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January 1976

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न तस्य मृत्युर्न जरा न व्याधिः। प्राप्तं हि योगाग्निमयं शरीरम्॥

अर्थ—अर्थात् जिसने योगाग्निमय शरीर प्राप्त कर लिया वह जरा मृत्यु और व्याधि के पाश से मुक्त हो जाता है।

नीवार शूकवत् शुक्र ज्योर्वितर्श्य वत्क्वचित्। चन्द्र वच्चाणुवत्सूक्ष्मं प्रादेश परिमाणवत्॥

खद्योतवच्च स्फटिकसदृशस्तारवत्क्वचित्। नीलज्योतिः क्वचित् रक्तज्योतिः शुभ्रद्युतिःक्चचित्॥

विविध ज्योतिरन्यत्र ज्योतिषां ज्योतिरेव सः। अभिव्यक्ति करा एवं आकारा ब्रह्मणि स्थिता॥

ज्योतिरेव पर ब्रह्म ज्योतिरेव परं सुखम्। ज्योतिरेव परा शान्तिर्ज्योतिरेव परं पदम्॥

—महायोग विज्ञान

यह आत्मा−ज्योति किसी को शुक्र के तारे के समान, किसी को सूर्य, चन्द्र, अग्नि अथवा अणु जैसी प्रतीत होती है। जुगनू, स्फटिक मणि अथवा मोती की तरह यह चमकती है। कभी नील ज्योति, कभी रक्त ज्योति, कभी श्वेत यह विभिन्न आकृतियों की दीखती है। यह सब अंतःकरण में विद्यमान ब्रह्म का अभ्यास कराती है। यह आत्म−ज्योति परब्रह्म है। यही परम सुख है। इसी से परम पद और परम शान्ति की प्राप्ति होती है।


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