय तो प्रतीत होगा कि विवेकवान व्यक्ति की तुलना में ‘चालू आदमी’ निस्संदेह अधपगला होता है। लोक−प्रवाह का संशोधन करने अवतारी आत्माएँ उतरती हैं उनके चले जाने के बाद फिर विकृतियाँ उभरने लगती हैं और समाजिक प्रचलनों में गन्दे नाले जैसी गन्दगी भरती चली जाती है। जन मान्यताएँ—लोगों के प्रचलित ढर्रे ही अपने को सुहावने लगते हैं। कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ, अन्य विश्वासों के सहारे न जाने कितनी उपहासास्पद भ्राँतियाँ मस्तिष्क में जड़ जमाकर बैठ जाती हैं। लोगों में प्रचलित भ्रष्टाचार अपने को भी ललचा लेता है। विकृत चिन्तन के कारण मनुष्य न सोचने योग्य सोचता है और बाल बुद्धि की योजनाएँ बनाकर उनमें बहुमूल्य विचार शक्ति को नष्ट करता रहता है। चिन्ता, निराशा, खीज, आवेश, उत्तेजना, निष्ठुरता, घबराहट, कायरता, कृपणता, ईर्ष्या, द्वेष, आत्म-हीनता, उद्दण्डता जैसे अनेकों मानसिक रोग मस्तिष्क को घेरे रहते है और सौ रोगों से ग्रसित शरीर की जो दुर्गति होती है वैसा ही वे मनोविकार, विचार संस्थान को, सूक्ष्म शरीर को बनाये रहते हैं। यह मनोगत कुसंस्कारों की, चिन्तन विकृतियों की, पराधीनता है जिसके कारण हर दृष्टि से ‘अद्भुत’ विचारणा सर्वनाश के गर्त में गिरती और नष्ट होती रहती है।

यदि कुसंस्कारों के बन्धनों से मस्तिष्क को छुटकारा मिल सके तो प्रस्तुत चिन्तन तन्त्र का सुव्यवस्थित सदुपयोग करके कोई भी व्यक्ति विद्वान, वैज्ञानिक, कलाकार, दूरदर्शी, मनीषी बन सकता है। विचारणा को सन्मार्गगामी बना सकते वाले व्यक्ति—सामान्य साधनाओं के बल पर—सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए—व्यक्तित्व को परिष्कृत ढाँचे में ढाल सकते हैं और महामानवों की श्रेणी में गिने जा सकने की स्थिति में सरलतापूर्वक जा पहुँचते हैं। ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन तत्त्व का विश्लेषण करने पर विशेषता एक ही दिखाई पड़ती है कि उन्होंने अपने चिन्तन तन्त्र को व्यवस्थित किया, अभ्यस्त विचार-पद्धति का नये सिरे से पर्यवेक्षण किया, अनौचित्य को साहसपूर्वक सुधारा और विवेक का आश्रय लेकर विचारणा को उच्चस्तरीय बनाया। लोक-प्रवाह के विपरीत आदर्शवादी मौलिकता अपनाई, फलस्वरूप उनका चिन्तनात्मक काया-कल्प हो गया। आरम्भ में ऐसे लोगों को मखौल बनता और विरोध होता है, पर जब वे अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं तब दुनिया उनके चरणों में झुक जाती है और सिर आँखों पर बिठाकर भाव भरी श्रद्धाँजलि समर्पित करती है।

परिष्कृत सूक्ष्म शरीर—चिन्तन की उत्कृष्टता के कारण स्वयं हर घड़ी सदा सन्तुष्ट, उल्लसित एवं प्रफुल्लित बना रहता है। अवाँछनीय मानसिक भार से छुटकारा पाने के कारण उसकी सूझ-बूझ, दूरदर्शी तत्त्वदर्शी बन जाती है और उसका लाभ न केवल सम्पर्क क्षेत्र को वरन् समस्त संसार को मिलता है।

मस्तिष्क का कुल मिलाकर प्रायः सात प्रतिशत भाग काम में आता है, शेष 93 प्रतिशत प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। उसे जागृत करना अपने भीतर की असंख्यों अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास कर लेना है। मस्तिष्क की तुलना का चमत्कारी सूक्ष्म यन्त्र इस संसार में और कोई नहीं है, इसे यदि प्रयत्नपूर्वक सक्षम बना लिया जाय तो कालिदास जैसे मन्द बुद्धि भी मूर्धन्य विद्वान बन सकते हैं। चमत्कारी सिद्धियों के नाम से कितने ही विशिष्ट कौशल कई सिद्ध पुरुषों में यदा−कदा देखे जाते हैं यह और कुछ नहीं जादू की पिटारी—मस्तिष्कीय चेतना की फुलझड़ियाँ मात्र हैं। इन्द्रिय शक्ति से—मनःशक्ति से हम परिचित हैं, इसलिए उसके द्वारा दैनिक जीवन में प्रस्तुत होते रहने वाले चमत्कारों को ‘सामान्य’ माना जाता है। अचेतन अविज्ञात है इसलिए उसकी जागृत अतीन्द्रिय शक्ति अद्भुत−अलौकिक रहती है, पर वस्तुतः चमत्कार जैसी कोई चीज इस संसार में है नहीं। जो कुछ है प्रकृति व्यवस्था के पूर्णतया अनुकूल ही है। चमत्कारी सिद्धियाँ भी प्रसुप्त अतीन्द्रिय क्षमता का ऐसा जागरण हैं जो आमतौर से देखा, सुना नहीं जाता। ऐसे तो नये आविष्कार भी कुछ दिन तक चमत्कार ही कहे जाते रहे हैं।

तीसरा कारण चेतना की आस्थाएँ सुधर जाने से मनुष्य महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बन सकता है। यह वह ध्रुव केन्द्र हैं जहाँ आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक पतला सा संबंध सूत्र जुड़ा हुआ है उसे तनिक सा और परिष्कृत कर दिया जाय तो ब्रह्म चेतना का—जीव चेतना विशिष्ट संबंध स्थापित कर सकता है और ऐसे आदान−प्रदान का पथ−प्रशस्त कर सकता है जिसके आधार पर नर में नारायण का अवतरण प्रत्यक्ष देखा जा सके। ऐसी स्थिति में पहुँची हुई आत्माओं की देव संज्ञा होती है देवताओं की अलौकिकता कथा पुराणों में भरी पड़ी है। उन्हें इन देव पुरुषों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वे उसका प्रदर्शन करके ईश्वरीय विधि−व्यवस्था में अकारण विक्षेप उत्पन्न नहीं करते।

अध्यात्म विज्ञान की पृष्ठभूमि को संक्षेप में इतना कुछ समझ लेने के उपराँत तत्व ज्ञान के एक जिज्ञासु को इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य को मिली हुई तीन शरीरों के रूप में तीन विभूतियाँ प्राणि जगत की सबसे बड़ी ईश्वर प्रदत्त उपलब्धियाँ हैं।

दूध और पानी एक रस होने से घुल सकते हैं। लोहा और पानी का घुल सकना कठिन है। हम अपने भौतिकवादी स्तर से ऊँचे उठें और ईश्वरीय चेतना के अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढालें तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो सकता है। वियोग का अन्त योग में होना चाहिए—यही ईश्वर की इच्छा है। बच्चा दिन भर खेलकूद और पढ़ने−लिखने में संलग्न रहे, पर रात को घर लौट आये और एक ही बिस्तर पर सो जाये, ऐसी माता की इच्छा रहती है। परमात्मा भी अपने पुत्र आत्मा से ऐसी ही अपेक्षा करता है। उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिए—अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए हमें जो चेतनात्मक पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी का नाम योग है। योग साधना हमारे लिए सर्वोपरि श्रेय साधन है उसमें अपनी प्रवृत्तियों को तत्परतापूर्वक लगाया जा सके उसी में कल्याण है।


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