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January 1976

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भयं क्रोधमथालस्यम् अतिस्वप्नातिजागरम्। अत्याहारमनाहारं नित्यं योगी विवर्जयेत्॥

अनेन विधिना सम्यक् नित्यमभ्यस्यते क्रमात्। स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं त्रिभिर्मासैन संशयः॥

—अमृतनादोपनिषद 27−28

योग साधक भय, अधिक निद्रा, अधिक भोजन, अधिक जागरण, निराहार रहना और क्रोध करना छोड़ दे। नित्य नियमित रूप से साधनारत योगसाधक ही ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करता है।

यद्दुस्तरं यद्दुरापं यद्दुर्गं यंच दुष्करम्। सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्॥

—मनु0 11।238

जो दुस्तर, जो दुराव (कठिनता से प्राप्य है) है, जो दुर्गम है, जो दुष्कर है वह सब कुछ तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है क्योंकि तप से मनुष्य प्रत्येक कठिनता को पार कर सकता है।


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