साधना- अपने आपे को साधना

January 1976

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विश्रृंखलित-अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त स्थिति में भी कुछ न कुछ उत्पादन-विकास तो होता है, पर वह किस गति से- कि क्रम से और किस दिशा में चलेगा यह नहीं कहा जा सकता। कँटीले झाड़-झंखाड़ जंगलों में उगते हैं और बेढंगी रीति से छितराते हुए उस क्षेत्र की भूमि को कंटकाकीर्ण बना देते हैं। इसके विपरीत माली की देख-रेख में सुनियोजित ढंग से लगाये गये पौधे सुरम्य उद्यान बनकर फलते-फूलते हैं। पौधों को क्रमबद्ध रूप से लगाने और उनको निरन्तर सँभालने वाली माली की सजग कर्त्तव्य-निष्ठा उस की साधना है जिसका प्रतिफल उसे सम्मान तथा अर्थ लोभ के रूप में- पौधों का हरे-भरे, फले-फूले सौन्दर्य के रूप में तथा सर्व साधारण को छाया, सुगन्ध, फल, सुषमा आदि के रूप में उपलब्ध होता है। माली की उद्यान साधना सर्वतोमुखी सत्परिणाम ही प्रस्तुत करती है।

मानवी व्यक्तित्व एक प्रकार का उद्यान है। उसके साथ अनेकों आत्मिक और भौतिक विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं। उनमें से यदि कुछ को क्रमबद्ध, व्यवस्थित और विकसित बनाया जा सके तो उनके स्वादिष्ट फल खाते-खाते गहरी तृप्ति का आनन्द मिलता है। पर यदि चित्तगत वृत्तियों और शरीरगत प्रवृत्तियों को ऐसे ही अनियन्त्रित छोड़ दिया जाय तो वे भोंड़े, गँवारू एवं उद्धत स्तर पर बढ़ती हैं और दिशा विहीन उच्छृंखलता के कारण जंगली झाड़ियों की तरह उस समूचे क्षेत्र को अगम्य एवं कंटकाकीर्ण बना देती हैं।

जीवन कल्प-वृक्ष की तरह असंख्य सत्परिणामों से भरा-पूरा है। पर उसका लाभ मिलता तभी है जब उसे ठीक तरह साधा, सँभाला जाय। इस क्षेत्र की सुव्यवस्था के लिए की गई चेष्टा को साधना कहते हैं। कितने ही देवी-देवताओं की साधना की जाती है और उससे कतिपय वरदान पाने की बात पर विश्वास किया जाता है। इस मान्यता के पीछे सत्य और तथ्य इतना ही है कि इस मार्ग पर चलते हुए अन्तःक्षेत्र की श्रद्धा को विकसित किया जाता है। आदतों को नियन्त्रित किया जाता है। चिन्तन प्रवाह को दिशा विशेष में नियोजित रखा जाता है और सात्विक जीवन के नियमोपनियमों का तत्परता पूर्वक पालन किया जात है। इन सबका मिला-जुला परिणाम व्यक्तित्व पर चढ़ी हुई दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने तथा सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने में सहायक सिद्ध होता है। सुसंस्कारों का अभिवर्धन प्रत्यक्षतः दैवी वरदान है। उसके मूल्य पर हर व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में अग्रसर को सकता है और उत्साहवर्धक सत्परिणाम प्राप्त कर सकता है।

साधना आत्मिक क्षेत्र में भी होती है और भौतिक क्षेत्र में भी। कदम जिस भी दिशा में बढ़ते हैं प्रगति उसी ओर होती है। अपनी सतर्कता पूर्ण सुव्यवस्था जिस भी मार्ग पर गतिशील कर दी जाय उसी में एक के बाद एक सफलता के मील पत्थर मिलते चले जायेंगे।

साधना का महत्व किसान जानता है। पूरे वर्ष अपने खेत की मिट्टी के साथ अनवरत गति से लिपटा रहता है और फसल को स्वेद कणों से नित्य ही सींचता रहता है। सर्दी−गर्मी की परवाह नहीं—जुकाम−खाँसी की चिन्ता नहीं। शरीर की तरह ही खेत उसका कर्म क्षेत्र होता है। एक−एक पौधे पर नजर रहती है। खाद−पानी, निराई, गुड़ाई से लेकर रखवाली तक के अनेकों कार्य करने से पूर्व वह उनकी आवश्यकता समझता है और किसी के निर्देश से नहीं अपनी गति से ही निर्णय करता है कि कब, क्या और कैसे किया जाना चाहिए। किसी के दबाव से नहीं—अपनी इच्छा और प्रेरणा से ही उसे खेत की, उसे संभालने वाले बैलों की, हल, कुदाल आदि संबंधी उपकरणों की व्यवस्था जुटाये रहने की सूझ−बूझ सहज ही उठती और स्वसंचालित रूप से गतिशील होती रहती है। यह सब होता है बिना थके, बिना ऊबे, बिना अधीर हुए। आज का श्रम कल ही फलप्रद होना चाहिए इसका आग्रह उसे तनिक भी नहीं होता। फसल अपने समय पर पकेगी—तब तक उसे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा ही करनी होगी यह जानने के कारण अनाज की ढेरी कोठे में भरने की आतुरता भी उसे नहीं होती। इतने मन अनाज निश्चित रूप से होना ही चाहिए, इसके लंबे−चौड़े मनसूबे बाँधना भी उसे अनावश्यक प्रतीत होता है। मनोयोग पूर्वक सतत् श्रम की साधना चलती ही रहती है, विघ्न अवरोध न आते हों सो बात भी नहीं—उनसे भी जैसे बनता है निपटता रहता है, पर उपेक्षा कभी भी खेत की नहीं होती। उसकी आवश्यकता पूरी किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। समयानुसार फसल पकती भी है। अनाज भी पैदा होता है। उसे ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ घर ले जाता है। कितने मन अनाज पैदा होना है यह कभी सोचा ही नहीं तो फिर असन्तोष का कोई कारण भी नहीं। जो मिला उसे ईश्वरीय उपहार समझा गया। यही है किसान की साधना जिसे वह होश संभालने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त सतत् निष्ठा के साथ चलाता ही रहता है। न विश्राम, न थकान, न ऊब, न अन्यमनस्कता। साधना कैसे की जाती है और साधक को कैसा होना चाहिए यह किसान से सीखा जा सकता है।

अपनी जन्म−जात ईश्वर प्रदत्त अनेकानेक अद्भुत किन्तु प्रसुप्त विशेषताओं और विभूतियों को जागृत करना भी अध्यात्म साधनाओं का लक्ष्य है। उसमें लगता भर ऐसा है मानो बाहर के किसी देवी−देवता को प्रसन्न करने के लिए अनुनय विनय की, भेंट उपहार की, गिड़गिड़ाहट भरी दीनता की, अभिव्यक्ति की जा रही है और साधक उसी का ताना−बाना बुनता है। पर वस्तुतः ऐसा कुछ होता नहीं। देवी−देवताओं को अपने निजी कार्य उत्तरदायित्व और झंझट भी तो कम नहीं होंगे। हमारी ही तरह वे भी अपने निजी गोरख−धन्धे में लगे होंगे। जब हमें अपने थोड़े से सगे−संबंधियों की सहायता ठीक तरह करते नहीं बन पड़ती तो असंख्य भक्त उपासकों की चित्र−विचित्र मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए दौड़े−दौड़े फिरना उनके लिए भी कठिन ही पड़ेगा और वे सम्भवतः उतना कर भी न पायेंगे जितनी कि अपेक्षा की जाती है।

साधना का क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे पड़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसंपन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्म−सम्मान क्यों गँवाया जाय? भीतरी विशिष्ट क्षमताओं को ही तत्वदर्शियों ने देवी−देवता माना है और बाह्योपचारों के माध्यम से अन्तः संस्थान के भांडागार को करतलगत करने का विधि−विधान बताया है। शारीरिक बल वृद्धि के लिए डम्बल, मुद्गर उठाने घुमाने जैसे कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। बल इन उपकरणों में कहाँ होता है? वह तो शरीर की मांस पेशियों से ही उभरता है। उस उभार में व्यायामशाला के साधन−प्रसाधन सहायता भर करते हैं। उनसे मिलना कुछ नहीं। जो मिलना है वह भीतर से ही मिलना है। ठीक यही बात आत्म−साधना के संबंध में भी कही जा सकती है। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त होने वाले देवी−देवता एवं विधि−विधान अपनी जेब से कुछ नहीं देते। साधक की निष्ठा भर पकाते हैं उसे कार्य−पद्धति भर सिखाते हैं। इतने का अभ्यस्त बनना ही साधनात्मक कर्मकाण्डों का प्रयोजन है। इतने भर से बात बन जाती है और राह मिल जाती है। साधक अपनी मूर्छना जगाकर उज्ज्वल भविष्य की असीम सम्भावनाएं स्वयं जगा लेता है।

आत्म−चेतना की जागृति ही साधना विज्ञान का लक्ष्य है। इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्तव्य का बिखराव रोककर अभीष्ट प्रयोजन के केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रीभूत करना पड़ता है। इसके लिए अपनी गति विधियाँ लगभग उसी स्तर की रखनी पड़ती हैं जैसे कि भौतिक क्षेत्र में सफलताएँ पाने वाले लोगों को अपनानी होती हैं।

किसान का उदाहरण ऊपर दिया गया है इन्हीं गतिविधियों को प्रत्येक महत्वपूर्ण सफलताएं पाने वाला व्यक्ति अपनाता है। विद्वान को विद्या की प्राप्ति चुटकी बजाने भर से—किसी जादू मन्त्र से नहीं हो जाती। इसके लिए उसे पाँच वर्ष की आयु से अध्ययन साधना का शुभारम्भ करना पड़ता है और स्कूल के घण्टे तथा घर पर अभ्यास का समय मिलाकर प्रतिदिन लगभग छह घण्टे का मानसिक श्रम करना पड़ता है। इस श्रम में जितनी एकाग्रता, अभिरुचि तथा तन्मयता होती है, उसी अनुपात से प्रगति होती है। परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होना इसी मनोयोग तथा उत्साहपूर्ण परिश्रम पर अवलम्बित रहता है। विद्वान समझा जाने वाला व्यक्ति बालकपन से आरम्भ किये अध्ययन क्रम को स्नातक बन जाने पर भी समाप्त करके चुप नहीं बैठा है, वरन् अपनी रुचि के विषयों को पढ़ने के लिए अनेकानेक ग्रन्थों को घण्टों तक पढ़ते रहने का स्वभाव बनाये रहा है। आज वह विद्वान समझे जाने पर भी अध्ययन से विरत नहीं हुआ है। उसकी रुचि घटी नहीं है। इस ज्ञान साधना से यों उसे धन भी मिलता है और सम्मान भी। पर इससे बड़ी उपलब्धि है उसका आत्म−सन्तोष। ‘स्वान्तः सुखाय’ उद्देश्य को ध्यान में रखकर वह भले−बुरे दिनों में—हारी−बीमारी में भी—अन्तः प्रेरणा से किसी न किसी प्रकार पढ़ने के लिए समय निकालता रहता है। इसके बिना उसे अन्तःतृप्ति ही नहीं मिलती। आत्म−साधक की मनःस्थिति भी यही होनी चाहिए। उसे सिद्धि के लिए लालायित रहकर अपनी तन्मयता में व्यवधान उत्पन्न नहीं करना चाहिए वरन् साधना को किसी अध्ययन प्रिय की तरह ‘स्वान्तः सुखाय’ ही अपनाना चाहिए। परिणाम तो हर भले−बुरे कर्म का होता है फिर कोई कारण नहीं कि आत्म−साधना जैसे महान प्रयोजन में संलग्न होने का कोई प्रतिफल उपलब्ध न हो।

व्यायामशाला में नित नये उत्साह के साथ जूझते रहने वाले पहलवान की मनःस्थिति और गतिविधि का यदि गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया जाय तो आत्म साधना के विद्यार्थी को विदित हो सकता है कि उसे आखिर करना क्या पड़ेगा? पहलवान मात्र कसरत करके ही निश्चित नहीं हो जाता वरन् पौष्टिक भोजन की, संयम ब्रह्मचर्य की, तेल मालिश की, उपयुक्त दिनचर्या की, प्रसन्नता निश्चिन्तता की भी व्यवस्था करता है। यदि उन सब बातों की उपेक्षा की जाय और मात्र दंड बैठकों को ही जादू की छड़ी मान लिया जाय तो सफलता दूर की चीज ही बनी रहेगी। एकाकी कसरत से कुछ भला न हो सकेगा। उपासनात्मक विधि−विधान की अपनी महत्ता है, पर उतने भर से ही काम नहीं चलता। चिन्तन और कर्तृत्व की रीति−नीति भी लक्ष्य के अनुरूप ही ढालनी पड़ेगी।

गायक और वादक एक दिन में अपने विषय में पारंगत नहीं हो जाते, उन्हें स्तर की, नाद की साधना नित्य निरन्तर करनी पड़ती है। ‘रियाज’ न किया जाय तो गायक का स्वर छितराने लगता है और वादक की उँगलियाँ जकड़−मकड़ दिखाने लगती हैं। संगीत सम्मेलन तो यदा−कदा ही होते हैं, पर वहाँ पहुँचने पर सफलता का श्रेय देने वाली स्वर साधना को नित्य ही अपनाये रहना पड़ता है। गीत सुनने वालों ने कितनी प्रशंसा की और कितनी धन राशि दी यह बात गौण रहती है। संगीत साधक, आत्म−तुष्टि की नित्य मिलने वाली प्रसन्नता को ही पर्याप्त मानता है और बाहर से कुछ भी न मिले तो भी वह एकान्त जंगल की किसी कुटिया में रहकर भी आजीवन बिना ऊबे संगीत साधना करता रह सकता है। आत्म−साधक की मनः−स्थिति इतनी तो होनी ही चाहिए।

नर्तक, अभिनेता अपना अभ्यास जारी रखते हैं। शिल्पी और कलाकार जानते हैं कि उन्हें अपने प्रयोजन के लिए नित्य नियमित अभ्यास करना चाहिए। फौजी सैनिकों को अनिवार्य रूप से ‘परेड’ करनी पड़ती है। अभ्यास छूट जाने पर न तो गोली का निशाना ठीक बैठता है और न मोर्चे पर लड़ने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता पड़ती है वह हाथ रहता है। किसी विशेष प्रयोजन के लिए नियत संख्या तथा नियत अवधि की साधना से किसी पूजा प्रयोजन का संकल्प लेने वाला समाधान हो सकता है पर आत्म−साधक को इतने भर से सन्तोष नहीं मिलता। वह जानता है कि प्यास बुझाने के लिए रोज ही कुँए से पानी खींचना पड़ता है और सफाई रखने के लिए रोज ही कमरे को बुहारना पड़ता है। मानवी सत्ता की स्थिति भी ऐसी ही है, उसकी हीरों भरी खदान को हर दिन खोदना, कुरेदना चाहिए। तभी नित्य नये उपहार मिलने सम्भव होंगे। शरीर को स्नान कराना , दाँत माँजना , कपड़े धोना नित्य कर्म है। उसकी उपेक्षा नहीं हो सकती। संसार का विक्षोभ भरा वातावरण हर किसी की अन्तःचेतना को प्रभावित करता है। उसकी नित्य सफाई न की जाय तो क्रमशः गन्दगी बढ़ती ही चली जायगी और अन्ततः कोई बड़ी विपत्ति खड़ी करेगी।

शरीर को जीवित और सुसंचालित रखने के लिए दो कार्य आवश्यक हैं एक भोजन, दूसरा भय त्याग। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं हो सकती। भोजन न किया जाय तो पोषण के लिए नितान्त आवश्यक रस रक्त की नई उत्पत्ति न होना और पुराने संचित रक्त की पूँजी समाप्त होते ही काया दुर्बल होकर मृत्यु के मुख में चली जायगी। इसी प्रकार मल त्याग न करने पर नित्य उत्पन्न होते रहने वाले विष जमा होते और बढ़ते चले जायेंगे और उनका विस्फोट अनेक उपद्रवों के रूप में प्रकट होकर कष्टकारक मृत्यु का आधार बनेगा। पञ्च भौतिक शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर की दिव्य−चेतना की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी भूख लगती है। उस पर भी मैल चढ़ते हैं और सफाई की आवश्यकता पड़ती है, इन दोनों प्रयोजनों को पूरी करने वाली प्रक्रिया साधन कही जाती है। उससे सत्प्रवृत्तियों को जगाकर वह सब उगाया, पकाया जा सकता है जिससे आत्मा की भूख बुझती है और जीवन भूमि में हरी−भरी फसल लहलहाती है। साधना से उन मलीनताओं का—मनोविकारों का निष्कासन होता है जो प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर अड़े रहते हैं और पग−पग पर व्यवधान उत्पन्न करते हैं।

साबुन और पानी से कपड़ा धोया जाता है और धूप में सुखा देने पर वह भकाभक दीखने लगता है। उसे पहनने वाला स्वयं गौरवान्वित होता है और देखने वालों को उस सुरुचि पर प्रसन्नता होती है। साधन में प्रयुक्त होने वाली आत्म−शोधन और आत्म−निर्माण की उभय−पक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धँसे−फँसे कुसंस्कारों को उखाड़ कर उनकी जगह आम्र वृक्ष लगती है। कँटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने और स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होने का दुहरा लाभ मिलता है। संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने माने गये हैं, उन सबसे बढ़कर आत्म देव है। उसकी साधना प्रत्यक्ष है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कभी भी—किसी की भी—निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके और विधिवत् साधना की जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस और कल्प−वृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती है।

सधाने से सामान्य स्तर के प्राणी आश्चर्यजनक कार्य करके दिखाते हैं। बन गये मनुष्य को पास भी नहीं आने देतीं ओर खेतों को उजाड़ कर रख जाती हैं, पर जब वे पालतू हो जाती हैं तो दूध, बछड़े गोबर आदि बहुत कुछ देती हैं। स्वयं सुखी रहती है और उसके पालने वाले भी लाभान्वित होते हैं यही बात अन्य वन्य पशुओं के बारे में लागू होती है। जंगली घोड़े, कुत्ते, सुअर, हाथी आदि स्वयं भूखे मरते, कष्ट उठाते और अनिश्चित जीवन जीते हैं। फालतू बन जाने पर वे स्वयं निश्चिन्ततापूर्वक रहते हैं और अपने पालने वालों को लाभ पहुँचाते हैं। अपने भीतर शरीर तथा मन− क्षेत्र में एक से एक बढ़कर शक्तिशाली धाराएँ प्रवाहित होती हैं। वे निरुद्देश्य और अनियन्त्रित स्थिति में रहकर वन्य पशुओं जैसी असंगत बनी रहती हैं। फलतः विकृत होकर वे सड़ी दुर्गन्ध की तरह अपने समूचे प्रभाव क्षेत्र को विषैला बना देती हैं। आग जहाँ भी रहती है वहीं जलाती है, तेजाब की बोतल जहाँ भी फैलती है वहीं गलाती है। विकृत प्रवृत्तियाँ छितराई हुई आग और फूटी तेजाब की बोतल की तरह हैं, उनसे केवल विनाश ही सम्भव होता है। यह दोनों ही वस्तुएँ यदि सुनियोजित रखी जा सकें तो उनसे उपयोगी लाभ मिलते हैं और वे इतने बढ़े−बढ़े होते हैं कि सामान्य दीखने वाला मनुष्य पग−पग पर अपनी असामान्य स्थिति का परिचय देता है। साधना जीवन के बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों में सुसंस्कारित सुव्यवस्था उत्पन्न करने का नाम है। इसे समझ पाने और कर पाने का प्रतिफल, जंगली जानवरों को पकड़ कर पालतू बनाने की कला में प्रवीण व्यवसाइयों जैसा ही प्राप्त होता।

सरकस के जानवर कितने आश्चर्यजनक करतब दिखाते हैं। देखने वाले बाग−बाग हो उठते हैं। इन बंधे जानवरों को प्रशंसा मिलती है—प्रतिष्ठा होती है और अच्छी खुराक मिलती है। सधाने वाले और सिखाने वालों को अच्छा वेतन मिलता है और सरकस के मालिकों को उन्हीं जानवरों के सहारे धनवान बनने का अवसर मिलता है जो उच्छृंखल होने की स्थिति में स्वयं असन्तुष्ट रहते और दूसरों को रुष्ट करते थे।

घरेलू उपयोग में आने वाले जानवर भी बिना सिखाये, सधाये अपना काम ठीक तरह कहाँ कर पाते हैं। बछड़ा युवा हो जाने पर भी अपनी मर्जी से हल, गाड़ी आदि में चल नहीं पाता। घोड़े की पीठ पर सवारी करना, उसे दुरकी चाल चलाना सहज ही संभव नहीं होता। ऊँटगाड़ी, ताँगा, बैलगाड़ी में जुतने वाले पशु अपने आप चलने नहीं लग जाते उन्हें कठिनाई से प्यार, फटकार के सहारे—धीरे−धीरे बहुत दिन में इस योग्य बनाया जाता है कि अपना काम ठीक तरह अंजाम देने लगें। साधना इसी का नाम है। इन्द्रियों के समूह को—मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय को वन्य पशुओं से समकक्ष गिना जा सकता है। अपने स्वाभाविक रूप में यह सारा ही चेतना परिवार उच्छृंखल होता है। जन्म−जन्मान्तरों के पाशविक कुसंस्कारों की मोटी परत उस पर जमा होती है। उसे उतारने के लिए जिस खराद का उपयोग किया जाता है उसे साधना कह सकते हैं। पशुता को परिष्कृत करके उसे मनुष्यता के—देवत्व के रूप में विकसित करना, अनगढ़ पत्थर को कलात्मक प्रतिमा के रूप में गढ़ देने के सदृश एक विशिष्ट कौशल है। इस प्रवीणता में पारंगत होने का नाम ही आत्म−साधना है। पशुओं को प्रशिक्षित करने और पत्थर से मूर्तियाँ बनाने की तरह कार्य कुछ कठिन तो है—पर है ऐसा जिसमें लाभ ही लाभ भरा पड़ा है।

कठपुतली नचाने वाले, हाथ की सफाई से बाजीगरी के कौतुक दिखाने वाले, बन्दर और रीछ का तमाशा करने वाले, जादूगर जैसे लगते हैं और उन्हें चमत्कारी समझा जाता है। यह चमत्कार और कुछ नहीं किसी विशेष दिशा में तन्मयतापूर्वक धैर्य और उत्साह के साथ लगे रहने का प्रतिफल मात्र है। ऐसा चमत्कार कौतूहल प्रदर्शन से लेकर किसी भी साधारण असाधारण कार्य में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करने के रूप में कभी भी, कहीं भी देखा जा सकता है। अपनी ईश्वर प्रदत्त विशेषताओं को उभारने और महत्वपूर्ण प्रयोजन में नियुक्त करने का नाम साधना है। साधना का परिणाम सिद्धि के रूप में सामने आता है। यह नितान्त स्वाभाविक और सुनिश्चित है। यदि अपने आपे को साधा जाय−व्यक्तित्व को खरादा जाय तो वह सब कुछ प्रचुर परिमाण में अपने ही घर पाया जा सकता है, जिसकी तलाश में जहाँ-तहाँ मारे−मारे फिरना और मृग−तृष्णा की तरह निराश भटकना पड़ता है।


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