प्रतीक उपासना की पार्थिव पूजा के कितने ही कर्मकाण्डों का प्रचलन है। तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक शोभायात्रा, श्रद्धाँजलि, रात्रि-जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियाँ विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित है। इससे आगे का अगला स्तर वह है जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकाँश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करना पड़ता है। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।
उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत तीन कृत्य आते हैं । (1) जप (2) ध्यान (3) प्राणायाम। न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं तीन का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन तीन वर्गों के ही अंग−प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है।
साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति, संवेदना, भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरियावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का —परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलने की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुँचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन, समाधि स्थिति, कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बालबुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है, प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। शरीर को सत्कर्मों में और मन को सद्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर सके।
समयानुसार उस अन्तिम स्थिति की—कालेज पाठ्यक्रम की भी—शिक्षा उपलब्ध हो जाती है। ऐसी दिव्य सत्ताएँ इस संसार में मौजूद हैं जो पात्रता के तालाब को बादलों की तरह बरस कर सदा भरापूरा रखने को अयाचित सहायता प्रदान कर सकें। हमें शरीर के जड़ और मन के अर्ध चेतन स्तरों को परिष्कृत बनाने में ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। साधना विज्ञान की दौड़ इन्हीं दो क्षेत्रों के विकास में सहायता करने वाले विधि-विधान बनाने में केन्द्रीभूत है। इतना बन पड़े तो अगली बात निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त दिव्य चेतना के प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन पर छोड़ी जा सकती है। अपना आपा ही इतना ऊंचा उठ जाता है कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से ऊपर निकल जाने के बाद राकेट जिस प्रकार अपनी यात्रा अपने बल-बूते चलाने लगते और अमुक कक्षा बनाकर भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार स्वयमेव आत्म साधना का शेष भाग पूरा हो सकता है।
आत्मोत्कर्ष की जिन कक्षाओं का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पाठ्यक्रम सीखने, सिखाने की आवश्यकता पड़ती है वे चिन्तन की उत्कृष्टता एवं कर्तृत्व की आदर्शवादिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी उपेक्षा करके मात्र कर्मकाण्डों के सहारे कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लग सकती। व्यक्तित्व को अमुक विधि-विधानों के सहारे ऊँचा उठाने की शिक्षा की किंडरगार्डन शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले मनोरंजन उपकरणों से तुलना की जा सकती है, जो बच्चे के अविकसित मस्तिष्क में अमुक जानकारी को ठीक तरह जमाने में सहायता करती है। पहलवानी में सफलता पाने वाले डंबल, मुद्गर आदि उपकरणों का सहारा लेकर अपनी बल की वृद्धि करते हैं। ऊँचा चढ़ने के लिए लाठी की और जल्दी पहुँचने के लिए वाहन की जरूरत पड़ती है। यह उपकरण बहुत ही उपयोगी और आवश्यक हैं, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वतन्त्र रूप से कोई जादुई शक्ति से सम्पन्न नहीं है। स्वस्थ शरीर को बलिष्ठ बनाने में वे सहायता भर करते हैं। ठीक यही स्थिति उपासना क्षेत्र में फैले हुए अनेकानेक कर्मकाण्डों की है।
स्थूल शरीर को प्रभावित करने वाली तपश्चर्या और प्रतीक पूजा के साथ जुड़े हुए क्रिया-कृत्यों की चर्चा पिछले लेख में हो चुकी है। सूक्ष्म शरीर के संशोधन में जप, ध्यान और प्राणायाम इन तीन का प्रयोग करना पड़ता है। संप्रदाय भेद से कोई इनमें से एक को कोई दो को प्रधानता देते हैं। कहीं−कहीं अंतर भेद से इन तीनों का प्रचलन है। हमारी दृष्टि में अन्न, जल और वायु के त्रिविधि जीवन पोषणों की तरह मानसिक विकास में इन तीनों की ही आवश्यकता है और उन तीनों परतों का संशोधन करने के लिए कुर्ता, धोती और जूते की तरह इन तीनों की ही एक साथ आवश्यकता पड़ती है। यह समन्वित साधना गंगा, यमुना और सरस्वती का त्रिवेणी संगम बनकर अपने भीतर ही जीवन्त तीर्थराज उत्पन्न करती है।
जप द्वारा उस परमेश्वर को पुकारना ही अध्यात्म ही है जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़ कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं—अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर−उधर छिप जाने पर उन्हें ढूंढ़ने के लिए म्याऊँ−म्याऊँ करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसके ढूंढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।
गज की एक टाँग ग्राह के मुँह में चली गई थी। गज पानी से बाहर निकलना चाहता था और ग्राह उसे भीतर घसीटता था। दोनों में से हारता भी कोई नहीं था। इस खींचतान में हाथी को भारी कष्ट हो रहा था। न मरते बनता था न जीते। निदान गज ने भगवान को पुकार लगाई। उनका नाम हजार बार लिया तब भगवान उसे बचाने आये थे। द्रौपदी ने भरी सभा में लाज जाते देखकर भगवान को पुकारा था और वे उसे आश्वस्त करने आये थे। अज्ञानाँधकार में भटकने वाले जीव की स्थिति गज से भी गई बीती है। गज की एक टाँग को एक मगर खा रहा था। यहाँ काम, क्रोध, मद, मत्सर रूपी चार ग्राह दोनों हाथ, दोनों पैर, सिर और धड़ इन छहों अवयवों को खाये जा रहे हैं।
द्रौपदी का तो शरीर ही निर्वस्त्र हो रहा था, पर आत्मा की शालीनता का आवरण उतरता जाने से उसका बहिरंग और अंतरंग दोनों ही लज्जास्पद बनते चले जा रहे हैं। ऐसी दशा में गज रूपी मन और आत्मा रूपी द्रौपदी का भगवान को पुकारना उचित ही है। जप में भगवत् नाम की रट पतन के गर्त में से हाथ पकड़ कर ऊपर उबारने के लिए ही लगाई जाती है।
सीता चोरी चली गई थीं। राम उन्हें ढूंढ़ने के लिए वृक्षों से, पक्षियों से, पर्वतों से पूछते फिरते थे कि आप लोगों ने कहीं सीता को देखा हो तो बताओ। वे ऐसे ही सीता−सीता की पुकार लगाते थे ताकि वे उधर कहीं हों तो मिल जायं। विछोह की वेदना उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर रही थी। मनुष्य अपनी आत्मा को खो बैठा है और सीता को गँवा कर वियोग विह्वल राम की तरह नाम की रट लगाता है। जप का एक उद्देश्य यह भी है।
परमात्मा की दिव्य चेतना के अभाव में मनुष्य नर−पशु, नर−कीटक मात्र बनकर रह जाता है। पञ्च तत्वों की काया में पेट और प्रजनन मात्र की दो आकाँक्षाएँ रहती हैं और वह उनकी पूर्ति के लिए वासना−तृष्णा में ग्रसित रह कर अचिन्त्य चिन्तन तथा अकर्म करने में निरत रहता है। आदर्शों को अपनाने के लिए न उसकी उत्कंठा जगती है और न चेष्टा होती है। सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते रहने वाले घिनौने कीड़ों की तरह उसे कुत्साओं और कुण्ठाओं की शोक संतापों की प्रताड़नाएँ सहन करते हुए सुर−दुर्लभ अवसर को रोते कलपते गंवाना पड़ता है। इस अंधकार में भटकने से त्राण पाने के लिए आत्मा प्रकाश को पुकारती है। यह प्रकाश भगवान ही हो सकता है। उसे पाने की आतुरता में जिन शब्दों का उच्चारण होता है, उसे नाम−जप कह सकते हैं।
यह सोचना व्यर्थ है कि भगवान का मन इतना ओछा है कि वे अपना नाम लेने वाले से—चापलूसी भरे शब्दोच्चार करने वाले से प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें नाम लेने न लेने से कोई वास्ता नहीं। वह दिव्यसत्ता तो केवल इतना ही देखती है कि जो काम सौंपे गये थे वे पूरे किये गये या नहीं। वे अनुशासन और कर्तव्य पालन भर की अपेक्षा मनुष्य से करते हैं और इसी कसौटी पर कस कर दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था करते हैं। उनका रोष और प्रेम ठीक विद्युत शक्ति की तरह है। बिजली का विधिवत् उपयोग करने वाले उससे तरह−तरह के लाभ उठाते हैं। रोशनी, पंखा, रेडियो, हीटर जैसे अनेक प्रयोजन पूरे करते हैं, किन्तु जो उसके खुले तार छूने की उच्छृंखलता बरतते हैं वे रोष के भाजन बनते और अपने प्राण गंवा बैठते हैं। भगवान का एक नाम ‘रुद्र’ भी है। रुद्र अर्थात् भयंकर अनीति बरतने वालों को वे बिना दया माया प्रदर्शित किये कस कर दण्ड भी देते हैं। नाम−जप की चापलूसी से ईश्वर को फुसला लेने और जो लाभ सन्मार्ग पर चलने वालों को मिलता है वही पूजा−पत्री से पा लेने की बात सोचना मूर्खतापूर्ण है। ईश्वर को इतना मूर्ख और ओछा नहीं समझा जाना चाहिए कि नाम लेने भर से किसी को भक्त मान ले और निहाल कर दे। उसका अनुग्रह तो व्यक्तित्व को परिष्कृत करने और सन्मार्ग पर चलने से ही सम्भव हो सकता है।
शरीर पर नित्य मैल चढ़ता है और उसे साफ करने के लिए नित्य स्नान करना पड़ता है। कपड़े नित्य मैले होते हैं और उन्हें रोज ही धोना होता है। कमरे में झाड़ू लगाना, दाँत माँजना, वालों में कंघी करना नित्य का काम है। मन पर नित्य ही वातावरण में उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है। उस मलिनता को धोने के लिए नित्य ही उपासना करनी पड़ती है। भगवत् स्मरण उपासना का प्रधान अंग है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण हमें होता है। ईश्वर को स्मृति पटल पर प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। स्मरण के आह्वान—आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ना मनोविज्ञान शास्त्र द्वारा समर्थित है।
चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है—शिक्षण—जिसे अँग्रेजी में ‘लर्निंग’ कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उन्हें तरह-तरह की जानकारियाँ दी जाती हैं उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता। विद्यार्थी उन्हें बार-बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने-याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े रटने पड़ते हैं। संस्कृत को तो रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार-बार दुहराये जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।
एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरान्त यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दंड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिए नित्य का ‘रियाज’ आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिए भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उँगलियाँ लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेगी।
शिक्षण की ‘लर्निंग’ भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। जप द्वारा अनभ्यस्त ईश्वरीय चेतना को स्मृति पटल पर जमाने की आवश्यकता होती है ताकि उपयोगी प्रकाश की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना हो सके। कुँए की जगत में लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। हमारी मनोभूमि भी इतनी ही कठोर है। एक बार कहने से बात समझ में तो आती है पर उसे स्वभाव की—अभ्यास की भूमिका तक उतारने के लिए बहुत समय तक दुहराने की आवश्यकता पड़ती है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान पड़ने की तरह ही हमारी कठोर मनोभूमि पर भगवत् संस्कारों का गहराई तक जम सकना संभव है।
शिक्षण की दूसरी परत है—‘रिटेन्शन’ अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है—‘री काल’ अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीनकर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है—‘रिकॉग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। निष्ठा आस्था—श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन संबंधों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तभी वह इधर−उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उंगलियों से बँधी कठपुतली के संबंध सूत्र टूट जायं तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे। कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यंत्र अपना काम करना बंद कर देते हैं। ईश्वर और जीव का संबंध सनातन है पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूंढ़ने और टूटे संबंधों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया ‘री काल’ है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका में ‘रिकॉग्नीशन’ में पहुँचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्वज्ञान की भाषा में ‘अयमात्मा ब्रह्म’—‘तत्वमसि’ सोहमस्मि—चिदानंदोऽहम्—शिवोऽहम् की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुँचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया−कलाप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और अनुभव की जा सकती है।
आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार−बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेती की जुताई कह सकते हैं। प्रहलाद की कथा है कि वे स्कूल में प्रवेश पाने के उपराँत पट्टी पर केवल राम नाम ही लिखते हैं। आगे की बात पढ़ने के लिए कहे जाने पर भी राम नाम ही लिखते रहे और कहते रहे। इस एक को ही पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है। युधिष्ठिर की कथा भी ऐसी ही है। अन्य छात्रों ने आगे के पाठ याद कर लिये, पर वे पहला पाठ ‘सत्यंवद’ ही रटते लिखते रहे। अध्यापक ने आगे के पाठ पढ़ने के लिए कहा तो उनका उत्तर यही था कि एक पाठ याद हो जाने पर दूसरा पढ़ना चाहिए। उनका तात्पर्य यह था कि सत्य के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता उत्पन्न हो जाने तक उसी क्षेत्र में अपने चिन्तन को जोते रहना चाहिए।
नाम जप में होने वाली पुनरावृत्ति के पीछे युधिष्ठिर और प्रहलाद द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का संकेत है। भगवानमय जीवन बनाने की स्थिति आने तक नाम स्मरण करते रहा जाना चाहिए। अन्तरात्मा द्वारा एक मन और दश इन्द्रियों को पढ़ाने के लिए खोली गई पाठशाला को उपासना कृत्य समझा जा सकता है। उसमें नाम जप की रटाई कराई जाती है ताकि यह छात्र वर्णमाला, गिनती पहाड़े, भली प्रकार याद कर सकें। एक ही विधान को लगातार दुहराते रहने के पीछे यही बाल शिक्षण की प्रक्रिया काम करती है।
कपड़े को देर तक रंग भरी नाद में डुबोये रहने से उस पर पक्का रंग चढ़ जाता है। चन्दन वृक्ष के समीप हुए झाड़−झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। गुलाब के फूल जिस मिट्टी पर टूट−टूट कर गिरते रहते हैं वह भी सुगंधित हो जाती है सान्निध्य का लाभ सर्वविदित है। सत्संग और कुसंग के भले−बुरे परिणाम आये दिन सामने आते रहते हैं। उपासना कृत्य भगवान की समीपता है, उसका सत्परिणाम सामने आये बिना नहीं रह सकता। कीट भृंग का उदाहरण प्रख्यात है।
जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि मंत्र गायत्री मंत्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमंत्र कहा गया है। अंत−चेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता उसे इसीलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।
जप का भौतिक महत्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझी समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेकानेक दिव्य क्षमताएँ चक्रों, ग्रन्थियों, भेद और उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं उनमें ऐसी सामर्थ्य विद्यमान हैं जिन्हें जगाया जा सके तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषताएँ प्राप्त हो सकती हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती है, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है।