देव पूजन से पूर्व आत्म−शुद्धि

January 1976

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देवालयों, तीर्थों एवं निजी पूजा ग्रहों में स्थापित देव प्रतिमा के आधार पर की गई पूजा, आराधना सर्वसुलभ एवं सामान्य मनोभूमि के लिए सर्वथा उपयुक्त है। यदि उसके पीछे जुड़ गई, भ्रान्तियों और अवाँछनीयताओं को हटा दिया जाय तो इस माध्यम को व्यक्ति एवं समाज के भावनात्मक एवं नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने में बहुत ही सहायक सिद्ध पाया जायगा।

अमुक स्थान की प्रतिमा में अमुक प्रकार के चमत्कार हैं। जैसी मान्यताओं के पीछे यह बुद्धि काम करती है कि उस स्थान पर प्रतिष्ठित देवता अन्य देवताओं से भिन्न अस्तित्व का अथवा भिन्न सामर्थ्य का है। यह सोचना भ्रमपूर्ण है। सर्वत्र एक ही सत्ता संव्याप्त है। अलग−अलग स्थानों पर स्थापना में से विखण्डित नहीं किया जा सकता है। चमत्कार प्रतिमाओं में, विधि−विधानों में अथवा मंत्रों में नहीं होते। वह सब तो श्रद्धा की गहराई का प्रतिफल मात्र है। अनेक देववाद ने जन−मानस में बिखराव एवं विरोधाभास उत्पन्न कर दिया है और उस आधार पर परस्पर विरोधी अनेक सम्प्रदाय खड़े हो गये हैं। इसी प्रकार देवता अमुक प्रकार के उपहार या स्तवनों द्वारा प्रसन्न होते हैं यह मान्यता भी भ्रमपूर्ण है। इस भ्रान्ति की आड़ में पुजारियों ने भावुक लोगों से देवताओं के नाम पर लूट−खसोट का जाल फैलाया और अपना घर भरा है, तरह−तरह की भौतिक मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए अमुक प्रकार के प्रलोभन देकर देवताओं से अनुग्रह, वरदान प्राप्त किये जा सकते हैं, यह मान्यताएँ भी भ्रमपूर्ण हैं। ऐसी ही कई अवाँछनीयताएँ जुड़ जाने के कारण कई सुधारकों को मूर्तिपूजा का खण्डन करना पड़ा है। वस्तुतः उसमें खण्डन जैसी कोई बात है नहीं।

पुस्तक एक मूर्ति है। उसमें छपी हुई आड़ी−टेढ़ी लकीरों के रूप में अक्षर होते हैं। देखने में यह पुस्तक प्रतिमा सर्वथा जड़ है, उसमें चेतन नहीं खोजा जा सकता, पर उस पुस्तक के सहारे हमारे मनः क्षेत्र में मनीषियों द्वारा प्रतिपादित अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार उत्पन्न होते और पनपते हैं। इस मानी में वह चेतन भी है। गीता की पुस्तक जड़ है, उसे झींगुर कीड़े, चूहे आसानी से काट सकते हैं। पर इतने भर से उस ज्ञान−प्रतिमा का मूल्य किसी भी प्रकार घट नहीं जाता। भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ दिव्य संवाद उसके पृष्ठों पर पढ़ा जा सकता है और वैसा ही लाभ लिया जा सकता है जैसा कि उस अवसर पर स्वयं उपस्थित रह सकने पर हो सकता था। पत्र व्यवहार में कितना महत्वपूर्ण आदान−प्रदान होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। महत्वपूर्ण इकरारनामे और दस्तावेज जड़ कागज होता है, पर उनके आधार पर कितने बड़े फैसले होते हैं, इसे कौन नहीं जानता। चूँकि कागज पानी में गल सकता है इसलिए इस पर लिखे आलेखों का कोई महत्व नहीं, ऐसा सोचना उपहासास्पद है। हम अपने पूर्वजों, गुरुजनों अथवा मान्य प्रतीकों के प्रति असीम सम्मान रखते हैं और उनकी अवज्ञा पर दुःख मानते एवं रोष प्रकट करते हैं। भगवान जड़ तो नहीं है, पर वह जड़ पदार्थों में समाया हुआ न हो ऐसी भी कोई बात नहीं है। जब जड़ चेतन सभी में उसकी सत्ता विद्यमान है। तो प्रतिमा में उसकी उपस्थिति न होने की बात भी क्यों सोची जाय?

मानसिक ध्यान की सफलता के लिए मस्तिष्कीय विकास सामान्य स्तर की अपेक्षा से कुछ अधिक ऊँचा होना चाहिए। यदि उसे अध्ययन, चिन्तन, मनन आदि के द्वारा गहरा गोता मारने, कोमल संवेदनाओं को उभारने—किसी बात पर देर तक गम्भीर चिन्तन कर सकने योग्य विकसित न किया गया होगा तो समुचित ध्यान कर सकना सम्भव ही न हो सकेगा। अविकसित मानसिक स्तर के लोग इन्द्रिय सम्वेदना भर अनुभव करते हैं, वे कान या आँख की सहायता से देख या सुनकर कुछ सोच−समझ सकते हैं। कवियों, वैज्ञानिकों एवं दृष्टाओं जैसा सूक्ष्म चिन्तन उनके लिए सम्भव नहीं होता। अस्तु उन्हें उनकी स्थिति के अनुरूप दृश्य प्रतिमाओं के आधार पर परमात्मा की समीपता का उपासना उद्देश्य पूरा कराना होता है।

हर व्यक्ति नये क्षेत्र में प्रवेश करते समय बालक ही होता है चाहे वह अन्य विषयों में कितना ही सुयोग्य क्यों न हो? कोई अच्छा वकील अपने विषय का विशेषज्ञ हो सकता है, पर उसे नया शिल्प सीखते− समय बाल कक्षा के छात्र की तरह ही आरम्भ करना होगा। उपासना जिनका विषय नहीं रहा है वे अन्य विषयों के विद्वान होते हुए भी इस क्षेत्र में नौसिखियों की तरह ही प्रवेश करते हैं। अस्तु इन्हें ध्यान−प्रक्रिया का अभ्यास करने के लिए प्रतीक पूजा का आश्रय लेना सुविधाजनक ही रहता है। छतों पर सीमेंट, मिट्टी, लोहे का स्लैब ढालने के लिए उसके नीचे ‘सहारे’ खड़े करने होते हैं। छत कड़ी हो जाने पर ‘सहारे’ निकाल दिये जाते हैं और फिर वह अपने आप खड़ी रहती है, इतना ही नहीं अपने ऊपर वजन भी उठा लेती है। किन्तु आरम्भ में जबकि वह ढलाई गीली थी तो बिना सहारे के काम नहीं चल सकता था। प्रतीक पूजा की आरम्भिक अवस्था में आवश्यकता पड़ती ही है। निराकारवादी व्यक्ति रूप में न सही अन्य किसी प्रतीक को माध्यम बनाकर अपना काम चलाते हैं। नमाज पढ़ते समय काबा की तरफ मुँह किया जाता है। काबा अर्थात् ईश्वरीय शक्ति का विशेष प्रतिनिधित्व करने वाली इमारत है। दूसरे लोग सूर्य आदि के प्रकाश ज्योति को आधार बनाते हैं। कुण्डलिनी जागरण, चक्र वेधन आदि योगाभ्यासों में भी अमुक स्थानों को दिव्य शक्ति का केन्द्र मानकर वहाँ अपनी इच्छा शक्ति नियोजित करनी पड़ती है। यह भी ध्यान के ही रूप हैं और इनमें आकृति का सहारा लेना होता है। उपासना सन्दर्भ में जो विवाद चलता है, उसे साकार निराकार का रूप न देकर प्रतीक को व्यक्त आकृति का मानने न मानने की उलझन कहना ठीक है। पूर्ण निराकार का ध्यान तो नादयोग तथा दूसरी सम्वेदनाओं में भी नहीं हो सकता। शंख, घड़ियाल, बादल आदि की ध्वनियाँ सुनने का अभ्यास करते समय स्वभावतः उनके स्रोत की छवि मस्तिष्क में घूम जाती है। शंखनाद तो सुना जाय, पर शंख की आकृति ध्यान में आवे ही नहीं यह असम्भव है। गंध साधना में गुलाब पुष्प की सुगंध पर ध्यान एकाग्र करते हुए भी यह प्रश्न उपस्थिति होगा और उस सुगन्ध को पुष्प की आकृति से सर्वथा बचाते हुए ध्यान में लाया जा सकना सम्भव न होगा। इस विवाद को पूर्वाग्रहों से नहीं उपयोगिता की दृष्टि से ही हल किया जाना उचित है।

संसार में कई सम्प्रदाय साकारवादी और कई निराकारवादी है। अपना विचार व्यापक क्षेत्र में प्रयोग हो सकने वाली ऐसी साधन पद्धति का विकास करने का है जो आगे चलकर सार्वभौम, सर्वजनीन बन सके। इसलिए ध्यान प्रतीक में इन दोनों ही पक्षों का समन्वय करने की बात ध्यान में रखी गई है। निराकारवादी अन्तर्मुखी होकर ‘दिव्य−ज्योति’ के रूप में परमात्मसत्ता का दर्शन करते हैं। आमतौर से यह छोटा−बड़ा प्रकाश बिन्दु ही होता है। इसे सूर्य का प्रतीक मानते हैं। वस्तुतः यह ‘ज्ञान ज्योति’ है। मात्र चमक या गर्मी नहीं। अध्यात्म साधना में अग्निपिंड सूर्य की प्रतिमा भर माना गया है, उनकी मूल सत्ता ‘दिव्य ज्ञान’ कही गई है। निराकार ‘प्रज्ञा’ तत्व का साकार रूप ‘सविता’ है। सविता अर्थात् सद्ज्ञान को अन्तःकरण में आलोकित करने वाला प्रकाशवान परब्रह्म। ध्यान करते समय सूर्य पर एकाग्रता तो करनी चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह ‘दिव्य आलोक’ का सद्ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतीक मात्र है। मात्र जड़ पिंड नहीं।

सूर्य पर ध्यान करते हुए यह अनुभूति विकसित की जाती है कि वह आलोक साधक के शरीर, मन और अन्तरात्मा में—स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में सक्रियता, सद्ज्ञान एवं सद्भाव बनकर प्रकाशवान हो रहा है। इन दोनों क्षेत्रों को आलोकित हुआ मानते हुए उत्तेजित, विकसित, परिष्कृत हुआ भी अनुभव किया जाता है। इस प्रकार सूर्य को न केवल आलोक दर्शन की दिव्य प्रक्रिया मात्र मानकर बात समाप्त कर दी जाती है, वरन् उसकी आभा से आत्म−सत्ता को पूरी तरह प्रकाशित एवं प्रभावित भी देखा जाता है। वस्तुतः यह ध्यान अपनी वर्तमान स्थिति को भविष्य में अधिक समुन्नत स्थिति में देखने की आस्था भर है। यह जितनी ही गहरी होगी, इसी अनुपात से साधन को लाभ मिलता चला जायगा।

साकार उपासना में नर और नारी की दोनों ही आकृतियों में परब्रह्म की प्रतिमा बनाई जाती रही है। दोनों में पवित्रता, कोमलता, उदारता, सेवा, समर्पण स्नेह, वात्सल्य जैसी दिव्य भावनाओं के आधार पर देखना हो तो नारी की गरिमा अधिक बैठती है। नारी दानी है और नर उपकृत। ईश्वर की प्रतिमा को किस रूप में माना जाय? इस दृष्टि से विवेक का सहज झुकाव नारी के पक्ष में जाता है। पुरुष की अपनी विशेषताएँ है—उनमें पुरुषार्थ, पराक्रम की प्रधानता है। यह गुण भौतिक सफलताओं में अधिक और आत्मिक प्रगति में कम काम आता है। अधिक अच्छा यही लगता है कि परब्रह्म को नारी रूप में—मातृ सत्ता का प्रतीक मानकर चला जाय।

नर ओर नारी की तुलना करना अपेक्षित नहीं, पर वरिष्ठता की दृष्टि से मातृ शक्ति को ही सदा से प्रथम स्थान मिला है। भगवान की वन्दना करते हुए ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ जैसी उक्तियों में उन्हें प्रथम माता और पीछे पिता कहा गया है। बालक का प्रथम परिचय माता से ही होता है। उसी की उदारता का लाभ लेकर बच्चे का शरीर जीवन धारण करता और विकसित होता है, अस्तु उसके प्रति प्रथम श्रद्धा सुमन चढ़ाना उचित ही है। आत्मिक प्रगति के लिए यदि आकृति आवश्यक ही है तो उसे माता के रूप में मान्यता देकर क्यों न उन सब विभूतियों को आत्मिक क्षेत्र में भी उपलब्ध किया जाय तो स्थूल जीवन में जन्मदात्री जननी से मिलती है। नर का वर्चस्व बहुत समय से हर क्षेत्र पर छाया रहा है, इसलिए कई व्यक्ति भगवान को भी नर रूप का ही आग्रह करते हैं और नारी को उपास्य समझने में हेठी अनुभव करते हैं। यह पूर्वाग्रहों का प्रभाव हो सकता है, विवेक का पलड़ा नारी के पक्ष में सहज ही झुक जाता है।

गायत्री माता के रूप में परब्रह्म की स्थापना सर्वोपयोगी है। उसके सान्निध्य में माता की गोदी में खेलने वाले बालक को मिलने वाले वात्सल्य एवं पय−पान जैसे सूक्ष्म स्थूल लाभों की अनुभूति होती है। नारी के प्रति अचिन्त्य चिन्तन का जो प्रवाह इन दिनों चल पड़ा है उसे रोकने और भाव भरी दिव्य श्रद्धा की, प्रतिभा उसे मानने की जन चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से भी यह स्थापना अतीव उपयोगी है। मानवता की, सद्बुद्धि की, सत्प्रवृत्तियों की प्रतिमा भी उसे माना जा सकता है।

गायत्री माता का वाहन हंस माना गया है। हंस अर्थात् स्वच्छ धवल कलेवर, नीर−क्षीर विवेक का प्रति−निधि−मोती चुगने या लंघन करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ। यह गुण पक्षी हंस में नहीं होते−यह परिभाषा आध्यात्मिक हंस की है। संकेत यह है कि परमात्मा की दिव्य शक्ति को धारण करने के लिए साधक को अपनी उत्कृष्टता हंस स्तर की विकसित करनी चाहिए। उसे क्रियात्मक स्थूल जीवन में धर्म परायण, विचारात्मक, सूक्ष्म जीवन में विवेकवान और आस्थापरक अन्तः प्रवेश में—सद्भाव सम्पन्न होना चाहिए। व्यक्तित्व के इस समग्र परिष्कार के साथ ही ईश्वरीय दिव्य शक्ति के अवतरण की सम्भावना जुड़ी हुई है।

गायत्री माता के एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में जल कमण्डल होने के पीछे भी सद्ज्ञान और शान्तिदायक सत्कार्यों की धारणा का संकेत है।

निराकार के प्रतीक सूर्य और साकार की प्रतीक मातृ सत्ता का समन्वित ध्यान सम्भव है। ‘सूर्य मंडल मध्यस्थ’ मानने की परम्परा अति प्राचीन है। सविता देवता का प्रतीक यह महामंत्र है। गायत्री का देवता सविता है। ध्यान के लिए सदा गायत्री को सूर्य समेत ही अपनाया जाता है। चेहरे पर तेजोवलय की भावना तो सभी देवताओं के साथ जुड़ी रहती है। गायत्री को सूर्य के मध्य में प्रतिष्ठापित किया गया है और उसे ‘तेजस्’ तत्व की ब्रह्म वर्चस् की—आत्मा माना गया है। अस्तु गायत्री को इष्टदेव मानकर चलने पर कई प्रकार के प्रचलित ध्यानों में सर्वोत्तम यही रहता है कि उसे सूर्य की आत्मा के—मध्यवर्ती नाभिक सत्ता के रूप में ध्यान किया जाय। ऐसे प्रयोजन के लिए एक चित्र इस अंक के आरम्भ में दिया गया है। इस प्रकाश को गायत्री शक्ति के साथ जुड़ा हुआ समझा जाय, इसलिए चित्र के साथ वे अक्षर भी दिये गये हैं जो महाशक्ति के साथ संयुक्त चिन्तन विस्तार को हृदयंगम करते हैं। ध्यान प्रक्रिया की दृष्टि से यह प्रतीक का पूजन और ध्यान की दोनों ही आवश्यकताएँ पूरी कर सकता है। पूजा की चौकी पर इसकी स्थापना करके पञ्चोपचार कृत्य किये जा सकते हैं। प्रातःकालीन सूर्य को उदयाचल से प्रकट होते हुए और साधक के रोम−रोम में अपनी प्रकाश किरणें प्रवेश करते हुए अनुभव किया जा सकता है। आगे चलकर इसी को भ्रू मध्य भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र में प्रकाशवान भी देखा जा सकता है। आरम्भ में यही सरल पड़ता है कि उदयाचल पर प्रकट होते हुए अरुणाभ सूर्य को, गायत्री परब्रह्म की ध्यान प्रतिमा माना जाय और उसकी प्रकाश किरणें मस्तिष्क की विष्णु ग्रन्थि में, हृदय की ब्रह्म ग्रन्थि में नाभि की रुद्रग्रन्थि में विशेष रूप से प्रवेश करते हुए अनुभव किया जाय। ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क, भाव केन्द्र हृदय और शक्ति केन्द्र नाभि को माना गया है। इन तीनों चेतना केन्द्रों को प्रखर बनाने के लिए दिव्य सूर्य की किरणें असामान्य मात्रा में प्रविष्ट होती हुई अनुभव करनी होती हैं। इस ध्यान धारणा के लिए भी इसी अंक में चित्र छपे हैं।

प्रतीक पूजा की संक्षिप्त किन्तु समग्र और सारभूत विधि पिछले लेख में बताई जा चुकी है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि उपासना के लिए आसन पर बैठने के साथ आत्म शुद्धि का प्रथम कृत्य करना पड़ता है। इसके बाद देव आह्वान तथा देव पूजन की प्रक्रिया आरम्भ करनी चाहिए।

आत्म शुद्धि के छह कृत्य हैं। इनका उद्देश्य अपने में सर्वतोमुखी पवित्रता की भाव मान्यता को सघन बनाना है। हमारे कार्य, विचार और विश्वास तीनों ही आत्मिक प्रगति के मूलभूत आधार हैं। कपड़ा पहले धोया जाता है, फिर रगड़ा जाता है। धुलाई अर्थात् आत्म शुद्धि, रंगाई अर्थात् व्यक्तित्व में ब्रह्म चेतना का अवतरण। मैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता और दुष्ट एवं भ्रष्ट जीवन−क्रम अपनाये रहने वाला ईश्वर की उस विशेष अनुकम्पा का अधिकारी नहीं बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस की उपलब्धि कहते हैं और जिसके साथ देवोपम विशेषताओं के ऋद्धि−सिद्धि भरे भण्डार जुड़े हुए हैं।

राजयोग के पाँच नियम और पाँच संयमों का पालन प्रथम चरण है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के शेष छह चरण पीछे के हैं। नाम जप में भी ‘नामापराध’ से बचने की सतर्कता बरतनी प्रथम शर्त है। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को अपने चरित्र और चिन्तन को उच्चस्तरीय बनाने के लिए प्रथम प्रयास के रूप में तत्परता बरतनी होती है। अन्यथा मात्र कर्मकाण्डों के सरल विधि−विधान अपनाने भर से देवत्व की उपलब्धि जैसे महान प्रयोजन की पूर्ति न हो सकेगी।

“देवता बनकर देव पूजन करना चाहिए” इस शास्त्र निर्देश का प्रयोजन यह है कि उपासना काल में अपने आपे को पवित्रता से ओत-प्रोत अनुभव करना चाहिए। सम्मिलन सजातीयों का ही होता है। पानी में घुलनशील पदार्थ ही घुल सकते हैं। लोहे जैसी भारी धातुओं का पानी में घुलना सम्भव नहीं। ईश्वर का सजातीय अपना व्यक्ति होगा तो उसमें दिव्य अवतरण की अपेक्षा की जा सकती है। अपने में देवत्व की स्थापना करके तब उपासना कृत्य आरम्भ करने की बात इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए कही गई है।

आत्म शुद्धि के लिए शिखाबन्धन, पवित्रीकरण, आचमन, प्राणायाम, न्यास यह पाँच कृत्य करने पड़ते हैं। इसके बाद सर्वप्रथम मातृभूमि का—पृथ्वी पूजन है। अदृश्य भगवान के प्रतीकाह्वान में भी पहले भगवान की साकार प्रतिमा—अपनी धरती का पूजन किया जाता है। विराट् ब्रह्म का प्रत्यक्ष शरीर यह संसार है, इसकी जड़ सम्पदा की सुविकसित और प्राणि सत्ता को सुसंस्कृत बनाने के लिए जो प्रयत्न किए जाते हैं वे सभी पृथ्वी पूजन में—मातृभूमि अर्चन में आ जाते हैं।

उपासना आरम्भ करते हुए आत्म शुद्धि के कृत्य किये जाएं, उस अवधि में अपने भीतर सर्वतोमुखी पवित्रता भरी होने की भावना रखें और उपासना काल समाप्त होने के पश्चात् भी शेष समय में उसी पवित्रता को बनाये रहने वाली गतिविधियाँ अपनाते रहने का ध्यान रखें। इसी प्रकार पृथ्वी पूजन का उपचार पूरा करते समय दिन में एकबार तो यह सोच ही लिया करें कि हमारा कर्तव्य पेट और परिवार तक ही सीमित नहीं वरन् देश, धर्म, समाज एवं पूजन प्रक्रिया पूरी कर लेने के उपरान्त भी शेष समय ऐसी रीति-नीति अपनायें जिसमें सार्वभौम, सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में अपना बढ़ा-चढ़ा योगदान प्रस्तुत होता रहे।


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