चित्तवृत्ति निरोध का साधन, अभ्यास

January 1976

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यात्रा दोनों पैरों के सहारे की जाती है और गाड़ी दो पहियों के आधार पर लुढ़कती है। सामान्य प्रगति के लिए श्रम और मनोयोग के संयुक्त समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए योग और तप यह दो माध्यम अपनाने पड़ते हैं। इनसे बच निकलने और सरल पगडंडियाँ ढूँढ़ने से आत्म प्रवञ्चना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। सस्ते मोल में भगवत् प्राप्ति करा देने से लेकर समाधि लगा देने और कुण्डलिनी जगा देने जैसे प्रलोभन देने वालों की कमी नहीं, किन्तु स्पष्ट है कि उस प्रवंचना में भ्रम जंजाल के अतिरिक्त तथ्य कहीं रंचमात्र भी नहीं है। हमें अपनी रोटी आप खानी और आप पचानी पड़ती है। आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचना देने वाली साधना भी अपने ही पाँवों के सहारे चलकर पूरी करनी पड़ती है और इसके लिए योग और तप जैसे दोनों ही आधार पूरी निष्ठा के साथ अपनाने पड़ते हैं।

योग का सामान्य अर्थ होता है—जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने की प्रक्रिया अध्यात्म भाषा में ‘योग’ कहलाती है। इसे आरम्भ करने के लिए जिन क्रिया−कलापों को अपनाना पड़ता है उन्हें ‘साधन’ कहते हैं। साधना अपने आप में एक छोटा उपकरण मात्र है। उसका महत्व इसलिए है कि वह ‘साध्य’ को प्राप्त कराने में सहायता करती है। कई लोग साधन को ही ‘साध्य’ समझ बैठते हैं और उन उपचारों को ही योग कहने लगते हैं जो साधना प्रयोजन में प्रयुक्त होते हैं।

योग−साधना में कई प्रकार के शारीरिक, मानसिक क्रिया कृत्य अपनाने पड़ते हैं। इनका उद्देश्य आत्म चेतना को परमात्मा चेतना से जोड़ने वाली मनःस्थिति उत्पन्न करना है। यह तथ्य ध्यान से रखकर चला जाय तो ही लक्ष्य की पूर्ति होनी संभव है। यदि चेतनात्मक परिष्कार के लिए प्रयत्न न किया जाय और मात्र उन क्रिया−कृत्यों को ही योगाभ्यास मान लिया जाय तो उस भ्रान्ति के कारण घोर परिश्रम करते रहने पर भी कोल्हू के बैल की तरह जहाँ के तहाँ बने रहना पड़ेगा।

शारीरिक श्रम में आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा, व्रत, मौन, नेति, धेति, वस्ति, न्यौलि, वज्रोली, कपाल भाति, भूमिशयन, सर्दी−गर्मी सहना, कीर्तन आदि कितने ही उपचार काम में लाये जाते हैं, इनका उद्देश्य स्वस्थता, समर्थता एवं पवित्रता उत्पन्न करना है। ताकि मल भारों से लदे व्यक्ति को आत्मिक प्रगति की लंबी मंजिल पार करने में सुविधा हो। इसी प्रकार मानसिक उपासनाओं में—जप, ध्यान, नाद, एकाग्रता, तन्मयता, स्वाध्याय, सत्संग आदि साधनों का आश्रय लिया जाता है ताकि चेतना को दिशा एवं प्रेरणा दी जा सके और उसे अपनी जीव ससीमता को ब्रह्म असीमता में घुला देने के लिए आवश्यक प्रकाश एवं प्रशिक्षण मिल सके।

लक्ष्य विहीन साधना मनोरंजक भटकाव ही कहा जा सकता है। शारीरिक और मानसिक क्रियाकृत्यों को योगाभ्यास के आधार साधन मानना ही पर्याप्त है। उन कृत्यों को ही जादुई मान बैठना और उनकी प्रवीणता मिल जाने मात्र से लक्ष्य पूरा हो जाना मान लिया जायगा तो वह विशुद्ध भ्रान्ति ही सिद्ध होगी। एक व्यक्ति दूसरे तक अपने मनोभाव पहुँचाने के लिए कागज कलम का प्रयोग करता है। यह उपकरण निश्चय ही बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनके बिना विचारों का आदान−प्रदान करने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। फिर भी यह मात्र कागज कलम से पत्राचार का उद्देश्य पूरा नहीं होता । उसमें भावों की अभिव्यक्ति का तथ्य जुड़ा ही रहना चाहिए। यदि ऐसे ही कागज पर कलम घिसते रहा जाय और कुछ भी टेढ़ी−सीधी लकीरें बनाई जाती रहें तो उससे पत्र−व्यवहार द्वारा विचारों के आदान−प्रदान का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। लेखन क्रिया के साथ भावों की अभिव्यक्ति नितान्त आवश्यक है। योगाभ्यास में प्रयुक्त होने वाले उपचारों में मात्र शारीरिक, मानसिक हलचलों को ही सब कुछ मानकर सन्तुष्ट नहीं हो बैठना चाहिए। उत्कट प्रयत्न यह होना चाहिए कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ देने पर उपयुक्त भाव चेतना उत्पन्न की जा सके। महत्व तो इस ‘भाव उभार’ का ही है। वह उभरेगा तो गाड़ी आगे चलेगी अन्यथा तथाकथित योगाभ्यासों की हलचलें कुछ समय तक श्रम−साधना में जितनी कुछ जैसी कुछ अनुभूति दे सकती हैं, उसे देकर समाप्त हो जायेंगी। भाव−विहीन साधना से शरीर की स्वस्थता और मन की एकाग्रता भले ही कुछ सीमा तक बढ़ सके; आत्मिक प्रगति का लक्ष्य पूरा न हो सकेगा। इसके लिए भावनाएं तरंगित करनी पड़ेंगी। ‘भक्ति भावना’ शब्द का प्रयोग इसीलिए किया जाता है कि उसमें भावनाओं का तरंगित होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना सारे अभ्यास निष्प्राण ही बने रहेंगे। यही कारण है कि क्रियाकृत्यों को सब कुछ मानकर उन्हीं की प्रवीणता के लिए माथापच्ची करते रहने वाले व्यक्ति प्रायः निराश रहते और असफलता की शिकायत करते ही पाये जाते हैं।

योग को चित्त वृत्तियों का निरोध कहा गया है। चित्त की वृत्तियाँ ‘प्रेम’ को—वासना, तृष्णा, मोह, अहंता आदि भौतिक लिप्सा−लालसाओं की पूर्ति को ही सुखद मानती हैं, उन्हीं की इच्छा करती हैं और उन्हीं में निरत रहती हैं। पानी का स्वभाव नीचे की ओर गिरना है इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए वैसा ही प्रयत्न करना पड़ता है जैसे कुँए से पानी खींचने अथवा तालाब का पानी टंकी में चढ़ाने के लिए। मन को ढीला छोड़ देने से वह जन्म जन्मांतरों के संग्रहीत एवं अभ्यस्त पशु−प्रवृत्तियों के अस्तबल में अपने आप घुस जायगा। घड़े से गिरते ही पानी नीचे की ओर बहने लगता है। चित्त का भी यही स्वभाव है। उसे उलटने का जो पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी को ‘चित्त वृत्ति निरोध’ कहा जायगा। महर्षि पातञ्जलि ने इसी प्रयास को योग कहा है।

कई व्यक्ति चित्त वृत्तियों के निरोध की बात को नहीं समझते और मात्र ‘चित्त निरोध’ को ही योग मान लेते हैं। उनका तात्पर्य ‘एकाग्रता’ से होता है। एकाग्रता होना ही उनकी दृष्टि में योगाभ्यास की सफलता है और उसका न होना असफलता। यह भ्रम है। एकाग्रता एक चीज है और एक धारा दूसरी। एकाग्रता का अपना महत्व और अपना लाभ है—उसका औचित्य और उपयोग समझा जा सकता है, पर एकाग्रता को ही योग का—उपासना का आधार मान बैठना गलत है। एकाग्रता के भी स्तर हैं, मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म में भी एकाग्रता प्रयुक्त होती है और देव प्रतिमा के समक्ष होकर उसकी पूजा, आरती स्तुति आदि से भी एकाग्रता का पाठ पढ़ा जाता है। पीछे यह बढ़ते−बढ़ते उस स्थिति तक भी पहुँच सकती है जिसे तन्मयता, भाव समाधि, विचार शून्यता आदि का नाम दिया जा सके। यह अन्तिम और समय साध्य स्थिति है। लोग इसी को पहले दिन प्राप्त करना चाहते हैं। ‘मन लगे तो भजन करें’ की उनकी माँग रहती है। वस्तु स्थिति इससे बिलकुल उलटी है। अल्हड़ बछड़े और घोड़े पहले दिन से ही हल या ताँगा नहीं चलाने लगते। बहुत समय तक उनके साथ माथापच्ची करके काम का बनाया जाता है। ठीक यही बात मन के संबंध में भी है। उपासना कृत्यों में बिना मन लगे ही चिरकाल तक लगा रहना पड़ता है। पीछे वह अभ्यास स्वभाव में बदल जाता है और उसकी भी शौच, स्नान, भोजन शयन जैसे दैनिक आवश्यकता अनुभव होने लगती है।

‘काम में मन लगाना’ एक गुण है। यह प्रयोग दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में करते रहना चाहिए। श्रम और मनोयोग के सम्मिश्रण से होने वाले लाभों को जानना चाहिए और आलस्य प्रमाद से उत्पन्न होने वाली हानियाँ समझनी चाहिएँ, अपने काम को पूरी तत्परता, दिलचस्पी के साथ करने का अभ्यास डालें। यही स्वभाव ‘भजन में मन लगाने का भी आधार हो सकता है। जो लोग लापरवाही, उदासी एवं उपेक्षापूर्वक अपने काम करते हैं उनका भजन भी उसी प्रकार का होगा। भजन भी एक काम है और उसमें मन लगाना इस बात पर निर्भर है कि काम में मन लगाने की आदत है या नहीं। भजन में मन लगाने की पृष्ठ−भूमि विस्तृत है इसके लिए पूरी कार्य−पद्धति को ही नये ढाँचे में ढालना होगा और दिलचस्पी तथा तत्परतापूर्वक काम करने की आदत विकसित करनी पड़ेगी। इस दिशा में जितनी चेष्टा होगी उसी अनुपात से प्रत्येक कार्य में मन लगेगा—साथ ही भजन में भी। हर काम की उपेक्षा और उदासी से करने वाले लोग मात्र भजन में ही मन लगाने की अपेक्षा रखेंगे तो उन्हें निराश ही होना पड़ेगा।

एकाग्रता की स्थिति समय साध्य है, उसके लिए धैर्य और प्रयत्नपूर्वक बहुत समय तक अभ्यास करते रहने की आवश्यकता होगी। वह स्थिति न आये तो भी उतना हर्ज नहीं, जितना समझा जाता है। आत्मिक प्रगति के लिए मन की दिशा और धारा बदल देने की आवश्यकता है, उतने भर से ‘चित्त−वृत्ति निरोध’ की योग आवश्यकता पूरी होने लगती है।

‘प्रेय’ की लिप्सा ‘श्रेय’ की आकाँक्षा में बदली जानी चाहिए। पेट प्रजनन भर के लिए जीने में संलग्न पशुस्तरीय प्रवृत्ति को बदल कर आत्मा को परमात्मा स्तर तक विकसित करने की देव स्तरीय प्रवृत्ति में प्रवेश करना चाहिए। आकाँक्षाएँ बदल जाने से मन की विचारणा और शरीर की कार्य−पद्धति में काया−कल्प प्रस्तुत हो जायगा। प्रेय की निरर्थकता और श्रेय की सार्थकता में विश्वास बढ़ चले तो उसका प्रभाव कल्पना क्षेत्र तक सीमित न रहकर व्यावहारिक जीवन के हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगेगा।

जीवन का लक्ष्य समझा जाना चाहिए और प्रगति की दिशा अपनाई जानी चाहिए। निरुद्देश्य जीने से हवा के साथ−साथ उड़ते फिरने वाले पत्तों जैसी दुर्गति होती है। वे यत्र−तत्र−सर्वत्र भटकते भर हैं, पहुँचते कहीं नहीं—पाते कुछ नहीं। जीवन का सुनिश्चित लक्ष्य अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करना—आत्मा को परमात्मा स्तर तक पहुँचाना ही है। उसे जितनी जल्दी समझा और अपनाया जा सके उतना ही उत्तम है। शरीर रक्षा और परिवार पोषण के लिए उपार्जन तथा व्यवस्था संबंधी कार्य भी किये जाने चाहिएं किन्तु उतने भर में सीमित न हो बैठा जाय। यह ध्यान पूरी गम्भीरतापूर्वक रखा जाना चाहिए कि सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर किसी विशेष उद्देश्य के लिए मिला है और उसे पूरा करने में ही दूरदर्शी बुद्धिमत्ता है। अन्तःकरण में यह तथ्य निरन्तर जागृत बना रहे तो समझना चाहिए कि उपयुक्त जीवन दिशा मिल गई और उसके प्रकाश में सद्भावनाएँ अपनाये रहने तथा सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने की धारा बह चलेगी। एक दिशा, एक लक्ष्य, एक आकांक्षा, एक प्रेरणा यदि निश्चित हो जाय तो फिर शरीर और मन को उसी ओर चल पड़ने की बात बन जाती है और धीरे−धीरे चलते रहने पर भी देर सवेर में मनुष्य वहाँ जा पहुँचता है जहाँ पहुँचा देख कर उसका साथी चमत्कार हुआ या देवता का वरदान मिला मानने लगता है।

आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली यही सड़क है। श्रेय की प्राप्ति को लक्ष्य मानकर चलने से चित्त वृत्तियों में पूर्व की अपेक्षा असाधारण परिवर्तन हो जाता है। निकृष्टता उत्कृष्टता की दिशा में उलट पड़ती है इसी ऊर्ध्व गमन को चित्तवृत्ति निरोध कहा जाता है पतनोन्मुख पशु−प्रवृत्तियाँ जब उत्थान की दिशा में देव प्रवृत्तियों का रूप बना लेती हैं तो उस स्थिति को योग स्थिति कह सकते हैं। गीता में योगी की गतिविधियों का स्वरूप बताते हुए कहा है कि—“जब लोग सोते रहते हैं तब वह जागता है।” “जब लोग सोते हैं तब योगी जागता है।” इस रहस्यवाद के पीछे यही तथ्य छिपा है कि लोक प्रवाह में पशु प्रवृत्तियों की ही प्रधानता है। संसार में भोगी लोगों का ही बाहुल्य है। उन्हीं की रीति, नीति, सलाह एवं परम्परा अपनाने से योगी का काम नहीं चल सकता। उसे अपने चिन्तन और कर्तृत्व का ढाँचा विवेक के सहारे खड़ा करना पड़ता है। यह लगभग लोक प्रचलन में बहुत करके विपरीत ही बैठता है। लोग उसे मूर्ख कहते हैं और वह लोगों को मूर्ख समझता है। स्वतंत्र चिन्तन और लोक प्रवाह में भारी अन्तर रहता है। इस रस्साकशी कुसंस्कारी चित्तवृत्तियां योगवाद का ही समर्थन करती हैं। इस प्रवाह को आत्मिक साहस के बल पर उलटने का नाम ‘चित्तवृत्ति निरोध’ है। यही योगी का प्रबल पुरुषार्थ माना जाता है।

एकाग्रता का अभ्यास क्रमशः होता है और वह समय साध्य है। इसलिए उसमें उतावली बरतने की—आतुरता प्रदर्शित करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। निरन्तर जीवन लक्ष्य का ध्यान रखा जाय तो उस धारा प्रवाह को ‘एक दिशा’ कहा जा सकता है और उससे एकाग्रता का वास्तविक प्रयोजन पूरा हो सकता है।

ध्यान धारणा में एक बिन्दु पर मन एकाग्र करने की बात बहुत आगे की है। पहले तो साकार ध्यान में साकार की ध्यान प्रतिमाएँ बनानी पड़ती हैं। निराकारवादी भी सूर्य आदि का कोई न कोई रूप बनाते हैं अथवा नादयोग में विभिन्न शब्दों को सुनते हैं रूप या शब्द का ध्यान करने के माध्यम से एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है। पर विचारपूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि उस ध्यान प्रक्रिया में भी बिखराव ही बिखराव भरा पड़ा है। इष्टदेव की प्रतीक छवि में उनके अंग−प्रत्यंग वस्त्र−आभूषण, आयुष, वाहन आदि का बड़ा आवरण रहता है और उस विस्तृत क्षेत्र में यहाँ से वहाँ उड़ते फिरने की मन को पूरी छूट रहती है। ईष्टदेव यदि शिव हैं तो ध्यान करते समय साधक को छूट है कि वह उनके शिर पर टंगे चन्द्रमा का, गंगा के उद्भव का, लिपटे हुए सर्पों का, कटिप्रदेश में पहने व्याघ्र चर्म का, गले की मुण्डमाला का, नंदी वाहन की छवि देखे और उस सीमित ध्यान क्षेत्र में कहीं ही दौड़ लगाता रहे। फिर यह एकाग्रता कहाँ हुई?

निराकारवादी प्रायः सूर्य किरणों का शरीर के रोम−रोम में प्रवेश करने का अथवा चित्र−विचित्र ध्वनियाँ सुनने का अभ्यास करते हैं। इसमें भी चिन्तन विस्तार का उतना ही क्षेत्र विद्यमान है जितना साकारवादी मान्यताओं में। जब मन को इतनी दौड़−धूप करने और इतने भिन्न प्रकार के अनुभव करने की छूट रही तो वह एकाग्रता कैसी बनी?

वस्तुतः जिसे हम एकाग्रता कहते हैं वह सब चित्त की भाग दौड़ को असीम से रोककर एक सीमित क्षेत्र में प्रतिबन्धित करना है। मन बार−बार भागता है और उसे पकड़−पकड़ कर बार−बार निश्चित ध्यान परिधि में लाया जाता है। यही प्रयोग चलता रहता है पूर्ण एकाग्रता समाधि अवस्था है और वह पूर्णता तक जा पहुँचने पर ही मिलती है। उसके लिए किसी को भी अधीर नहीं होना चाहिए।

हजार बार इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि पूर्ण एकाग्रता साधना काल की आरम्भिक प्रक्रिया या आवश्यकता किसी भी दृष्टि से नहीं है। उसके लिए न तो लालायित होना चाहिए न खिन्न। प्रयत्न करते रहना भर पर्याप्त है। मीरा, सूर, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस आदि भक्तजनों की भावस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे एकाग्रता नहीं तन्मयता प्राप्त कर सके और उसी में उनका लक्ष्य मिल गया। भक्त सम्प्रदाय में प्रणय, वियोग, अश्रुपात, समर्पण आलिंगन जैसे भावोन्मादों की घटाएँ ही उमड़ती रहती हैं। उस मनःस्थिति में एकाग्रता किसी भी प्रकार संभव नहीं। यदि एकाग्रता ही सर्वोपरि रही होती तो भक्तजनों पर हर घड़ी छाया रहने वाले भावोन्माद तथा उसके उभार में उठने वाले हास्य, रोदन, नृत्य, अवसाद आदि कि उद्विग्नता लक्ष्य प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा बन गई होती, पर ऐसा हुआ नहीं है।

यहाँ एकाग्रता का महत्व घटाया नहीं जा रहा है और न उसे त्याज्य या उपेक्षणीय कहा जा सकता है। एकाग्रता की उपयोगिता में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए इतने पर भी सर्वसाधारण के मन में जमी हुई इस भ्रान्ति का निराकरण होना ही चाहिए कि—“सृजन में मन लगाना अर्थात् चित्त का एकाग्र होना आवश्यक है, वह है, तो भजन की सफलता—नहीं है तो असफलता” इस चिन्तन को हटाकर यों सोचना चाहिए कि ‘चित्त निरोध’ नहीं ‘चित्तवृत्तियों का निरोध’ आवश्यक है। एकाग्रता नहीं ‘एक दिशा’ अभीष्ट है। यदि ऐसा बन पड़े तो समझना चाहिए कि योग साधना की सही पृष्ठभूमि बन चली।

समूची ब्रह्म सत्ता को समझा जा सकना मनुष्य की छोटी बुद्धि के लिए असम्भव है। ब्रह्माण्ड बहुत बड़ा है; उसका विस्तार हमारी कल्पना शक्ति से बाहर है। अपनी पृथ्वी पर प्रकृति की जो कार्य पद्धति है, अन्य लोकों में उससे भिन्न है। पृथ्वी के प्राणधारियों की आकृति प्रकृति चिन्तन एवं जीवन यापन पद्धति में आकाश पाताल जैसा अंतर है। फिर अन्य लोकवासी चैतन्य प्राणियों की रीति−नीति के बारे में तो कहा ही क्या जा सकता है? समूचा ब्रह्म न तो हमारी समझ में भी आ सकता है और न उसे समझने की आवश्यकता है। मानवी चेतना के साथ ब्रह्म चेतना का जितना अंश संबंधित है उस भाग को ईश्वर या परमेश्वर कहते हैं। हमारे आनन्द एवं उत्थान में उसी की भूमिका रहती है। अस्तु साधना के लिए उसी छोटी−ब्रह्म परिधि के साथ हमारा सम्पर्क मिला लेना पर्याप्त माना गया है। उपासना का केन्द्र बिन्दु यह ईश्वर ही रहता है।

ब्रह्म एक है। अनेक रूपों में देवी−देवताओं की मान्यता से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वे एक दूसरे से पृथक एवं स्वतंत्र हैं। परमेश्वर असंख्य शक्तियों का भण्डार है। उसकी जिस क्षमता के साथ हमारा विशेष आकर्षण या लगाव होता है; उसी को प्रधान मानकर चलने से अभीष्ट शक्ति तत्व की अधिक मात्रा अपनी ओर आकर्षित करने का अवसर मिलता है। सूर्य की धूप में अल्ट्रावायलेट—अल्फावायलेट आदि अनेकों विशेष गुणों वाली क्षमताएँ सन्निहित रहती हैं। वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से शेष किरणों के समूह में से छाँट कर अपने लिए आवश्यक किरणों को ही पकड़ा और प्रयोग में लाया जा सकता है। ब्रह्म को सूर्य और उसी असंख्य किरणों को असंख्य देवता माना जा सकता है। जो अभीष्ट हो उस पर उपासना केन्द्रित की जा सकती है। सरस्वती विद्या की—लक्ष्मी समृद्धि की—दुर्गा बलिष्ठता की देवी हैं। गणेश बुद्धि के, हनुमान बल के, सूर्य तेज के, शिव कल्याण के, विष्णु वैभव के, ब्रह्म सद्ज्ञान के देवता हैं। अन्यान्य देवी देवताओं के संबंध में भी यही बात है। यह सब एक ही विराट् ब्रह्म के अवयव मात्र हैं। उसी में घुले हैं। अपनी श्रद्धा, संकल्प शक्ति और उपासना प्रक्रिया को एकत्रित करके साधना रत होने से उनका स्वतंत्र अस्तित्व भासने लगता है। ध्यान की सुविधा के लिए इन शक्ति तत्वों का मनुष्याकृति वाला शरीर भी कल्पित किया गया है। पूर्व मान्यताएँ और साधनात्मक निष्ठाएँ मिलकर उस प्रकार की प्रतिमा का स्वरूप वस्तुतः सामने ले आती हैं और वह ‘इष्टदेव’ साधक की सहायता के लिए प्रस्तुत दीखने लगता है। साधक का व्यक्तित्व और संकल्प इस भाव निर्मित इष्टदेव में प्राण फूँकता है। उस उपास्य में साधक के स्तर के अनुरूप ही शक्ति होती है। दुर्बल मनःस्थिति वाले साधक के इष्टदेव मात्र छाया जैसा आभास देकर तिरोहित हो जाते हैं। जब कि प्राणवान साधक का वही इष्टदेव प्रचण्ड सामर्थ्य का परिचय देता है।

आवश्यकतानुसार विशेष सूक्ष्म शक्ति उपार्जन करने के लिए अमुक देवी−देवताओं की उपासना की भी खण्ड साधना भी की जा सकती है, पर अपना अनुभव और परामर्श यह है कि समग्र ब्रह्म की साधना ही सर्वोत्तम है। आहार वही आदर्श माना जाता है जिसमें पोषण के सभी तत्व मौजूद हों। प्रोटीन कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, अकेले उसी को खाना लाभदायक न रहेगा। अमुक देवता की उपासना अकेली प्रोटीन, अकेली कैल्शियम खाने की तरह है। आवश्यकता पड़ जाने पर चिकित्सा उपचार की तरह कोई विशेष तत्व अमुक मात्रा में लिया जाता है, इसी प्रकार विशेष प्रयोजन के लिए कोई देव−साधना उपयोगी हो सकती है, पर सर्वतोमुखी प्रगति के लिए—सर्वकालिक साधना समग्र ब्रह्म की ही होनी चाहिए।

कई तरह के देवी−देवताओं की—कई प्रकार की आकृतियों का संग्रह करने में ध्यान बँटता है और निष्ठा विकेन्द्रित होती है। पूजा−स्थली एवं ध्यान−प्रक्रिया में चित्र−विचित्र, साज−सज्जा इकट्ठी इसलिए की जाती है कि कई देवता कई तरह के वरदान देंगे और सभी से थोड़ा−थोड़ा संबंध बना रहने से पंचमेल स्वाद मिलेगा और कई तरह के लाभ होंगे। पर यह मान्यता उपासना क्षेत्र में उलटी बैठती है। ध्यान और निष्ठा को केन्द्रित रखना उपासना का महत्वपूर्ण आधार है। उसे बखेरना नहीं चाहिए। बहुत देवताओं के जंजाल में “सात मामाओं का भानजा भूखा रहता है” वाली कहावत चरितार्थ होती है। गायत्री उपासना की प्राचीन परिपाटी में प्रातःकाल हंसारुढ़ा ब्राह्मी−मध्याह्न को गरुड़ा रुढ़ा वैष्णवी—सायं वृषभारुढ़ा शांभवी की भिन्न आकृतियों का ध्यान बताया गया है। हमने एक ही रूप को पर्याप्त माना है और अपनी ही भाँति परामर्श मानने वालों को एक ही ध्यान के लिए अनुरोध किया है। सविता देवता के रूप में परब्रह्म की उपासना सर्वोत्तम है। ‘प्रकाश’ की साधना साकार और निराकारवादी दोनों ही पक्षों के लिए समाधान कारक है। सभी धर्म सम्प्रदायों ने किसी न किसी रूप में प्रकाश ध्यान की महत्ता स्वीकार की है। इसलिए उसे सार्वभौम भी कह सकते हैं। गायत्री मन्त्र का देवता सविता है। छवि स्थूल, विचारणा सूक्ष्म, भावना कारण इन तीनों का समन्वय करते हुए अपना उपास्य सद्ज्ञान रूपी सूर्य हो, उसकी किरणों में गायत्री मन्त्र की सदाशयता और अंतराल में अनन्य प्रेम से ओत−प्रोत मातृ सत्ता की झाँकी की जा सकती है। इस ध्यान में तीनों शरीरों की आवश्यकता पूरी कर सकने जैसे सभी तथ्य विद्यमान हैं। साकार, निराकार का भी इसमें समन्वय है। उच्चस्तरीय उपासना के लिए यही ध्यान प्रतिमा सर्वोत्तम समझी गई है। इस अंक में इसी दृष्टि से वह चित्र दिया गया है और अपेक्षा की गई है कि ध्यान तथा पूजन के लिए उच्च कक्षा के छात्रों को यही अपनाना चाहिए। सामान्य कक्षाओं के लिए हंसारूढ़ गायत्री माता की पुरानी छवि का उपयोग करते रहना ही ठीक है। गायत्री को विराट् ब्रह्म की प्रतीक प्रतिमा मानकर ही चलना चाहिए उसमें उन सभी देव शक्तियों का सन्तुलित समन्वय मौजूद है जो साधक की भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है।

यहाँ यह बात पूरी तरह ध्यान में रखने की है कि आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ा जाना ही योग का एकमात्र लक्ष्य है। इसके लिए चित्त−वृत्तियों का निरोध, दिशा परिवर्तन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। आखिर आत्मा और परमात्मा को मिलाने की भूमिका तो चित्त को ही सम्पादित करनी है वह अन्य दिशा में उलझा रहेगा तो लक्ष्य प्राप्ति मार्ग पर बढ़ चलना किसके सहारे संभव होगा? यदि चित्त की अस्त−व्यस्तता सुव्यवस्था में बदली जा सके तो समझना चाहिए कि वह प्रयोजन पूरा होने ही वाला है जिसके लिए विविध विधि साधनात्मक कर्मकाण्ड करने की आवश्यकता पड़ती है।


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