मृतात्मा की सत्ता और क्षमता

January 1975

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कोई मृतात्मा किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर सकती है और उस पर इच्छित समय तक अधिकार बनाये रह सकती है। इसके भी कितने ही उदाहरण मिले हैं। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि आत्मा मात्र शरीर की परिधि में ही बँधा हुआ नहीं है वह इस सीमा का उल्लंघन करके अन्य शरीरों में भी प्रवेश कर सकता है। इच्छित समय तक अधिकार बनाये रह सकता है और उसे छोड़ सकता है। ऐसा किस स्थिति में होना सम्भव है किस स्थिति में नहीं इसका ठीक से निर्णय तो नहीं हो सकता पर इतना कहा जा सकता है ऐसा होना असम्भव या अविश्वस्त नहीं है। यद्यपि ऐसा झूठा प्रदर्शन कई बार ढोंग बना कर भी किया जाता रहता है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका के डाक्टर आसवन ने अपनी मनोवैज्ञानिक खोजों में ऐसी घटनाओं का भी उल्लेख किया है जिसमें किसी व्यक्ति के शरीर में किसी अन्य आत्मा का अधिकार होना भी सम्भव सिद्ध होता है। उनने एक बर्तन बनाने वाले कारीगर का उल्लेख किया है जो एक दिन अनायास ही अपने औजार फेंक कर चिल्ला पड़ा कि मैं यहाँ कैसे आ गया और यह बेकार काम कैसे करने लगा? वस्तुतः वह दो वर्ष से अपना असली घर छोड़कर गायब हो गया था और इसी आत्मा के प्रभाव में घर छोड़कर अन्यत्र चला आया और वह काम करने लगा जिसका उसे पुराना कोई अभ्यास न था। होश आने पर उसे अपने घर की याद आई और वापस लौट गया तब वह प्रेतात्मा के प्रभाव से मुक्त था जब तक प्रभाव में रहा तब तक उसे अपने असली नाम तथा घर का ज्ञान बिलकुल भूला रहा।

इंग्लैण्ड निवासी पादरी हाना का भी उदाहरण ऐसा ही है। घोड़ा गाड़ी से गिरने पर उनके सिर में गहरी चोट लगी। इस आघात के साथ ही उनका व्यक्तित्व बदल गया। वे बच्चों की तरह बोलने, सोचने और आचरण करने लगे, बहुत समय बाद उनकी स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ। तब समय बदल कर उनके शरीर में बालक की और युवक की दो आत्माएँ रहने लगी। जब जिस आत्मा का आधिपत्य होता तब वह शरीर वैसा ही आचरण करता था।

बोस्टन निवासी डाक्टर नार्टन प्रिंस ने अपनी चिकित्सा में आई एक ऐसी महिला का उल्लेख किया है जिसके शरीर में कुछ समय तक किसी प्रेतात्मा का निवास रहता था। स्वभावतः यह मितभाषी थी पर जब अन्य आत्मा का प्रभाव उस पर होता तो वह बेतरह की वाचाल बन जाती और अपना नाम सैली बताती थी।

ऐसी ही एक घटना रीड्स नगर निवासी सेसलवूर्न की है। वह बैंक से कुछ रुपया निकाल कर वापस लौट रहा था कि उसे अपने अस्तित्व की विस्मृति हो गई। उसने अपने को जे0 ब्राउन कहना शुरू कर दिया ओर जन्मभूमि छोड़कर अमेरिका जा पहुँचा। बहुत समय बाद उसे अपना होश लौटा तब वह तुरन्त अपने घर को पास चल पड़ा।

जगद्गुरु शंकराचार्य के बारे में कहा जाता है कि उनकी आत्मा कुछ समय के लिए अपना शरीर छोड़कर किसी राजा के शरीर में रहने लगी थी और वहाँ उन्होंने काम-कला के रहस्य सीखकर विदुषी भारती के प्रश्नों का उत्तर देते हुए शास्त्रार्थ जीता था।

यह एक भिन्न प्रकार का उदाहरण है जिससे एक नये तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि कोई जीवित आत्मा भी किसी मृत शरीर पर अपना कब्जा करके उससे जीवितों जैसा प्रयोजन सिद्ध कर सकता है।

बात यही तक समाप्त नहीं होती। जड़ समझी जाने वाली वस्तुओं के भी प्रेत देख गये हैं। जिन भवनों’ वाहनों का सम्बन्ध अनेकों प्रभावशाली व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहा है उनके साथ जड़-चेतन का अद्भुत संयोग हो जाता है ओर ऐसे पदार्थों के नष्ट होने पर भी उनके प्रेतात्मा काम करते रहते हैं।

कई बार समुद्री मल्लाहों ने डूबे हुए जहाजों की प्रेतात्मा सागर में तैरती देखी है। उनने उसे असली जहाज समझा और रास्ता छोड़ने के चक्कर में स्वयं क्षतिग्रस्त हो गये। पीछे वास्तविकता का पता लगने पर उधर किसी असली जहाज का अस्तित्व सिद्ध न किया जा सका -देखने वालों की बात भी गलत नहीं थी, वस्तुतः वह डूबे हुए जहाज का प्रेत था।

सामान्यतया मनुष्य का जन्म मनुष्य योनि में ही होता है। उसकी बौद्धिक चेतना इतनी विकसित हो चुकी होती है कि किसी अविकसित मस्तिष्क वाले म्यान में उसे ठूँसा नहीं जा सकता । बड़ी उम्र के व्यक्ति को छोटे बच्चे के कपड़े नहीं पहनाये जा सकते। इसलिए मनुष्य का अगला जन्म मनुष्य में ही होने की मान्यता अधिक तथ्यपूर्ण है। बुरे-भले कर्मों का फल तो मनुष्य शरीर में भी मिल सकता है, मिलता भी है।

किन्तु इस नियम के भी अपवाद पाये गये है। मनुष्य का अन्य शरीर में प्रवेश अथवा जन्म जो कुछ भी कहा जाय उसके उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। पशुओं के शरीर तथा मन में ऐसी विशेषताएँ पाई गई हैं जो उनमें आश्चर्यजनक मात्रा में मानवी भावना एवं प्रकृति होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है।

पश्चिम बंगाल के व वर्दवान जिले में चाँदमारी कालोनी आसन सोल निवासी अध्यापक श्री रामनरायण सिंह की गाय ने 30 अक्टूबर 69 को एक बछड़े को जन्म दिया। बंगाली नस्ल की काली गाय ने बछड़ा भी काला ही दिया। इस बछड़े की प्रकृति में मनुष्य जैसी मनो वृत्ति और आदतें देखने को मिलीं। इसकी विलक्षण प्रकृति को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे और अनुभव करते थे कि यह पूर्व जन्म का कोई भावुक मनुष्य ही रहा होगा।

बछड़ा आदमी की गोद में बच्चे की तरह सोने का प्रयत्न करता था। जब कोई प्यार से उसे सुला लेता तो आनन्द विभोर होकर ऐसी मुद्रा में चला जाता मानों होश−हवास खोकर गहरी निद्रा में चला गया। जब कभी अपने मालिक की गोद में किसी बच्चे को बैठा देख लेता तो उसे उतार कर ही छोड़ता और उस जगह पर खुद जा बैठता। यों खाता तो घास भी था पर जब थाली में मनुष्य का भोजन दिया जाता तो खाने की तरतीब और सलीका देखते ही बनता। चाय का पूरा शौकीन- वह गर्म कितनी ही क्यों न हो देखते-देखते प्याला साफ कर देता। पास बैठे मनुष्य को हलका धक्का देकर यह इशारा करता कि उसे घास या रोटी हाथ से खिलाई जाय। बिना दाल-साग के रूखी रोटी देने पर उसे खाता नहीं और नाराजी जाहिर करता। गृह स्वामिनी उसके प्रति आवेश प्रकट करती तो घर के एक कोने में सट कर जा बैठता और आँसू बहाने लगता। यों प्रसाद में तुलसी के पत्ते वह प्रसन्नतापूर्वक खाता किन्तु आँगन में लगी तुलसी के गमले पर उसने कभी मुँह नहीं डाला। पूजा के समय शान्तिपूर्वक आकर बैठ जाता। रस्सी से बँधा होता तो उसे तुड़ाने का प्रयत्न करता और पूजा के समय देवस्थान तक पहुँचने का प्रयत्न करता।

इन प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँच सकत हैं कि शरीर के साथ ही जीवन का अन्त हो जाने वाली वह मान्यता सही नहीं है जो पिछले दिनों जीव विज्ञानी वैज्ञानिकों ने बड़ेउत्साह के साथ प्रतिपादित की थी। वे कहते थे शरीर में चेतना का आस्तित्व मात्र, जीवन काल तक ही रहता है। मरने के बाद चेतना का पूर्णतया लोप हो जाता है। यह मान्यता इन प्रमाणों के आधार पर सहज ही कट जाती है जो मरणोत्तर जीवने के अनेकानेक अकाट्य प्रमाण आये दिन प्रस्तुत करते रहते हैं। अनन्त जीवन की अस्तित्वादी मान्यता के सहारे ही मानवी सदाचार के प्रति निष्ठा बनाये रखी जा सकती है अन्यथा कर्मफल कर सिद्धान्त भी कट जायगा और मनुष्य इसी जन्म में अधिकाधिक सुखोपभोग के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पद रहेगा। मरणोत्तर जीवन की मान्यता हमें आस्तिक बनाये रह सकती है और उस आधार पर ही वैयक्तिक एवं सामाजिक सदाचार अक्षुण्ण रखाजा सकता है।


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