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January 1976

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ध्यानेन सदृशं नास्ति शोधनं पापकर्मणाम्।

अग्नि पुराण-21

ध्यान के बराबर आत्म शोधन का और कोई उपाय नहीं है।

हम अपने भूलोक के बारे में ही कुछ जानते हैं। अपने लोक की मोटी उपलब्धियों पर हमारी जीवनचर्या निर्भर है। भोजन, वस्त्र, निवास, विश्राम, उपार्जन, उपभोग, विनोद, सुरक्षा, चिकित्सा, यातायात जैसी दैनिक आवश्यकताएँ इन्हीं सामान्य उपलब्धियों के आधार पर मिलती हैं। उन्हीं के सहारे जीवन धारण किये रहना संभव होता है। इससे आगे की गहराई में वैज्ञानिक, विद्वान कलाकार, तत्त्वदर्शी उतरते हैं और वे अन्यान्य उच्चस्तरीय विभूतियाँ प्राप्त करके अपने व्यक्तित्व और क्षेत्र को चमत्कृत करते हैं।

इससे आगे के लोक और भी हैं। अध्यात्म क्षेत्र में उनके नाम भू, भुवः, स्वः, तपः, महः, जनः, सत्यम् कहे गये हैं। यह आकाश का विभाजन या किन्हीं ग्रह नक्षत्रों का वर्णन नहीं- लोकों का विवरण है। लोक का अर्थ है- चेतना के स्तर। काम काजी श्रमिक और सूक्ष्म दर्शी वैज्ञानिक की चेतना का अन्तर और प्रतिफल हम रोज ही देखते हैं। इससे आगे की गहराई में उतर कर- ऊँचाई में उड़कर यदि अन्य चेतना लोकों में प्रवेश किया जा कसे तो प्रतीत होगा कि जो प्रत्यक्ष में स्थूल भू लोक में देखा पाया जाता है, इससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय भूमिका में विद्यमान अन्य लोकों में भरा पड़ा है। उन्हीं के साथ संपर्क बनाने में बरती गई तत्परता को योग साधना एवं तपश्चर्या कहा जाता है।

इन्हीं दिव्य उपलब्धियों के लिए साधना क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ता है। साधना कोई जादू चमत्कार नहीं वरन् विशुद्ध विज्ञान है। इसमें देवी-देवताओं को प्रसन्न करके अमुक वरदान पाने की बात सोची और कही जाती है इस बालबोध में भी कुछ हर्ज नहीं, पर तथ्य दूसरा ही है। मानवी सत्ता के कण-कण में जो भरा है वह दिव्य है- अद्भुत है और अनन्त है। उसी को प्राप्त करने के लिए आकांक्षा, साहसिकता, सक्रियता और तत्परता को जुटा देना साधना है। साधना यदि सही दिशा में इसी प्रक्रिया को अपनाते हुए की जा सके तो उसकी सिद्धि सुनिश्चित है।


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