शरीर और मन का संचालन करने वाली उपासना।

January 1975

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नृतत्व विज्ञान अब एक से एक गहरी एवं रहस्यमय ऐसी परतों का उद्घाटन करता जा रहा है जिनसे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर की हरकतें स्वेच्छया संचालित नहीं है उनका नियन्त्रण कोई अतीन्द्रिय शक्ति करती है।

कुछ समय पूर्व रक्त माँस के पिण्ड को आहार विहार द्वारा संचालित माना जाता था और कहा जाता था कि रुग्णता एवं स्वस्थता का आधार आहार विहार है। पीछे मालूम पड़ा कि आहार शरीर रूपी इंजन को गरम बनाये रहने के लिए मात्र ईंधन का काम करता है। निर्जीव आहार को सजीव रक्त में परिणत करने की पूर्ति महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाएं पाचन यन्त्रों से संचित होने वाले रसों द्वारा सम्पन्न होती हैं स्वसंचालित मानव शरीर भोजन से मात्र ईंधन प्राप्त करता है। यदि ऐसा न होता तो दुम्बामेंढ़ा और सुअर के शरीर में इतनी बड़ी मात्रा में चर्बी कैसे जमा हो जाती जबकि उनके आहार में चिकनाई का अंश नाम मात्र ही होता है। असल में उनके पाचन स्राव उन रासायनिक विशेषताओं से परिपूर्ण होते हैं। जिनके कारण सामान्य घास को ही चर्बी के रूप में परिणत किया जा सके। यह तथ्य सामने आने पर भोजन विश्लेषण सम्बन्धी अत्यधिक आग्रह में शिथिलता आई और इतना ही पर्याप्त माना जाने लगा कि यदि शरीर पर अनावश्यक दबाव न डाले अपने प्रकृति के अनुरूप ही भोजन संतुलित मात्रा में लेते रहे तो स्वास्थ्य रक्षा एवं शरीर पुष्टि का प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता रहा सकता है।

शरीर संचालन की शोध में आगे बढ़ने पर पाया गया कि पेट हृदय और फेफड़ों को संचालक तत्व नहीं माना जा सकता। शरीर के समस्त क्रिया कलापों का संचालन मूलतः चेतन और मस्तिष्कों द्वारा होता है। उन्हीं की प्रेरणा से विविध अंग अपना अपना काम चलाते हैं अस्तु स्वास्थ्य बल एवं बुद्धिबल को विकसित करने के लिए मस्तिष्क विद्या के गहरे पर्तों का अध्ययन आवश्यक समझा गया है और अभीष्ट परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए उसी क्षेत्र को प्रधानता दी गई। पिछले दिनाँक जीवन विज्ञानियों ने शरीर शोध अन्वेषण की आरे से विरत होकर अपना मुँह मन शास्त्र को ऊहापोह कर केन्द्रित किया है।

अब एक और नया रहस्य सामने आ खड़ा है हारमोन ग्रन्थियों का। उनसे अत्यन्त स्वल्प मात्रा में निकलते रहने वाले स्राव ऐसे महत्वपूर्ण हैं जो केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करते हैं और उनमें आश्चर्यचकित करने वाले उतार चढ़ाव उत्पन्न करते हैं। यह हारमोन चेतन या अचेतन मस्तिष्क से भी प्रभावित नहीं होते। इनको घटाने बढ़ाने में एक शरीर से दूसरे शरीर में पहुंचाने के परम्परागत प्रयास प्रायः असफल ही हो चुके हैं। एक शरीर से निकाल कर दूसरे शरीर में प्रवेश कराने में भी इन हारमोनों में वृद्धि न्यूनता अथवा नियन्त्रण सन्तुलन प्राप्त नहीं किया जा सका। लगता है वे शरीर और मस्तिष्क के अतिरिक्त अन्य किसी ऐसे तत्व से प्रभावित होते हैं जिसे अतीन्द्रिय संज्ञा दी जा सकें।

मस्तिष्क के निचले भाग में मटर के दाने के बराबर लटकी हुई पीयूष ग्रन्थि से निकलने वाले हारमोन गोनेडोट्रोफिक का ही कमाल है कि वह साधारण किशोरों को नवयुवती के रूप में परिणत करने वाले सारे साधन अनायास ही जुटा देता है।

गोनेडोट्रोफिक रक्त में मिलकर अण्डाशय को जागृत करता है और उस जागृति के फलस्वरूप वहाँ एक नये हारमोन एस्ट्रोजन की उत्पत्ति होने लगती है। एक दिन में उसकी मात्रा चीनी के दाने के हजारवें भाग की बराबर नगण्य जितनी होती है पर उतने से ही प्रजनन अवयवों का द्रुतगति से विकास होता है और प्रायः दो वर्ष पूर्व की किशोरी युवती के सभी चिन्हों से सुसज्जित हो जाती है।

अण्डाशय यों प्रायः 4 लाख कोशिकाओं का बना होता है पर उसमें से 4-5 सौ ही विकसित होकर अण्ड बनता है। ग्यारह से लेकर चौदह वर्ष की आयु में क्रमशः एक एक अण्ड विकसित होता है। उसके आधार पर प्रायः 28 वें दिन रजो धर्म होने लगता है। जो तीन से लेकर आठ दिन तक स्रवित होता रहता है। वाशिंगटन विश्व विद्यालय के डा0 एडगर एलन तथा एडवर्ड ए॰ डीजी ने पीयूष ग्रन्थि के प्रभाव से अण्डाशय में उत्पन्न होने वाली ऐसी अनेक संवेदनाओं का पता लगाया है जो यौन आकांक्षाओं के उतार चढ़ाव के लिए महत्वपूर्ण भूमिका उत्पन्न करती है। उनके प्रभाव से मस्तिष्क और प्रजनन अंगों में ऐसी उत्तेजना उत्पन्न होती है जिसके कारण यौन आकाँक्षा में तीव्रता मन्दता अथवा मध्यवर्ती स्थिति बनी होती है। दोष अथवा श्रेय प्रजनन अंगों की रचना को दिया जाता है। पर इन मानसिक संवेदनाओं के पीछे वस्तुतः पीयूष ग्रन्थि का सूत्र संचालन ही काम करता है।

पीयूष ग्रन्थि का एक हारमोन है प्रोलेक्टिव यह स्तनों को प्रभावित करता है उनका विस्तार करता है एवं दुग्ध उत्पादन प्रणाली को गतिशील बनाता है। इसकी न्यूनता रहे तो न तो स्तनों का विकास होगा और दुग्ध का उत्पादन भी स्वल्प ही होगा।

यदि पीयूष ग्रन्थि में थोड़ी से खराबी रह जाय और एस्ट्रोन तथा प्रोजेस्टेरोन हारमोन समुचित मात्रा में न बने तो अण्ड का विकास न हो सकेगा और नारी बन्ध्या ही बनी रहेगी। गर्भाशय की स्थानीय खराबी से तो बहुत ही कम संख्या में सन्तान रहित रहती है। वे खराबियाँ तो मामूली उपचार से ठीक हो जाती है पर पीयूष ग्रन्थि के किसी अंग के अविकसित रहने पर हारमोन उपचार ही सफल हो सकता है। नपुंसकता नर की हो या नारी की प्रधानतया पीयूष ग्रन्थि की खराबी के कारण ही होती है। जननेन्द्रिय की स्थानीय कमी वासना अथवा प्रजनन को अधिक प्रभावित नहीं करती। सन्तान के प्रति माता का प्यार क्यों कम या ज्यादा पाय जाता है इसका स्रोत भी पीयूष ग्रन्थि से स्रवित होने वाले प्रोलेक्टिन हारमोन में पाय गया है।

पिछले दिनों यौन संवेदना को मनः शास्त्रियों के मनुष्य की प्रेरक शक्ति माना था ओर कहा था मनुष्य के व्यक्तित्व का उत्थान पतन इसी केन्द्र से होता था। शूर साहसी कायर निराश प्रसन्न दुखी आदर्शवादी ईश्वर भक्त अपराधी अविकसित स्तर का निर्माण इसी केन्द्र से होता है। पर जब नया सिद्धान्त कायम हुआ है कि हारमोन ही यौन संवेदनाओं के लिए उत्तरदायी है अब सबसे जटिल प्रश्न यह उत्पन्न हुआ है कि यह हारमोन किससे नियन्त्रित होते हैं। उनके स्रावों में उतार चढ़ाव कौन लाता है।

इस अनबूझ पहेली का समाधान शरीर और मस्तिष्क की समस्त संरचना की उलट पुलट कर डालने पर भी खोजा जा सकेगा। इसका आधार ढूंढ़ने पर वह जीव चेतना के साथ जुड़े हुए जन्म जन्मान्तरों के संग्रहित संस्कारों एवं उसकी प्रबल संकल्प शक्ति में ही मिलेगा जीव सत्ता का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में अभी जो हिचकिचाहट विज्ञान के क्षेत्र में चल रही है उस पर से अगले दिनों पर्दा उठने ही वाला है। जीव चेतना का अपन स्वतन्त्र अस्तित्व और उसकी भावनात्मक चिन्तनात्मक अभ्यस्त प्रवृत्तियों की सम्पदा से सुसज्जित होना अब मान लिया जायगा तो इस प्रश्न का समाधान होगा कि हारमोन ग्रन्थियों से निकलने वाले अत्यन्त स्वल्प किन्तु अत्यंत शक्तिशाली स्रावों की न्यूनाधिकता जो विभिन्न व्यक्तियों में पाई जाती है उसका कारण क्या है? और उनमें कुछ परिवर्तन करना हो तो उसके लिए ताला खोलने की चाबी कहाँ मिलेगी। जीवन का स्वतन्त्र अस्तित्व शरीर में ऊपर भी विद्यमान है। और उसकी अपनी उपार्जित विभूतियाँ भी रहती है यह मान लेने पर हारमोन अन्वेषण में जो गतिरोध इन दिनों उत्पन्न हो गया है इस प्रश्नवाचक चिन्ह का सहज समाधान निकल जावेगा।


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