ध्यान योग से एकाग्रता की दिव्य शक्ति का उद्भव

January 1976

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शक्ति को उपलब्ध करना बड़ी बात नहीं, उसे बिखराव के निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहित रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े।

धूप, गर्मी से ढेरों पानी समुद्र तालाबों में से भाप बनकर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती और उड़ती है। उसका कोई उपयोग नहीं। किन्तु इंजन में थोड़ा-सा पानी भाप बनाया जाता है। उस भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका शक्ति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुँचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इंजन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्ययुक्त होती है कि अपने साथ-साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है।

सेरों बारूद यदि जमीन पर फैलाकर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी-सी चमक दिखाकर भक से जल जायगी। उसका कुछ भी उपयोगी परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं-सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई एक दिशा विशेष की ओर प्रचण्ड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती है, वहाँ सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति को दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अंतर होता है इसे सहज ही समझा जा सकता है।

सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी−सी गर्मी, रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है। पर यदि उन किरणों के एक दो इंच के बिखराव को आतिशी−शीशे द्वारा एक केन्द्र पर केन्द्रित कर लिया जाय तो देखते−देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत कर सकती है।

स्थूल शक्तियों की तरह− सूक्ष्म शक्तियों का लाभ भी उन्हें एकत्रित करके किसी दिशा विशेष में लगा देने से ही संभव हो सकता है। मस्तिष्क एक सशक्त बिजली घर है। इसमें निरन्तर प्रचण्ड विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है और उसके शक्तिशाली कंपन ऐसे ही अनन्त आकाश में उड़ते, बिखरते नष्ट होते रहते हैं। यदि इस प्रवाह को केन्द्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं। एकाग्रता की चमत्कारी शक्ति कहीं भी देखी जा सकती है। सरकस में एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक खेल होते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति का उपयोग कम और एकाग्रता का अधिक होता है। एक पहिये की साइकिल−एक तार पर चलना, एक झूले से दूसरे झूले पर उछल जाना, तश्तरियाँ तेजी से लगातार एक हाथ से उछालना और दूसरे से पकड़ना जैसे खेलों में एकाग्रतापूर्वक कुछ अंगों को सधा लेने का अभ्यास ही कौतूहल उत्पन्न करता है।

द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी हुई नकली मछली की तीर से आँख भर बेध देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा रहे थे। निशाने पर तीर छोड़ने से पूर्व वे छात्रों से पूछते तुम्हें क्या दीखता है? शिष्यगण मछली के आस−पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर दीखने की बात कहते। द्रोणाचार्य उनकी असफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा—मुझे मात्र मछली की आँख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्व घोषणा कर दी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य बेध की शर्त पूरी करके द्रौपदी विवाह का अधिकारी बन सका।

एकाग्रता की शक्ति असाधारण है। भौतिक प्रयोजनों में उसका चमत्कारी उपयोग नित्य ही देखा जाता है। बहीखाता सही रखने और मीजान ठीक जोड़ने में एकाग्रता के अभ्यासी ही सफल होते हैं—अन्यथा सुशिक्षितों से भी पन्ने पर भूल होने और काट−फाँस करने की कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। वैज्ञानिकों की यही विशेषता है कि वे अपने विषय में तन्मय हो जाते हैं और विचार समुद्र में गहरे गोते लगाकर नई−नई खोजों के रत्न ढूँढ़ लाते हैं।

लोकमान्य तिलक के जीवन का एक संस्मरण प्रसिद्ध है कि उनके अँगूठे का आपरेशन होना था। डॉक्टर ने दवा सुँघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा तो उनने कहा—‘मैं गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगता हूँ आप बेखटके आपरेशन कर लो।’ डॉक्टर को तब बहुत आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने बिना हिले−डुले शाँतिपूर्वक आपरेशन करा लिया। पूछने पर तिलक ने इतना ही कहा—तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी जिसमें आपरेशन की ओर ध्यान ही नहीं गया और दर्द भी नहीं हुआ।

कहते हैं कि भृंग नाम का उड़ने वाला कीड़ा−झींगुर पकड़ लाता है और उसके सामने निरन्तर गुँजन करता रहता है। उस गुँजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मनःस्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग रूप में बदल जाता है। कीट विज्ञानी इस किंवदंती पर सन्देह कर सकते हैं, पर यह तथ्य सुनिश्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का देर तक चिन्तन करते रहा जाय, मनुष्य की सत्ता उसी ढाँचे में ढलने लगती है। रूप, यौवन पर ध्यान केन्द्रित रखने से वेश्याएँ ढलती आयु में भी सुन्दर बनी रहती हैं और विपत्ति एवं मृत्यु की बात सोचने वाले लोग भरी जवानी में बूढ़े होते और मौत के मुँह में घुसते देखे गये हैं। यह सब इच्छा या अनिच्छा से किसी केन्द्र बिन्दु पर अपने चिन्तन को केन्द्रित करने का परिणाम है।

झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप दीखने लगने जैसी घटनाएँ आये दिन घटित होती रहती हैं। छोटी−सी बीमारी को बढ़ी−चढ़ी मान बैठने वाले उपयुक्त चिकित्सा होने पर भी अच्छे नहीं हो पाते और अपनी मान्यता के कारण दिन−दिन दुर्बल होते और मृत्यु के निकट पहुँचते चले जाते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने अपने बड़े रोग को भी छोटा और जल्दी अच्छा होने वाला समझा है, वे भयानक बीमारियों से भी सरलतापूर्वक छूट जाते हैं। चिकित्सकों के बारे में भी यही विश्वास काम करता है। जिस पर विश्वास होता है उस चिकित्सक की झाड़−फूँक और राख−भभूत भी संजीवनी बूटी का काम करती है। इसके विपरीत जिस पर सन्देह हो उस सुयोग्य चिकित्सक की उपयोगी दवा भी काम नहीं करती। चिकित्सा का कम और विश्वास का—अधिक प्रभाव होता हुआ आये दिन देखा जाता है।

शक्ति का उत्पन्न करना या उपलब्ध करना ही पर्याप्त नहीं। आवश्यकता उसे सुरक्षित रखने और संग्रह करने की भी पड़ती है। यदि ऐसा न हो सके तो सूक्ष्म शक्तियों को उपलब्ध करने के प्रयत्न निरर्थक चले जायेंगे । स्थूल पदार्थों को गोदाम में जमा किया जा सकता है। कपड़े बक्सों में, जेवर, रुपया तिजोरी में और अनाज कोठे में भरा जा सकता है। पर सर्दी, गर्मी, नमी को कैद करके रखना असम्भव तो नहीं, पर कठिन एवं साधन साध्य अवश्य है। साधना विज्ञान में दिव्य−शक्ति के उत्पादन का महत्व बहुत है, उसके लिए विधि−विधान और कर्मकाण्ड भी बहुत है। पर इससे भी अधिक विस्तार उन साधनाओं का है जो प्रकृति प्रदत्त—सहज उपलब्ध शक्तियों को सुरक्षित रखने एवं केन्द्रीभूत करने के उद्देश्य से बनाई गई हैं।

वस्तुतः यह संग्रह ही अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ईश्वर ने जितना हमें दिया है, वह इतना अधिक है कि उसी भण्डार से बैठे−बैठे खाते रहने पर भी पूरी जिन्दगी मजे में गुजर सकती है। मुख, आमाशय, आँत, जिगर आदि में पाये जाने वाले पाचन रस की अन्न, शाक जैसी तुच्छ−सी खाद्य सामग्री को रक्त, माँस, वीर्य एवं ओजस् शक्ति के रूप में परिणत करते हैं। अन्न को रक्त में बदला जाना सचमुच ही एक जादू है। इस जादू को पाचन रस प्रवाही ग्रन्थियों में भरा−पूरा पाया जाता है। वस्तुतः यही वह सम्पत्ति है जो कभी नहीं चुकती। इसी के बल पर मनुष्य जीवित रहता है। घास−फूस खाकर भी आदिवासियों की तरह सुदृढ़ दीर्घजीवी बना रहता है। यदि ये भीतरी रस विकृत हो जाएं तो फिर बाहर की बहुमूल्य खुराकें भी निरर्थक ही नहीं भारभूत कष्टकारक भी सिद्ध होती हैं।

उदाहरण के लिए ही यहाँ पाचन रसों की चर्चा की गई है। ऐसी−ऐसी असंख्य विशेषताएँ और क्षमताएँ मानवी सत्ता के कण−कण में भरी पड़ी हैं। दशों इन्द्रियाँ जादू की पिटारियाँ हैं। उन्हें रचनात्मक दिशा में नियोजित रखा जा सके, भटकाव से—बिखराव से बचाया जा सके तो अभीष्ट सफलता की दिशा में द्रुत गति से बढ़ा जा सकता है। मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है। मस्तिष्कीय क्षमता का कोई अन्त नहीं। उसके विचार पक्ष और बुद्धि−पक्ष का ही थोड़ा−सा प्रयोग होता है शेष चित्त अहंकार वाला अचेतन समझा जाने वाला, किन्तु चेतन से लाखों गुना अधिक शक्तिशाली चित्त और अहंकार कहा जाने वाला भाग तो अविज्ञात स्थिति में निष्प्रयोजन ही पड़ा रहता है। अचेतन का अर्थ यहाँ उपेक्षित कहना ही उचित है। मन और बुद्धि वाले भाग का जितना उपयोग किया जाता है उतना ही चित्त, अहंकार का भी प्रयोग होने लगे तो मनुष्य दुनियादार बुद्धिमानों की तुलना असंख्य गुनी विचारशीलता, प्रज्ञा, भूमा, प्राप्त कर सकता है और मात्र समझदार न रहकर तत्व दृष्टा की स्थिति में पहुँच सकता है।

बिखराव को रोकने की—उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रखकर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। ‘मेडीटेशन’ की योग-प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने, समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत ही बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएँ—उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है।

बाँधों में पानी भरा रहता है। पर जब उसे एक छोटे छेद में होकर निकाला जाता है तो पानी के दबाव से वह धारा बड़ी तेजी से निकलती है। इस धारा में असाधारण शक्ति होती है, उसके प्रहार से अमुक मशीनों के पहिये घुमाये जाते हैं और उनके घूमते ही कई प्रकार के यन्त्र चलने लगते हैं। बड़े-बड़े बिजली घरों का निर्माण बँधे हुए जलाशय बाँधों पर ही होता है। इंजन या मोटर चलाकर बिजली पैदा करना महंगा होता है। पर बाँध के सहारे तो यह उत्पादन काफी सस्ता पड़ता है। छोटे-छोटे जल प्रपातों से भी पनचक्की जैसी उपयोगी मशीनें चल पड़ती हैं। यह जलधार की—झरनों की नहीं एकाग्रता की शक्ति है। फैले क्षेत्र को छोटा कर देने से सहज ही उसकी प्रखरता बढ़ जाती है।

एक मोटा लोहा लेकर उसे किसी कड़ी वस्तु में धँसाया जाय तो उसमें भारी कठिनाई पड़ेगी। किन्तु यदि उसकी नोंक पतली कर दी जाय तो साधारण दबाव से ही वह गहराई तक धँसता चला जायगा। मोटे तार और सुई की पतली नोंक का अन्तर सहज ही देखा जा सकता है। तार को कपड़े या कागज की तह में ठूँसना कठिन पड़ेगा किन्तु पतली नोंक वाली सुई सरलतापूर्वक प्रवेश करती चली जायगी। लकड़ी, पत्थर, लोहे जैसे कड़े पदार्थों में छेद करने के लिए नोंकदार बरमे ही काम देते हैं। नोक की इस चमत्कारी शक्ति का इतना ही रहस्य है कि बड़ी परिधि की अपेक्षा छोटी परिधि में जब दबाव केन्द्रित होता है तो उसकी शक्ति सहज ही बढ़ जाती है।

जमीन देखने में मिट्टी, धूलि की निरर्थक-सी वस्तु प्रतीत होती है, पर यह उसकी ऊपरी परत का ही मूल्याँकन है। उसे खोदने पर एक से एक बहुमूल्य वस्तुएं मिलती चली जाती हैं। थोड़ा खोदने पर पानी निकल आता है। उससे दैनिक उपयोग के सारे काम चलते हैं। पेड़ पौधों की सिंचाई तथा कल कारखाने चलते हैं। इससे गहरे उतरने पर अनेक रासायनिक पदार्थ, धातुएँ, रत्न, गैस, तेल जैसी बहुमूल्य वस्तुएं हाथ लगती हैं। स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह गहरी खुदाई नोकदार बरमे ही कर सकते हैं। एकाग्रता को शक्तियों का एकीकरण कह सकते हैं। इससे अन्तःक्षेत्र में छिपी विभूतियाँ और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई संपत्तियां प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकती हैं और सामान्य-सा जीवन असामान्य विशेषताओं और तज्जनित सफलताओं से भरा-पूरा दृष्टिगोचर हो सकता है। जिस प्रकार जमीन खोदने में एक से एक बढ़कर बहुमूल्य खनिज सम्पदाएँ निकलती हैं, उसी प्रकार एकाग्रता की शक्ति में व्यक्तित्व के साथ जुड़े हुए गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टताएँ और बल, बुद्धि, विद्या, मैत्री, कीर्ति, प्रतिभा जैसी विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती रह सकती हैं।

अक्सर लोगों को अपनी स्मरण शक्ति की कमी एवं बुद्धिमन्दता की शिकायत रहती है। इसका छोटा कारण तो मनःसंस्थान की संरचना में यत्किंचित् अन्तर का होना भी हो सकता, पर प्रधान कारण है अन्य-मनस्कता, अरुचि एवं उपेक्षा। बहुत करके वे ही बातें विस्मृत होती हैं जो महत्त्वहीन समझी जाती हैं और जिन्हें हलकी दृष्टि से देखा जाता है। जीवन में महत्त्वपूर्ण लगने वाली घटनाएँ कभी विस्मृत नहीं होतीं। विवाह के दिन का घटना-क्रम—कन्वोकेशन में उपाधि पत्र मिलने का सम्मान जैसे उत्साहपूर्वक अथवा किसी प्रियजन की मृत्यु, बड़ी चोरी, बड़ा घाटा, आक्रमण जैसे त्रासदायक घटना-क्रम मुद्दतों तक मस्तिष्क में घूमते रहते हैं और उन्हें कभी भी क्रमबद्ध रूप से सुनाया जा सकता है। यदि सचमुच ही स्मरण शक्ति कम रही होती तो वे विशेष घटनाएँ भी विस्मृत ही हो जातीं।

इतिहास में असंख्य लोगों के ऐसे विवरण हैं जो बड़ी आयु तक मन्द बुद्धि समझे जाते रहे किन्तु जब उन्होंने अपने व्यक्तित्व को विकसित करने की ओर ध्यान दिया, उत्तरदायित्वों को समझा—अपने को कसा और पूरा ध्यान देकर अध्ययन करना आरम्भ किया तो उनकी बौद्धिक न्यूनता सहज ही दूर हो गई। वे तीव्र बुद्धि माने गये और क्रिया कुशल भी। स्वास्थ्य, धन, प्रभाव, यश, वर्चस्व आदि के क्षेत्रों में भी यही होता रहा है। उपेक्षा जन्य आलस्य−प्रमाद के कारण ही पिछड़ापन उत्पन्न होता है, पर जब सजग सक्रियता का दौर आरम्भ होता है तो प्रगति का चक्र दस गुने वेग से घूमने लगता है। महत्वपूर्ण सफलताएँ केवल उन्हें मिलती हैं जिन्हें अपने कार्य में पूरी दिलचस्पी होती है और अभीष्ट प्रयोजन के लिए समग्र तत्परता समेट कर पिल पड़ने में आनन्द आता है। यह सब रुचि का केन्द्रीकरण और मानसिक क्षमता के एकत्रीकरण का ही चमत्कार है। इस प्रयोग से कोई भी मन्द बुद्धि, दुर्बल शरीर, उपेक्षित अभावग्रस्त मनुष्य अपना काया−कल्प कर सकता है।

एकाग्रता का एक चमत्कार मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म भी है। प्रयोगकर्ता अपनी दृष्टि को एक बिन्दु पर एकत्रित करने का अभ्यास करता है। अपनी इच्छा शक्ति को समेट कर लक्ष्य केन्द्र में समाविष्ट करता है। फलस्वरूप जादुई शक्ति उत्पन्न होती है और उससे दूसरों को सम्मोहित करके उन्हें इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। उनमें मानसिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं तथा प्रखरता के नये बीज बोये जा सकते हैं। प्राण−विद्या के द्वारा शारीरिक, मानसिक चिकित्सा के अनेक कठिन कार्य पूरे किये जाते हैं। यह सब एकाग्रता का ही चमत्कार है।

ध्यान योग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से बेधक प्रचण्डता उत्पन्न होती जाती है। शब्दबेधी बाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से—दिव्य ऋषि−सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा−पूरा दिखाई पड़ेगा। यह लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती चली जायगी। शक्ति का जब—जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे।

एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बाँध बना लिए जाते हैं और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर−दूर तक का क्षेत्र हरा−भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़−फोड़कर इधर−उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत् निर्माण कारखाने से कम नहीं आँका जाना चाहिए। बिजली घरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती है और प्रभाव क्षेत्र, जो आज घर−परिवार तक सीमित है, वह कल विश्व−व्यापी बन सकता है। बिजली घर के तार निर्धारित वोल्टेज की क्षमता ही धारण किये रहने के लिए बाध्य हैं, पर मस्तिष्क की प्रचण्ड सत्ता परिस्थिति के अनुसार इतनी अधिक क्षमता संपन्न हो सकती है कि क्षेत्र, समाज की सीमा को पार करते हुए अपने प्रभाव से समस्त संसार को प्रभावित कर सके और वातावरण में बदल देने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

विज्ञानी, दार्शनिक, कलाकार, विद्वान, शिल्पी, साहित्यकार, व्यवस्थापक, संयोजक, नेता, जैसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निवाहने वाले व्यक्ति भी प्रायः सामान्य लोगों के जैसे ही होते हैं। न उनके शरीर में कोई अतिरिक्त कलपुर्जा होता है। अन्य लोगों से भिन्नता और श्रेष्ठता का जितना कुछ चमत्कार दीखता है वह उनकी उस आन्तरिक विशेषता का परिणाम है जिसका प्रथम चरण एकाग्रता और दूसरा लक्ष्य निष्ठा कहा जा सकता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा हर किसी में प्रचुर परिमाण में होती है—यहाँ तक कि मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोगों में भी मूल प्रतिभा की कमी नहीं होती। अंतर प्रसुप्त और जागृत स्थिति के परिमाण का होता है। सोती हुई स्थिति में बुद्धिमान मनुष्य भी अर्धमृतक की स्थिति में पड़ा रहता है। किन्तु जागने पर अपना वर्चस्व सिद्ध करता है। यही बात मस्तिष्क के संबंध में है। परिस्थितिवश किन्हीं−किन्हीं के मस्तिष्कीय कण प्रसुप्त स्थिति में पड़े होते हैं और वे मन्द बुद्धि जैसे लगते हैं किन्तु यदि उन्हें प्रयत्नपूर्वक जागृत किया जाय तो वे न केवल प्रतिभाशाली लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं, वरन् कई बार तो उनसे भी आगे निकल जाते हैं।

विद्या के क्षेत्र में कालिदास, वरदराज जैसे असंख्य लोगों के उदाहरण ऐसे हैं जिनमें वे युवावस्था तक मन्द मति समझे जाते रहे और शिक्षा प्राप्त करने में असफल रहे। किन्तु अन्तःस्फुरणा के प्रचण्ड रूप में आते ही उनका मनःसंस्थान भी तिलमिला उठा और वे देखते−देखते विद्वानों की प्रथम पंक्ति में जा बैठे। बचपन में जिन्हें प्रतिभा शून्य मान लिया गया था ऐसे असंख्य लोग आगे चलकर अपने−अपने विषय में मूर्धन्य बने हैं ऐसे उदाहरण यदि संग्रह करने आरम्भ किये जाएं तो हर क्षेत्र में सहस्रों प्रमाण सरलतापूर्वक मिल सकते हैं। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मन्द बुद्धि होना जितना मस्तिष्कीय विकास की कमी पर निर्भर रहता है उससे अधिक इस बात पर अवलम्बित है कि एकाग्रता और आकाँक्षा का समन्वय करके किसी दिशा में बढ़ चलने की बात बनी या नहीं बनी।

कच्चे धागे मिलकर मजबूत रस्सी और कमजोर सींकें इकट्ठी होने से बुहारी बनने की बात सभी को मालूम है। बूँद−बूँद जोड़ने से घड़ा भरता है। यह उदाहरण मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर विचार तरंगों को एक केन्द्र पर निग्रहीत करने पर लागू होता है। अस्त−व्यस्त, अनियन्त्रित, निरुद्देश्य चिन्तन से मानसिक पंक्ति की कितनी बर्बादी होती है और उन्हें एकाग्र करके दिशा विशेष में निरत कर देने पर कितने चमत्कार उत्पन्न होते हैं इस तथ्य को पग−पग पर परखा और सही पाया जा सकता है। हर काम में असफल रहने वाले लोगों में से अधिकाँश वे होते हैं जिन्हें किसी विषय का एकाग्र चिन्तन नहीं आता और जो किसी काम में मन लगाकर देर तक जुटे रहना नहीं जानते। ऐसे लोग बुद्धिमान, क्रिया कुशल एवं साधन सम्पन्न होते हुए भी मात्र चंचल तथा अस्थिर स्वभाव के कारण हर कार्य में असफल बनते हैं। लगातार एक काम पर सोचना और अभिरुचि को निर्धारित कार्य में नियोजित किये रहना जिनसे बन नहीं पड़ता, उनकी चित्र−विचित्र उछल−कूद तो बहुत होती है, पर सफलता के नाम पर पल्ले कुछ नहीं पड़ता।

एकाग्रता को विकसित करके समुद्र तल में गहरा गोता मारने वाले पनडुब्बों की तरह वैज्ञानिक, योगी, मनीषी, बहुमूल्य रत्नराशि खोजकर लाते हैं। समुद्र तल पर तैरते, फिरने वालों के हाथ कुछ नहीं पड़ता, पर जो गहरे उतरते हैं वे बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं। उथला चिन्तन हवा में उड़ते रहने वाले तिनकों की तरह है और एकाग्रतापूर्वक चिन्तन को केन्द्रीभूत करके किसी विशेष प्रयोजन में लगा देना ऐसे शब्दबेधी बाण की तरह है जिसका सुनिश्चित परिणाम होकर ही रहता है।


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