जप से परिपोषण शक्ति का उद्भव और उपयोग

January 1976

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जप में शब्दों की पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारण का एक चक्र−व्यूह—सर्किल बनता है। क्रमिक परिभ्रमण से शक्ति उत्पन्न होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस परिभ्रमण से आकर्षण शक्ति तथा भूलोक में सन्निहित अनेक स्तर की क्षमताएँ उत्पन्न होती हैं। यदि पृथ्वी का परिभ्रमण बन्द हो जाय तो उस पर घोर नीरवता, निर्जीवता एवं अशक्तता छा जायगी । शक्ति उत्पादन के लिए परिभ्रमण कितना आवश्यक है। इसे ‘डायनेमो’ के प्रयोगकर्त्ता जानते हैं। घुमाव बन्द होते ही बिजली बनना बन्द हो जाती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर में विशिष्ट स्तर के विद्युत् प्रवाह उत्पन्न करने के लिए विशिष्ट शब्दों का—विशिष्ट गति एवं विधि से उच्चारण करना पड़ता है। मन्त्र जप का सामान्य विज्ञान यही है।

जप में एक शब्दावली को एक क्रम और एक गति से बिना विश्राम दिये गतिशील रखा जाता है। साधारण वार्तालाप में अनेकों शब्द अनेक अभिव्यक्तियाँ लिये हुए अनेक रस और भावों सहित उच्चारित होते हैं। अस्तु इनमें न तो एकरूपता होती है न एक गति। कभी विराम, कभी प्रवाह, कभी आवेश व्यक्त होते रहते हैं, पारस्परिक वार्तालाप में प्रतिपादन का एक केन्द्र या एक स्तर नहीं होता। अतएव उससे वार्ताजन्य प्रभाव भर उत्पन्न होता है, कोई विशिष्ट शक्तिधारा प्रवाहित नहीं होती। जप की स्थिति इसमें सर्वथा भिन्न है। उसमें सीमित शब्दावली ही प्रयुक्त होती है और वही लगातार बोली जाती रहती है। रेखागणित के विद्यार्थी जानते हैं कि एक रेखा यदि लगातार सीधी खींची जाती रहे तो वह अन्ततः उसी केन्द्र से आकर जुड़ जायगी, जहाँ से आरम्भ हुई थी। प्रत्येक गतिशील पदार्थ गोल हो जाता है। पृथ्वी गोल है। ग्रह−नक्षत्र सभी गोल हैं। भौतिक जगत का छोटा घटक परमाणु और चेतन जगत का छोटा घटक जीवाणु दोनों ही गोल हैं। गोलाई पर चलते रहा जाय तो उसका अंत आरम्भ वाले स्थान पर ही होगा। ग्रह−नक्षत्रों की भ्रमण कक्षाएं इसी आधार पर सुनिश्चित रहती हैं। सीधी रेखा में हम पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल पड़े तो—लौटकर वहीं आ जायेंगे, जहाँ से चले थे। इस सिद्धान्त के अनुसार मन्त्र−जप की परिणति एक गतिशील शब्द चक्र की स्थापना के रूप में होती है।

कहा जाता है कि बाल्मीक ऋषि ने उलटा मंत्र जपा था अर्थात् “राम−राम” के स्थान पर “मरा−मरा” कहा था। वस्तुतः यह सुनने समझने वालों का ही भ्रम रहा होगा। लगातार एक ही गतिक्रम से राम−राम कहते रहने पर उसकी गति गोल हो जायगी और उसे आसानी से मरा−मरा समझा जा सकेगा। इसी प्रकार मरा−मरा मन्त्र का संकल्प लेकर किया गया उच्चारण भी राम−राम प्रतीत होने लगेगा। असल में होता यह है कि एक शब्दावली को अनवरत गति से बोलने पर उसमें आदि अंत का भेद नहीं रहता, पूरी शब्दावली एक गोलाई में घूमने लगती है और शब्द−चक्र बनाती है। मन्त्र जप के विधान का निर्देश करते हुए “तैलधार वत्” सूत्र में कहा गया है कि जिस तरह तेल को एक गति से गिराने पर उसकी धारा बँध जाती है, उसी प्रकार मन्त्रोच्चारण का क्रम एक ही गति से चलाना चाहिए। न उसके प्रवाह क्रम में अन्तर आवे और न उच्चारण स्तर में। रुक−रुककर—कभी धीमे, कभी तीव्र कभी उच्च स्वर, कभी मन्द ऐसा जप में नहीं हो सकता । वेदमंत्रों के सस्वर उच्चारण की बात दूसरी है। वे छन्द हैं इसलिए पाठ करते समय उन्हें स्वरबद्ध अनुशासन का ध्यान रखते हुए गाया जाना अथवा पाठ करना उचित है। जप की व्यवस्था इससे सर्वथा भिन्न है। गायत्री, मृत्युंजय आदि वेद मंत्रों को भी जप करते समय स्वर रहित ही जपा जाता है, साथ ही धारा जैसी एक रस—एक सम गति बनाये रखी जाती है। इसमें कोई अंतर तो नहीं पड़ा इसकी जाँच−पड़ताल माला के आधार पर की गई गणना से होती है। गायत्री मन्त्र जप में साधारणतया एक घण्टे में 10-11 माला होती है। नित्य वही क्रम चला या नहीं, इसकी जाँच-पड़ताल घड़ी और माला के समन्वय से हो सकती है। प्रत्येक माला पूरी होने में समान समय लगना चाहिए तभी मन्त्र शक्ति का वैज्ञानिक आधार बन गया ऐसा समझा जा सकता है। भक्ति−विभोर होकर बिना गति का ध्यान रखे भी जप हो सकता है, पर वह भावनात्मक प्रक्रिया हुई उसका परिणाम भावना की शुद्धता और गहराई पर निर्भर है। ऐसे जप को शब्द−शक्ति के आधार पर उत्पन्न होने वाले मन्त्र−जप से भिन्न स्तर का समझा जाना चाहिए। ब्लडप्रेशर नापने की मशीन रोगी को बांह पर बाँधकर डॉक्टर घड़ी पर निगाह लगाये रहते हैं, हवा का दबाव बढ़ाते रहते हैं, कान में स्टेथिस्कोप से धड़कन गिनते रहते हैं, तभी वे समझ पाते हैं कि रक्त−चाप कितना है। घड़ी और माला गणना पर ध्यान लगाये रहकर नये साधक को अपने जप की गति को एक रस—एक सम बनाना पड़ता है। उतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि शब्द गति का चक्र बन गया और उसके आधार पर मन्त्र विज्ञान के विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होंगे। विशेष पुरश्चरणों में जप विद्या के निष्णात साधक इसीलिए बिठाये जाते हैं कि उनकी सही क्रम−प्रक्रिया, सही परिणाम उत्पन्न कर सके।

गति जब गोलाई में घूमने लगती है तो उससे उत्पन्न होने वाले चमत्कार हम अपने दैनिक जीवन में नित्य ही देखते रहते हैं। बच्चे छोटी ‘फिरकनी’ अथवा लट्टू जमीन पर घुमाने का खेल−खेलते हैं। एक बार होशियारी से घुमा देने पर यह खिलौने देर तक अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं और गिरते नहीं। जबकि गति चमत्कार ही है कि एक बार का धक्का देर तक काम देता है और उत्पन्न गति प्रवाह को देर तक चलते रहने की स्थिति उत्पन्न करता है। जप के द्वारा उत्पन्न गति भी साधना काल के बहुत पश्चात् तक चलती रहती है और साधक की आत्मिक विशेषता को गतिशील एवं सुस्थिर बनाये रहती है।

मशीनों का बड़ा पहिया ‘फ्लाईह्वील’ एक बार घुमा देने पर मशीन के अन्य पुर्जों को न केवल गतिशील ही करता है, वरन् उनकी चाल को नियन्त्रित भी करता है। आरी का उपयोग हाथ से आगे पीछे की गति से करने पर भी लकड़ी कटती तो है, पर यदि गोलाई में घुमा दिया जाय तो वही आरी कई गुनी शक्तिशाली सिद्ध होगी और अधिक मात्रा में—अधिक जल्दी कटाई कर सकेगी। आरा मशीनें यही करती हैं। वे मोटे-मोटे लट्ठे और कठोर जड़ें आसानी से चीर−चाकर रख देती हैं जबकि आगे पीछे करने पर उसी आरी के लिए वही लकड़ी काटना काफी पड़ता है। यह सब गोलाई में घूमने वाले गति प्रवाह का चमत्कार है।

तेजी के साथ गोलाई का घुमाव “सैन्ट्री फ्यूगल फोर्स” उत्पन्न करता है। गोफन में कंकड़ रखकर घुमाने और उसे छोड़कर पक्षी भगाने का कार्य पकी फसल रखाने के लिए किसानों को बहुधा करना पड़ता है। ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे खुले दाने की फसलों को अक्सर तोते, कौए खराब करने लगते हैं, तब यह गोफन घुमाकर कंकड़ फेंकने की प्रक्रिया रखवाली के काम आती है। यह घुमाव से उत्पन्न हुई शक्ति ही है जो कंकड़ को गोली जैसी गति के साथ दूर तक फेंकती है। वह कंकड़ इतनी तेजी पर होता है कि कोई पक्षी उसका निशाना बन जाने पर ढेर होकर ही रहता है।

देहाती मेलों में हवाई जहाज उड़ने अथवा घोड़े दौड़ाने का मजा देने वाले झूले आते हैं। बच्चे उन पर बैठकर मजा लेते हैं। यह झूले अक्सर इंजन या मोटर से चलते हैं। घुमाव पकड़ते ही नीचे लटकने वाले घोड़े या जहाज पंख फैलाने लगते हैं और चौड़े दायरे में घूमने लगते हैं। खड़े होने पर झूले का घेरा 30 फुट था तो तेजी से घूमने पर वह चाल के अनुपात से 70-80 फुट तक चला जाता है। फैलाव तो होता ही है और साथ ही बैठने की सीटें तिरछी हो जाने पर भी बच्चे गिरते नहीं। यहाँ तक कि तिरछेपन के कारण गिरने का डर भी उन्हें नहीं लगता और अनुभव करते हैं कि वे सीधे सड़क पर चल रहे हैं।

सरकसों में एक लकड़ी के घेरे पर मोटरसाइकिल घुमाने का खेल अक्सर देखा जाता है, इसे मौत का कुँआ कहते हैं। दर्शक चकित रह जाते हैं कि साइकिल सवार बिलकुल तिरछा घूम रहा है फिर भी गिरता नहीं।

लोटे में पानी भरा जाय, उसकी गरदन में रस्सी बाँधकर घुमाया जाय तो पानी उस लोटे में ही भरा रहेगा, गिरेगा नहीं।

घुमाव की शक्ति के यह आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम साधारणतया देखने में आते रहते हैं। जप के माध्यम से गतिशील शब्द शक्ति का प्रतिफल भी वैसा ही होता है। झूले पर बैठे बच्चों को जिस तरह अधिक बड़े दायरे में तेजी से घूमने का और गिरने की आशंका होने पर भी न गिरने का आनन्द मिलता है, उसी प्रकार अंतः चेतना की सीमा परिधि छोटी सीमा से बढ़कर कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र तक अपना विस्तार देखती है और दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों के कारण अधःपतन की जो आशंका रहती है, उसके बचाव की सहज सम्भावना बन जाती है। गोफन द्वारा फेंके गये कंकड़ की तरह साधक अभीष्ट लक्ष्य की ओर द्रुतगति से दौड़ता है और यदि फेंकने वाले के हाथ सधे हुए हैं तो वह ठीक निशाने पर भी जा लगता है। घुमाव की स्थिति में रहने पर तिरछा हो जाने पर भी लोटे का पानी नहीं फैलता। उसी प्रकार अपने भीतर भरे जीवन तत्व के संसार के अवाँछनीय आकर्षणों में गिर पड़ने का संकट घट जाता है। लोहा धीमे घुमाया गया हो तो बात दूसरी है, पर तेजी का घुमाव पानी को नहीं ही गिरते देता। जप के साथ जुड़ा विधान और भावना−स्तर यदि सही हो तो आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से आये दिन जूझने और कदम−कदम पर असफल होने की कठिनाई दूर हो जाती है।

मौत के कुँए में मोटरसाइकिल घुमाने वाला सवार तिरछेपन और दौड़ने के लिए स्थान कम होने के कारण संकट उत्पन्न होने की आशंका से बचा रहता है। जप−साधना का साधक भी प्रगति के मार्ग में उत्पन्न होते रहने वाले अनेक अवरोधों पर विजय प्राप्त करता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आगे बढ़ता चला जाता है।

औजारों से जो प्रयोजन सिद्ध होते हैं उनमें मात्र उन यन्त्रों, मशीनों, पुर्जों, उपकरणों का ही महत्व नहीं होता, उन्हें चलाने वाली शक्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता रहती है। मशीनें स्वसंचालित या कितनी भी कीमती क्यों न हो, बिजली, भाप की—हाथ की या अन्य किसी प्रकार की शक्ति उन्हें चलाने के लिए चाहिए ही, इसका प्रबंध न हो सका तो बहुमूल्य मशीनों से सुसज्जित कारखाने में भी कुछ उत्पादन न हो सकेगा। जप आदि कर्मकाण्डों को औजार, उपकरण, मशीन आदि कहा जा सकता है। साधक का व्यक्तित्व उसका चरित्र, लक्ष्य, दृष्टिकोण एवं भावना स्तर मिलकर चेतनात्मक शक्ति के रूप में परिणत होता है और उसका बल पाकर शारीरिक हलचल मात्र दीखने वाले कर्मकाण्डों में दिव्य चेतना का संचार होता है। इसी समन्वय के आधार पर साधना को सिद्धि बनने का अवसर मिलता है।


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