तप−साधना अतीव लाभदायक प्रक्रिया

January 1976

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आत्मिक प्रगति का पहला चरण योग और दूसरा तप है। योग भावात्मक और तप क्रिया परक है। एक को सूक्ष्म और दूसरे को स्थूल कह सकते हैं। एक चिन्तन परक—मान्यता प्रधान और दूसरा क्रिया परक—कर्म प्रधान है। मानवी सत्ता भी चेतन आत्मा और जड़ शरीर के समन्वय से बनी है। उन दोनों को ही परिष्कृत करना पड़ता है। भाव शुद्धि की तरह क्रिया शुद्धि भी आवश्यक है। भाव शुद्धि को योग तथा क्रिया शुद्धि को तप कहा जाता है।

मन, चेतन−आत्मा और जड़−शरीर का मध्यवर्ती है। इसे दोनों को सम्मिलित सत्ता कहा जाता है उसे चेतन होते हुए भी ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। इससे स्पष्ट है कि वह चेतन होते हुए भी जड़ की ओर आकर्षित बना रहता है। दोनों क्षेत्रों से संबंधित होने के कारण मन को ही चेतना और काया के परिष्कार की भूमिका निभानी पड़ती है, आखिर गिराने का कारण भी तो वही है।

मन की दो विशेषताएं सर्वविदित हैं—(1) चंचलता (2) सुख लिप्सा। उसे आवारा लड़कों की तरह मटरगश्ती में मजा आता है। बन्दरों की तरह डाली−डाली पर उछलते रहने और चिड़ियों की तरह जहाँ तहाँ फुदकते रहने में उसकी चंचलता को समाधान मिलता है। कल्पना के घोड़े पर सवार होकर वह आकाश−पाताल की सैर करता है। इस भटकाव में उसकी अधिकाँश शक्ति नष्ट हो जाती है। इसे रोककर उपयोगी लक्ष्य पर उसे केन्द्रित करने का प्रयास योगाभ्यास कहलाता है। योग के फलस्वरूप भौतिक जीवन में दरिद्रता का समृद्धि में लय हो जाता है। पिछड़ापन प्रगतिशीलता में परिणत हुआ दीखता है। विभिन्न प्रकार की साँसारिक सफलताएँ मन को लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित करने का ही सत्परिणाम हैं। उसी से प्रबल पुरुषार्थ बन पड़ता है। अभीष्ट साधन जुटते जाते हैं। और अनुकूल परिस्थितियाँ बनती जाती हैं।

आत्मिक क्षेत्र में मन को लगा देने से प्रसुप्त शक्ति संस्थानों के जागरण का वातावरण बनता है और दिव्य क्षमताएँ प्रकाश में आती हैं। यह आन्तरिक प्रगति सामान्य व्यक्ति को महामानव स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देती है। यह सब मन के भटकाव को रोकने और उसे लक्ष्य केन्द्र पर नियोजित कर सकने का ही प्रतिफल है। चञ्चलता की वृत्ति से छुटकारा पाकर एकाग्रता के लिए—एक धारा में बहने के लिए सधाया हुआ मन कितने चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करता है इसे अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है। प्रगति का समूचा इतिहास तो इस तथ्य का साक्षी है ही।

मन की दूसरी प्रवृत्ति है—सुखोपभोग की लिप्सा। भौतिक सुख शरीर द्वारा वासना तृप्ति के रूप में भोगा जाता है। इन्द्रियाँ इसकी माध्यम हैं। शिश्नोदर परायणता में रुचि बनी रहती है। स्वाद और विषय सुख की कल्पनाएँ करने और साधन जुटाने के ताने−बाने बुनने में उसकी अधिकाँश शक्ति लगी रहती है। मधुर देखने, सुनने, सूँघने, छूने आदि की इन्द्रिय लिप्साएँ भी इसी विलास क्षेत्र में आती हैं। अहंकार की पूर्ति के लिए दूसरों को प्रभावित करने वाले कई तरह के ठाट−बाट बनाये जाते हैं। संग्रह और स्वामित्व के लिए भी अनेक प्रकार के प्रयत्न करने पड़ते हैं। ‘तृष्णा’ शब्द में इन सबका समावेश है। अहंता पर चोट पहुँचने से प्रतिशोध की उत्तेजना उत्पन्न होती है। यह क्रोध है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छह आन्तरिक शत्रु माने गये हैं। संक्षेप में यह सारा विकार परिवार भौतिक सुख प्राप्त करने की मनःलिप्सा की अनेकों रंग रूपों में दीखने वाली प्रतिक्रियाएं मात्र हैं।

मन की इस पतनोन्मुख बहिर्मुखी—लिप्सा परायण प्रवृत्ति से जीवात्मा को असीम हानि उठानी पड़ती है। जीवन संपदा उन्हीं उलझनों में नष्ट−भ्रष्ट होती चली जाती है और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाने से वंचित रहना पड़ता है।

मन की इस प्रवृत्ति को उलट देने के लिए किये गये प्रयास ‘तप’ कहलाते हैं। सुखानुभूति तो आत्मा की आकाँक्षा भी है, पर वह मन के स्तर से बहुत ऊँची, बहुत भिन्न है। मन की तृप्ति वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति में होती है। इसमें उपभोग लक्ष्य है। आत्मा उच्चस्तरीय आदर्शों के पालन में जो आनन्द पाता है; उसे संतोष या शाँति कहते हैं। संक्षेप में मन को भौतिक सुख की आकाँक्षा रहती है और आत्मा को आत्मिक संतोष एवं शाँति की। सुख मन का विषय है और संतोष आत्मा का। रस्साकशी में एक को हारना दूसरे को जीतना पड़ता है। मन जीतता है तो आत्मा को असहाय बनकर अतृप्त स्थिति में पड़ा रहना होता है। आत्म जीतता है तो मन को कुचलना पड़ता है। आरम्भ में उद्धत मन को संयत बनाने में काफी संघर्ष करना पड़ता है। पीछे तो उसमें समझौता हो जाता है। वन्य पशु जब पालतू बन जाते हैं तो मालिक से झगड़ने की अपेक्षा उसी के साथ फिरने लगते हैं। यही स्थिति मन की होती है। साधना द्वारा मन को इसी तरह सधाया जाता है; जिस प्रकार सरकस वाले सिंह जैसे आक्रमणकारी जन्तु को स्वामिभक्त, आज्ञाकारी एवं उत्पादक बनाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। सरकस के पशु शिक्षक उन जन्तुओं की अनगढ़ आदतों को छुड़ाने और नये प्रकार के अभ्यास डालने में भारी माथापच्ची करते हैं। उन्हें मार और प्यार की दुहरी भूमिका निभानी पड़ती है। तप साधना और कुछ नहीं। मन की चंचलता और सुख लिप्सा वाली अनगढ़ आदतों को छुड़ाने और उसे उपयोगी प्रवृत्तियों में संलग्न होने का अभ्यस्त बनाने के लिए ऐसे काम करने पड़ते हैं जिन्हें मोटेतौर से क्रूर कर्म की संज्ञा भी दी जा सकती है। तप का बाह्य स्वरूप कुछ ऐसा ही निष्ठुरतापूर्ण है, यद्यपि उसके पीछे आत्मोत्कर्षण का दूरगामी दुलार ही दुलार छलकता देखा जा सकता है।

सुख को गौण और सन्तोष को प्रधान मानकर चलना—मन को गौण और आत्मा को प्रधान मानना यही वह परिवर्तन है जिसके आधार पर किसी को तपस्वी कहा जा सकता है। तप में तितीक्षा का—शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक असुविधाओं का अभ्यास इसलिए करना पड़ता है कि मन की अनगढ़ कुसंस्कारिता को—चंचलता और लिप्सा को छुड़ाया जा सके। उसे पतनोन्मुखी, बहिरंग ललकों से विरत करके उच्चस्तरीय आध्यात्मिक आदर्शवादिता अपनाने के लिए सहमत करना ही तप साधना का एकमात्र उद्देश्य है। इसमें जो कड़ाई बरतनी पड़ती है उसे सुधार प्रयोजन के लिए कुछ क्षण के लिए बरती गई विवशता भर समझना जाना चाहिए। उसे प्रसव पीड़ा की उपमा दी जा सकती है। ऐसे तो सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए मन मारना पड़ता है और अपने रूखे नीरस प्रयोजनों में तन्मय होना पड़ता है। मोटेतौर से इस साधना को अपने साथ बरती गई कठोरता ही कह सकते हैं। दूसरे शौक−मौज में निरत साथी इसे मूर्खता भी कह सकते हैं, पर वस्तुतः वह आरम्भ में बीज की तरह गलने के लिए और पीछे विशाल वृक्ष के रूप में विकसित करने वाली दूरगामी बुद्धिमत्ता ही है।

तपस्वी को आरम्भ में कष्ट सहना पड़ता है। उसकी शारीरिक सुख सुविधाओं में कटौती होती है, मानसिक हास−परिहास का अवसर भी छिनता है, औचित्य को रखकर उपार्जन और उदार उपयोग का ध्यान रखने से समृद्धि भी बढ़ नहीं पाती। इन तीनों क्षेत्रों में कमी पड़ने को मोटेतौर से मूर्खता कह सकते हैं, पर चूँकि उसके पीछे जो उज्ज्वल सम्भावनाएँ विद्यमान हैं, उन्हें थोड़ी लागत में तगड़ा मुनाफा कमाने जैसी बुद्धिमत्ता ही कहा जा सकता है।

तपाने से वस्तुएँ गरम होती हैं और उनका संशोधन होता है, दृढ़ता आती है तथा स्तर बढ़ता है। वस्तुओं की तरह ही व्यक्ति भी तप−साधना से परिष्कृत होता और सुदृढ़ बनता है।

कच्ची मिट्टी से बनी ईंटों द्वारा विनिर्मित मकान वर्षा में गलने लगता है, पर यदि इन्हीं ईंटों को आग में पका लिया जाय तो उनसे बनी इमारतें मुद्दतों चलती हैं। चूना और सीमेन्ट क्या है? कंकड़−पत्थरों का पका हुआ चूरा। यदि इन्हें कच्चा पीसकर इमारत में लगाया जाय तो काम नहीं चलेगा। पकाये जाने पर उनमें ईंटों को पकड़ लेने और भवन को चिरस्थायी बना देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। धातुएँ खदान में से मिट्टी मिली—कच्ची अवस्था में निकलती हैं। उन्हें भट्टी में तपाया जाता है तब लोहा, ताँबा आदि शुद्ध बनते और काम में आते हैं। लोहे को अधिक मजबूत बनाने के लिए उसे अधिक तपाया जाता है। काटने वाले शस्त्र तथा औजारों की ‘धार’ अधिक गर्मी देकर ही सुस्थिर बनाई जाती है।

आयुर्वेद के रसायनवेत्ता कई प्रकार की गुणकारी भस्में बनाते हैं। अभ्रक भस्म, वंग भस्म, प्रबाल भस्म, लौह भस्म आदि के गुण प्रख्यात हैं। यह उन साधारण सी वस्तुओं के तपाने, गरमाने का ही प्रतिफल है। पानी गरम करने से भाप बनती है और उससे रेल गाड़ी का इंजन जैसी भारी वस्तुएँ धकेली जाती हैं। बल्ब का जरा−सा ‘फिलामेंट’ जब गरम होता है तो रोशनी देता है। दीपक के बारे में भी यही बात है, गर्मी ही प्रकाश के रूप में परिवर्तित होती है, उसी को शक्ति के रूप में परिणत किया जाता है। व्यक्तित्व की सत्ता को तपाने से भी उसमें सर्वतोमुखी प्रखरता उत्पन्न होती है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों को गुरुकुलों के कठोर वातावरण में रहकर पढ़ने के लिए भेजा जाता है कि वे कष्टसाध्य जीवनयापन करते हुए अपने शरीर को सुदृढ़ और मन को सहनशील बनाने की साधना में उत्तीर्ण होकर प्रखर प्रतिभा विकसित कर सकें।

कच्चे फलों को भूखे या अनाज की गर्मी में बंद रख कर पकाया जाता है। आम प्रायः इसी प्रकार पाल में पकता है और अपना खट्टापन हटाकर मीठा बनता है। दूध को गरम करने पर घी उपलब्ध होता है। सामान्य पानी को औषधि उपयोगी ‘डिल्सिल्ड वाटर’ बनाने के लिए उसे मिट्टी पर चढ़ाया जाता और भाप बनकर उड़ाया जाता है। तप−साधना द्वारा कष्टसाध्य परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं और उन्हें सहन करने की तितीक्षा का सहारा लेकर अपने को परिष्कृत करना पड़ता है, सोने को आग में तपाकर ही विविध प्रकार के आभूषण बनते हैं। अन्य धातुओं से भी उपकरण तभी बनते हैं जब उन्हें आग में डालकर कोमल बनाया जाय। मनुष्य की जड़ता एवं कठोरता को सुकोमलता में बदलने और अमुक ढाँचे में ढालने के लिए तपश्चर्या की रीति−नीति अपनाना आवश्यक होता है। आरामतलबी और सुख−सुविधा के भरे वातावरण में पलने वाले लोग अविकसित स्थिति में पड़े रहते हैं उनकी विविध क्षमताएँ विकसित होने की बात बनती ही नहीं। उस्तरे पर धार रखने से ही उसमें पैनापन बढ़ता है और चमक दीखती है। उसे ऐसे ही एक कोने में पड़ा रहने दिया जाय तो धीरे−धीरे जंग चढ़ती जायगी और वह गलकर अपनी मौत मर जायगा। सुविधा के अभिलाषी लोग अपना पुरुषार्थ खोते चले जाते हैं। तीक्ष्णता की वृद्धि और रक्षा के लिए रगड़ आवश्यक है। फौज के सैनिकों को यदि नित्य ‘परेड’ करने और दौड़ लगाने का अवसर न मिले तो वे थोड़े ही दिनों में तोंद वाले सेठ बन जायेंगे तब उनके लिए लड़ सकना तो दूर अपनी काया का बोझ ढोना भी कठिन पड़ेगा।

इतिहास, पुराणों में ऐसे असंख्य आख्यान मौजूद हैं जिनसे प्रतीत होता है कि विशिष्ट शक्ति संपन्न लोगों को विभूतियाँ उपार्जन में तप−साधना का ही आश्रय लेना पड़ा था। भागीरथ द्वारा तप करके गंगा को धरती पर लाया जाना, पार्वती का शिव से विवाह संपन्न होना, ध्रुव का तप करके ब्रह्माण्ड का केन्द्र बनना, दधीचि की अस्थियों से वज्र बनना और उससे असुरों का मारा जाना, अगस्त्य का समुद्र शोषण, विश्वामित्र का नई सृष्टि का निर्माण, सात सामान्य मनुष्यों का सप्तऋषि बनना—जैसी अगणित कथाएँ तप की शक्ति का परिचय प्रस्तुत करती हैं।

भगवान् कृष्ण को सुसंतति प्राप्त करने के लिए रुक्मिणी सहित लंबी अवधि तक मात्र जंगली बेर खाकर उस स्थान पर तप करना पड़ा था, जहाँ आज कल बद्रीनाथ धाम है। दलीप ने रानी सहित वशिष्ठ की गौएँ चराने का दीर्घकालीन तप करके सुसंतति प्राप्त की थी। स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी के तप ने उन्हें राम जैसा पुत्र दिया था और काश्यप् तथा अदिति के तप ने कृष्ण को गोदी में खिलाने का वरदान दिलाया था। इन प्रसंगों में यह प्रतिपादन है कि तप द्वारा मनुष्य भगवान का भी पिता बन सकता है।

आत्म−साधना में तपश्चर्या को प्रमुखता दी गई है। तप के कारण उसकी गर्मी से प्रसुप्त शक्तियों के जागरण की परिस्थितियाँ बनती हैं।


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