परिवार संस्था को टूटने से बचाया जाय

January 1975

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कोई विरले परिवार ही शान्ति एवं सुव्यवस्थापूर्वक निर्वाह करते दिखाई देंगे अधिकाँश में असन्तोष और मन मुटाव की आग जलती पाई जायगी। हमारी परिवार संस्था टूटती-फूटती नजर आ रही है। इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा।

इसका प्रमुख कारण हैं विभिन्न रूपों में परिवार की टूटती हुई मर्यादायें। परिवार को सम्भालने वाले का गलत दृष्टिकोण परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा अपने कर्त्तव्यों में अनिष्ठा। फलस्वरूप परिवार की शान्ति समाप्त हो चुकी है। कलह का साम्राज्य स्थापित हो चुका है। जब शान्ति ही नहीं तो सुख कैसा ? मनुष्य अपने आपमें इतना अधिक भ्रष्ट, इतना स्वार्थी, इतना दुष्ट हो गया हैं जो अपनी आत्मा की हत्या स्वयं कर रहा है।

वास्तव में स्वर्ग और नरक कोई भिन्न सत्ता नहीं । यह तो आत्मा के विस्तार और हत्या की बात है। ऐसी रामायण की चर्चा हैं कि एकबार उस के सम्बन्ध में जब अयोध्या से राजा जनकजी के दूत विशेष समाचार लेकर मिथिला लौटे तो मिथिलावासियों ने बड़ी ही व्यग्रता से पूछा, कहो अयोध्यावासियों को क्या हाल है ? वहाँ के परिवार में तुमने क्या विशेषता पाई। दूत ने कहा वहाँ के परिवार की सबसे बड़ी विशेषता यह हैं कि घर-घर में स्वर्ग है।

इसका तात्पर्य यह हैं कि अयोध्या का पारिवारिक जीवन बड़ा ही आदर्श जीवन था। कहीं आपसी अंतर्द्वंद्व नहीं दिखाया गया है।

यदि हमारे पारिवारिक जीवन में भी भाई-भाई का प्रेम, पुरुषोत्तम राम के भाइयों की तरह स्थापित हुआ होता तो हमारा परिवार क्यों भिन्न-भिन्न दिखलाई पड़ता। बड़े भाई का त्याग छोटों के लिए किस तरह का हो। राज्य संचालन एवं सुख-भोग की कामना को जिसने छोटे भाई के लिए ठुकरा दिया। भरत को जिसने माता की आज्ञा का बोध कराया। भरत जिसे बड़े भाई द्वारा राज्य संचालन का सहर्ष अधिकार दिया गया, उसने भी अधिकारी होते सुख-भोग को अपनी मुट्ठी में कसकर रख लिया।

वस्तुतः उस रामायण काल में गृहस्थ जीवन में कितना अधिक मर्यादा का पालन किया गया है जो राष्ट्रीय जीवन की साँस्कृतिक धरोहर कही जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। इतना ही नहीं हमारे पारिवारिक जीवन में स्वर्गीय सुखों का अवतरण किस प्रकार हो सकता है इसका ठोस आधार भी है।

यदि हमारा पारिवारिक जीवन कुछ न कर सके तो कम से कम उसके सभी पहलुओं को अपने जीवन का केन्द्र बिन्दु मानकर चलें तो उससे स्वर्गीय आनन्द का अवतरण कोई कठिन नहीं। हमें रामायण से जीवन के किस पहलू की प्रेरणा नहीं मिलती।

परिवार में एक-दूसरों के प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य होना चाहिए ? छोटों के प्रति बड़ों का क्या उत्तरदायित्व होता है ? बड़े अपने से छोटों के प्रति किस तरह निष्पक्ष रूप से व्यवहार और निर्णय करें। आपसी न्याय का प्रतिपादन किस प्रकार किया जाय ? पारिवारिक जीवन में सद्भावना का क्या स्थान है आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं जिसका अनुपालन परिवार में होने लग जाय तो सुख और शान्ति की आनन्दानुभूति सबको होने लग जाये।

परिवार में सदस्यों के बीच अपनेपन का विशेष अनुभव होना, परिवार के टिकाऊपन का सर्वश्रेष्ठ गुण है। जब अपनों में अपनेपन का भाव समाप्त हो जाता है तभी आपसी प्रेम के टुकड़े होने लगते हैं। स्वार्थपरता आने लगती है। अतः आपने अन्तर में अपनत्व की भावना पैदा करनी पड़ेगी। अपनत्व की भावना ही भेद-भाव को जीवन से दूर भाग देती है। परन्तु विचारों में भेद-भाव की उत्पत्ति से न जाने परिवार की कितनी बुरी दशा होती है। भेद भावना पारिवारिक जीवन की एक ऐसी चिनगारी है तो भीतर ही भीतर जलाती रहती है। प्रेम के अंकुर उसमें पनप ही नहीं सकते। आज परिवार की ऐसी ही विषम स्थिति है।

माता के हृदय में अपने छोटे बालकों के प्रति कितनी उदारता की भावना रहती है। बच्चों के लालन-पालन में अपने भूखे रहकर भी उसकी भूख की चिन्ता रखा करती है। अपने सिर पर हर तरह का बोझ उठा लेती है लेकिन बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट न हो यह बराबर ध्यान रखती है। कितना बड़ा त्याग उसके जीवन में रहता है। सचमुच माता त्याग की साक्षात् प्रतिमा है। ऐसा ही त्याग करने की भावना, घर के हर समझदार व्यक्ति के हृदय में आ जाये तो कलह-विग्रह के परिताप में बचा जा सकता है। कलह-विग्रह से परिवार की शान्ति भंग हो जाती है। यह तो परिवार का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।

भावना हृदय की आन्तरिक वस्तु है। यदि हम झूठे भाव से अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच अपनत्व, उदारता और त्याग का भाव प्रदर्शन करना चाहेंगे तो कभी न कभी इसकी सत्यता परिलक्षित हो ही जायगी। तब अन्य सदस्यों का दृष्टिकोण हमारे प्रति कितना गलत हो जायेगा। लोग सशंकित हो जायेंगे। हमारे प्रति अश्रद्धालु हो जायेंगे। इस मर्यादा का पालन आन्तरिक गुण है कि हम परिवार में श्रद्धा के पात्र समझे जायं। यह प्रदर्शन की वस्तु नहीं भावना की वस्तु है।

गलती करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। यदि जाने-अनजाने हमसे किसी प्रकार की गलती हो जाती है जिसका आभास हमें नहीं हो रहा हो तो ऐसी गलती को स्वीकार कर लेना चाहिए। अपने गलती को स्वीकार कर लेने वाला व्यक्ति जीवन में पुनः गलती करने से सावधान रहता है। इसके लिए आवश्यक हैं कि अपने यहाँ पारिवारिक गोष्ठी की व्यवस्था अवश्य बना ली जाय।

इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी आ जाती हैं कि हम अपने परिवार में एक दूसरे के प्रति आदर की भावना बनाये रखें। चाहे कोई छोटा बच्चा ही क्यों न हो उसके प्रति भी आदर की भावना होनी चाहिए। बच्चों का इससे मनोबल बढ़ता है। उपेक्षित बालक कभी भी प्रभावशाली नहीं बन सकता। यह बात जरूरी हैं कि बच्चे भी बड़ों का आदर करना जानें। इसकी जानकारी उसे होनी चाहिए। इससे हमारे परिवार की मर्यादा बढ़ती है।

अभिभावक की उदात्त भावना उसकी उत्कृष्टता का परिचायक है। उसके अन्दर कभी ऐसी भावना की उपज नहीं होनी चाहिए जो अहंकार पैदा कर दे। अहंकार मनुष्य के व्यक्तित्व को गिरा देता है। यह सोचकर अभिभावक को यह नहीं मानना चाहिए कि मैं ही पूरे परिवार का पालन करता हूँ। बल्कि ऐसा सोचना चाहिए कि मैं तो एक माध्यम मात्र हूँ। पालनकर्ता तो परमपिता परमात्मा है। पालन करने की शक्ति वही प्रदान करते हैं। बच्चों के जीवन में इसका अद्भुत प्रभाव पड़ता है। वह भी उदार और नम्र स्वभाव का बन जाता है।

मनुष्य की प्रकृति बराबर स्वतन्त्र रहने की होती है। स्वतन्त्रता उसका जन्म सिद्ध अधिकार हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्र विचारधारा पर परिवार में किसी के द्वारा आक्षेप नहीं होना चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखा जाना आवश्यक होगा कि उस विचारधारा से पारिवारिक शान्ति में कोई व्यवधान तो नहीं हो रहा है। उस विचारधारा से प्रभावित होकर कोई अपनी नैतिकता तो नहीं खो रहा है। वह विचारधारा सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त तो नहीं कर रही है। यदि ऐसी विचारधारा है तब तो इसका विरोध और इसकी आलोचना उस व्यक्ति के समक्ष करना ही चाहिए। उसे उपयुक्त सुझावों से आकृष्ट कर सही रास्ता दिखलाना चाहिए। हाँ, यदि किसी परिवार में रूढ़िगत परम्परा का प्रचलन हैं जिसको मानकर चलने में किसी को आपत्ति हैं तो इसके लिए किसी को लाचार भी नहीं करना चाहिए। एक दूसरे के प्रति हमारा फर्ज हो जाता है कि हम एक दूसरे की रुचियों को अपने हृदय में स्थान दें। इस तरह परिवार में एक स्वाभाविकता बनी रहेगी और सारा परिवार सुख-शान्ति की गोद में अपार आनन्द का अनुभव करेगा।

व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने की परम्परा का प्रस्फुटन तभी होगा जब हम अपने-अपने परिवार को उत्कृष्ट बनाने की प्रक्रियाओं और विशेषताओं को धारण करेंगे। वे विशेषताएं जो प्राचीन काल की पारिवारिक आदर्श व्यवस्था थी जिसके आधार पर परिवार का पारस्परिक प्रेम अक्षुण्ण रहता है। हमें अपनानी ही पड़ेगी।


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