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January 1976

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ब्रह्मै वास्मीति सद्वृत्या निरालंबतया स्थितीः। ध्यान शब्देन विख्याता परमानन्ददायिनी॥ निर्विकारतया वृत्या ब्रह्माकारतया पुनः। वृत्ति विस्मरणं सम्यक् समाधितान संज्ञकः॥

—अ॰ भू॰ 123-124

जप भी एक प्रकार की प्रतीक उपासना ही है, जप के लिए जो नाम अथवा मन्त्र लिया जाता है, इसलिए उसमें भी ब्रह्म दृष्टि रखकर जप करना चाहिए। जप करते−करते यदि शरीर में कम्प, रोमाँचादि होने लगे, तो समझना चाहिए कि मंत्र चेतन हो गया।


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