जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ

January 1976

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ब्रह्म सूक्ष्म और प्रकृति स्थूल है। जीव सूक्ष्म और काया स्थूल है। चिन्तन को सूक्ष्म और क्रिया को स्थूल कहा जा सकता है। इस युग्म समन्वय से ही यौगिकों, रासायनिक पदार्थों, तत्वों एवं निर्जीव अणुओं से बने पदार्थों की शोभा-सुषमा दृष्टिगोचर होती। भौतिकी अत्यन्त कुरूप, कर्कश और निष्ठुर है, उसे जीवन्त बनाने का भार तो कला ही वहन करती है।

शरीर क्या? मल-मूत्र से भरा और हाड़-मांस से बना घिनौना किन्तु किन्तु चलता-फिरता पुतला। जीव क्या है- आपाधापी में निरत, दूसरों को नोंच खाने की कुटिलता में संलग्न- चेतना स्फुल्लिंग। जीवन क्या है- एक लदा हुआ भार जिसे कष्ट और खीज के साथ ज्यों-त्यों करके वहन करना पड़ता है। बुलबुले की तरह एक क्षण उठना और दूसरे क्षण समाप्त हो जाना यही है जीवन की विडम्बना; जिसे असन्तोष और उद्वेग की आग में जलते-बलते गले में बाँधे फिरना पड़ता है। स्थूल तक ही सीमित रहना हो तो इसी का नाम जीवन है पेट और प्रजनन ही इसका लक्ष्य है। लिप्सा और लोलुपता की खाज खुजाते रहना ही यहाँ प्रिय प्रसंग है। आत्म-रक्षा, अहंता, मुक्ति की आतुरता, स्वामित्व की तृष्णा यही हैं वे सब मूल प्रवृत्तियाँ जिनसे बँधा हुआ प्राणी कीट-मरकट की तरह नाचता देखा जाता है। स्थूल जीवन को यदि देखना, परखना हो तो इन प्रपंचना प्रवंचना के अतिरिक्त यहाँ और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। भूल-भुलैयों की उलझनें इतनी पेचीदा होती हैं कि उन्हें सुलझाने का जितना प्रयत्न किया जाता है उलटे उतनी ही कसती चली जाती है। रोते जन्म लेता है और रुलाते हुए विदा होता है- यही है वह सब जिसे हम जीवन के नाम से पुकारते हैं।

वस्तुतः जीवन इतना तुच्छ, जटिल और घिनौना है नहीं। उसकी यथार्थता का मूल्यांकन करने के लिए थोड़ा गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा। समुद्र की ऊपरी सतह पर तो कूड़ा-करकट, झागफेन, काई शैवाल लहरों की उठक-पटक के अतिरिक्त और कुछ नहीं पाया जा सकता। रत्न राशि तो समुद्र तल में पड़ी होती है। उसे पाने के लिए गहराई में उतरने वाले गोताखोरों जैसा कौशल और साहस सँजोना पड़ता है।

चेतना का स्थूल क्षेत्र पदार्थ- परिस्थिति और आतुरता भरी हलचलों में देखा जा सकता है। यह पशु जीवन है और प्रत्येक प्राणी को समान रूप से उपलब्ध है। जिसे जिस स्तर की काया मिली है वह उतने में ही अपने ढंग से रोता-गाता, गुजर कर लेता है। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है। क्रिया में दौड़-धूप की उत्तेजना भर है, नशे में भी उत्तेजना होती है और कई लोग उसे भी आनन्द और सन्तोष का माध्यम बना लेते हैं। समझना एक बात है और यथार्थता दूसरी। कुछ को कुछ भी समझा जा सकता है, पर उस भ्रान्ति से बनता तो कुछ नहीं। स्थिति तो स्थिति ही रहती है। आनन्द सूक्ष्म में है। क्रिया से नहीं विचारणा से हमारा समाधान होता है और भावना की गहराई में उतरने से आनन्द का निर्झर फूट पड़ता है। यदि समाधान- तृप्ति एवं सन्तोष अभीष्ट हो तो क्रियाशील रहते हुए भी हमें ज्ञानवान बनना पड़ेगा। ज्ञान का आश्रय लिए बिना, दिग्भ्रान्त स्थिति में आशंका और उद्विग्नता ही छाई रहेगी। शान्ति तो समाधान में है; वह समाधान सद्ज्ञान का आश्रय लिए बिना अन्य किसी आधार पर हो नहीं सकता।

क्रिया स्थूल है और ज्ञान सूक्ष्म। क्रिया तक सीमित न रहकर, तत्व चिन्तन की गहराई में उतरने के प्रयत्न में, हमें चैन और सन्तोष मिलता है। एक परत इससे भी गहरी है- जिसे अन्तरात्मा कहते हैं। यहाँ आस्थाएँ रहती हैं। अपने सम्बन्ध में, प्रिय और अप्रिय के, उचित और अनुचित के, आदतों और प्रचलनों के, पक्ष और सिद्धान्तों के सम्बन्ध में अनेकानेक मान्यताएँ; इसी केन्द्र में गहराई तक जड़ें जमाये बैठी रहती हैं। व्यक्तित्व का समूचा ढाँचा, यहीं विनिर्मित होता है। मस्तिष्क और शरीर को तो व्यर्थ ही दोष या श्रेय दिया जाता है। वे दोनों ही वफादार सेवक की तरह हर आत्मा की ड्यूटी ठीक तरह बजाते रहते हैं। उनमें अवज्ञा करने की कोई शक्ति नहीं। आस्थाएँ ही प्रेरणा देती हैं और उसी पैट्रोल से धकेले जाने पर जीवन स्कूटर के दोनों पहिये- चिन्तन और कर्तृत्व सरपट दौड़ने लगते हैं। व्यक्तित्व क्या है- आस्था। मनुष्य क्या है- श्रद्धा। चेष्टाएँ क्या हैं- आकांक्षा की प्रतिध्वनि। गुण, कर्म स्वभाव अपने आप ने बनते हैं न बिगड़ते हैं। आस्थाएँ ही आदतें बनकर परिपक्व हो जाती हैं तो उन्हें स्वभाव कहते हैं। अभ्यासों को ही गुण कहते हैं। कर्म आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए शरीर और मन को संयुक्त रूप से जो श्रम करना पड़ता है, उसी को कर्म कहते हैं। इन तथ्यों को समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तित्व के स्तर और उसकी प्रतिक्रिया के रूप में आने वाले सुख-दुःखों की अनुभूति होती रहती है। प्रसन्नता और उद्विग्नता को यों परिस्थितियों के उतार-चढ़ावों से जोड़ा जाता है, पर वस्तुतः वे मनःस्थिति के सुसंस्कृत और अनगढ़ होने के कारण सामान्य जीवन में नित्य ही आती रहने वाली घटनाओं से ही उत्पन्न अनुभूतियाँ भर होती हैं। कोई घटना न अपने आप में महत्वपूर्ण है और न महत्व हीन। यहाँ सब कुछ अपने ढर्रे पर लुढ़क रहा है। सर्दी-गर्मी की तरह भाव और अभाव का, जन्म-मरण और हानि-लाभ का क्रम चलता रहता है। हमारे चिन्तन का स्तर ही उनमें कभी प्रसन्नता अनुभव करता और कभी उद्विग्न हो उठता है। अनुभूतियों में परिस्थितियाँ नहीं, मनःस्थिति की भूमिका ही काम करती है।

जीवन के सफेद और काले पक्ष को समझ लेने के उपरान्त, सहज ही यह प्रश्न उठता है कि- क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि परिस्थितियों के ढाँचे में ढले- लोक-प्रवाह में बहते हुए, संग्रहीत कुसंस्कारों से प्रेरित, वर्तमान अनगढ़ जीवन को; अपनी इच्छानुसार- अपने स्तर का फिर से गढ़ा जाय और प्रस्तुत निकृष्टता को उत्कृष्टता में बदल दिया? उत्तर ‘ना’ और ‘हाँ’ दोनों में दिया जा सकता है। ‘ना’ उस परिस्थिति में जब आन्तरिक परिवर्तन की उत्कट आकांक्षा का अभाव हो और उसके लिए आवश्यक साहस जुटाने की उमंगें उठती न हों। दूसरों की कृपा सहायता के बलबूते उज्ज्वल भविष्य के सपने तो देखे जा सकते हैं, पर वे पूरे कदाचित ही कभी किसी के होते हैं। बाहरी, दैवी और संसारी सहायताएँ मिलती तो हैं, पर उन्हें पाने के लिए पात्रता की अग्नि-परिक्षा में गुजरते हुए अपनी प्रामाणिकता का परिचय देना पड़ता है। उतना झंझट सिर पर उठाने का मन न हो- सहज ही कुछ इधर-उधर की ‘हथफेरी’ करके भौतिक सम्पदाएँ, आत्मिक विभूतियाँ पाने के लिए जी ललचाता भर हो तो कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व को महामानवों के स्तर पर गठित करना और उसके फलस्वरूप उच्चस्तरीय सिद्धियाँ प्राप्त कर सकना एक प्रकार से असम्भव ही है। उत्तर नकारात्मक समझा जा सकता है।

‘हाँ’ उस स्थिति में कहा जा सकता है जबकि साधक में यह विश्वास उभरा हो कि वह अपना स्वामी आप है- अपने भाग्य का निर्माण कर सकना उसके अपने हाथ की बात है। दूसरों पर न सही अपने शरीर और मन पर तो अपना अधिकार है ही और उसका अधिकार का उपयोग करने में किसी प्रकार का कोई व्यवधान या हस्तक्षेप कहीं से भी नहीं हो सकता। मन की दुर्बलता ही है जो ललचाती, भ्रमाती और गिराती है। तनकर खड़ा हो जाने पर भीतरी और बाहरी सभी दबाव समाप्त हो जाते हैं और अभीष्ट दिशा में निर्भयता एवं निश्चिन्तता के साथ बढ़ा जा सकता है। समुद्र की गहराई में उतर कर मोती ढूँढ़ने में विशिष्ट प्रकार के साधन एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जीवन समुद्र की गहराई में उतर कर एक से एक बहुमूल्य रत्न ढूँढ़ लाना सरल है। इसमें किसी बाहरी साधन या उपकरण की जरूरत नहीं- मात्र प्रचंड संकल्प शक्ति चाहिए। प्रचंड का तात्पर्य है धैर्य और साहस का उतनी मात्रा में समन्वय जिससे संकल्प के डगमगाते रहने की बाल बुद्धि उभर आने की आशंका न हो। स्थिर बुद्धि से सतत् प्रयत्न करते रहने और फल प्राप्ति में देर होते देखकर अधीर न होने की- वरन् दूने उत्साह से प्रयत्न करने की सजीवता जहाँ भी होगी वहाँ सफलता पैर चूमने के लिए सामने हाथ जोड़े- वहाँ सिर झुकाये खड़ी होगी। ऐसे मनस्वी व्यक्ति अपने को, अपने वातावरण को यहाँ तक कि; अपने प्रभाव क्षेत्र को काया-कल्प की तरह बदल सकने में सफल हो सकते हैं। जीवन परिष्कार की भविष्यवाणी करते हुए ऐसे ही लोगों की सफल सम्भावना को ‘हाँ’ कहकर आश्वस्त किया जा सकता है।

आत्मोत्कर्ष की आकांक्षा बहुत लोग करते हैं, पर उसके लिए न तो सही मार्ग जानते हैं और न उस पर चलने के लिए अभीष्ट सामर्थ्य एवं साधन जुटा पाते हैं। दिग्भ्रान्त प्रयासों का प्रतिफल क्या हो सकता है? भटकाव में भ्रमित लोग लक्ष्य तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं? आज की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि आत्म-विज्ञान का न तो सही स्वरूप स्पष्ट रह गया है और न उसका क्रिया पक्ष- साधन विधान ही निर्भ्रान्त है। इस उलझन में एक सत्यान्वेषी जिज्ञासु को निराशा ही हाथ लगती हैं।

हमें यहाँ अध्यात्म के मौलिक सिद्धान्तों को समझना होगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व में से अनगढ़ तत्वों को निकाल बाहर करना और उसके स्थान पर उस प्रकाश को प्रतिष्ठापित करना है जिसके आलोक में जीवन को सच्चे अर्थों में विकसित एवं परिष्कृत बनाया जा सके। इसके लिए मान्यता और क्रिया क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत करने पड़ते हैं। वे क्या हों, किस प्रकार हों, इसका शिक्षण थ्योरी और प्रेक्टिस के दोनों ही अवलम्बन साथ-साथ लेकर चलना होता है। थ्योरी का तात्पर्य है वह सद्ज्ञान, वह आस्था विश्वास जो जीवन को उच्चस्तरीय लक्ष्य की ओर बढ़ चलने के लिए सहमत कर सके। इसे आत्मज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान, तत्वज्ञान और सद्ज्ञान के नामों से जाना समझा जाता है- योग इसी को कहते हैं। ब्रह्म विद्या का तत्त्वदर्शन यही है। प्रेक्टिस- का तात्पर्य है वे साधन विधान जो हमारी क्रियाशीलता को दिशा देते हैं और बताते हैं कि जीवनयापन की रीति-नीति क्या होनी चाहिए और गतिविधियाँ किस क्रम से निर्धारित की जानी चाहिए? साधनात्मक क्रिया कृत्यों का यह उद्देश्य समझ लिया जाय तो फिर किसी को भी न तो अनावश्यक आशा बाँधनी पड़ेगी और न अवांछनीय रूप से निराश होना पड़ेगा।

यह तथ्य हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि जीवन का परम श्रेयस्कर और शान्तिदायक उत्कर्ष आस्थाओं के परिष्कार- चिन्तन के निखार एवं गतिविधियों के सुधार पर निर्भर है। जीवन इन्हीं तीन धाराओं में प्रवाहित होता है। शक्ति के स्रोत इन्हीं में भरे पड़े हैं और अद्भुत उपलब्धियाँ उन्हीं में से उद्भूत होती हैं। इन्हें किस आधार पर सुधारा, सँभाला जाय इसकी एक विशिष्ट पद्धति है जिसे साधना कहते हैं। साधना का अर्थ है अपने अन्तरंग और बहिरंग को उच्चस्तर तक उठा ले चलना। इसे जीवन का अभिनव निर्माण एवं व्यक्तित्व का काया-कल्प भी कह सकते हैं। बोलचाल की भाषा में इसे योगाभ्यास तपश्चर्या कहते हैं।

चेतना का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण देने को योग समझा जाय। क्रिया-कलाप में सुव्यवस्था का आरोपण तप माना जाय। इसके लिए कई तरह के प्रयोगात्मक अभ्यास करने पड़ते हैं। पहलवान बनने के लिए अखाड़े में जाकर छोटी-छोटी कसरतों का सिलसिला शुरू करना पड़ता है। कसरतों की खिलवाड़ और दंगल में कुश्ती पछाड़ कर यशस्वी होना दो अलग स्थितियाँ हैं, पर दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। बीज का बोने का शुभारम्भ कालान्तर में विशाल वृक्ष बनकर सामने आता है। पूजा-उपासना और स्वाध्याय मनन जैसे उपचार बीजारोपण की तरह हैं जो खाद पानी, निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि की चिरकाल तक अपेक्षा करते हैं और समयानुसार कल्प-वृक्ष बनकर मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाते हैं। आन्तरिक दृष्टि से आनन्द विभोर और बहिरंग दृष्टि से श्रद्धा का पात्र बना हुआ भूदेव यह अनुभव करता है कि आत्म-विज्ञान ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ है।


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