चला चली की दुनिया में अविचल की प्राप्ति करें

January 1975

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जीवन और मरण के चक्र में घूमते हुए, इस विशाल ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र, आये दिन उत्पन्न होते और मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। उनका जीवन काल अरबों, खरबों वर्ष का है। उनका विस्तार अपनी पृथ्वी से लाखों, करोड़ों गुना बड़ा है तो भी जन्म-मरण के बन्धनों में वे भी बंधे हुए हैं। क्या छोटे क्या बड़े सभी काल के ग्रास बने हुए हैं। प्राणी ही नहीं ग्रह-नक्षत्र भी इसी नियति क्रम के आधार पर उदय और अस्त होते रहते हैं।

ब्रिटेन के खगोल फ्रेड हायल का कथन है कि ब्रह्माण्ड अनादि काल से लेकर अनन्त काल तक फैलता ही चलेगा। ग्रह-नक्षत्र आपस की दूरी बढ़ाते हुए आगे ही आगे दौड़ते चले जाते हैं। बीच में जो खाली जगह रह जाती है उसमें अपने आप हाइड्रोजन गैस उत्पन्न हो जाती है और फिर उससे नये पिण्ड बनने आरम्भ हो जाते हैं।

कैंब्रिज के अन्तरिक्ष शोधक मार्टिन राइल का कथन है कि चिर अतीत में एक भयंकर विस्फोट हुआ था, उसी से विरल गैसों के छाये बादलों में गर्मी और तेजी आई, वे दौड़ने लगे और सघन बने। विल्सन तथा पालोमर ने सृष्टि का अन्त कैसे होता है इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए कहा है- द्रुतगति से फुलाव की ओर दौड़ते हुए ग्रह-नक्षत्र अन्ततः थक जाते हैं। उनकी दौड़ शिथिल हो जाती है। तब उनका गुरुत्वाकर्षण उभर कर आयेगा और बूढ़े तारों में से सब एक दूसरे को निकट खींचने लगेंगे। तारे एक दूसरे से लड़ पड़ेंगे और प्रलय का दृश्य उपस्थित करेंगे। उसके बाद उस टकराव से उत्पन्न हुई गरम धूलि द्वारा पुनः नवीन सृष्टि का क्रम चल पड़ेगा।

इनकी दूरी तथा विस्तार परिधि को हम खुली आँखों से नहीं देख सकते। उनकी जानकारी प्राप्त करने के उन सूक्ष्मग्राही यन्त्रों का सहारा लेना पड़ता है जो दूरवर्ती तारकों से निसृत होने वाली प्रकाश किरणों को पकड़ने और परखने से समर्थ होते हैं।

यह ग्रह-नक्षत्र न केवल प्रकाश तरंगें फेंकते हैं वरन् उनका शक्ति प्रेषण जो सैकड़ों प्रकार का है उनमें एक प्रेषण रेडियो शक्ति तरंगों का भी है। हमें उनकी जानकारियाँ इन रेडियो तरंगों के आधार पर ही होती है। पिछले दशक में डेनिश खगोलवेत्ता मार्टेन रियाडट ने प्रचण्ड शक्तिशाली क्वासर किरणों का पृथ्वी पर आगमन का पता लगाया था। उनका उद्गम आठ अरब प्रकाश वर्ष माना गया है। किन्तु इनका प्रवाह भी स्थिर नहीं वह ज्योति हमसे प्रति सेकेंड 2,40,00 किलोमीटर की चाल से दूर हटती चली जा रही है। इसका कारण वह फुलाव विस्तार की भगदड़ प्रक्रिया ही है।

विस्तार, संकुचन, जन्म-मरण, सक्रियता, विश्राम जैसी परस्पर विरोधी लगने वाली पर वास्तविक पूरक क्रिया-कलाप के आधार पर ही सृष्टि की गतिविधियाँ चल रही हैं इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि अपनी स्थिति भी सदा एक जैसी नहीं रह सकती। आज की समर्थता कल की असमर्थता में परिणत हो सकती है। इसलिये वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात सदा सोचनी चाहिए। इस पश्चाताप का अवसर नहीं आने देना चाहिए कि अमुक समय हमें ऐसे सत्कर्म करने का अवसर था, पर हम उस समय आलस्य, प्रमाद अथवा लोभ-मोह वश वैसा नहीं कर सके। आज का जीवन कल मृत्यु में परिणत होना ही है, जब इतने विशालकाय ग्रह-नक्षत्र एक जैसी स्थिति में नहीं रह सकते तो हम तुच्छ प्राणी कैसे सदा विकसित एवं समर्थ रह सकते हैं।

ब्रह्माण्ड को देखने समझने के लिए मानवी जिज्ञासा अब इस प्रयास में संलग्न है कि सौरमण्डल से बाहर निकल कर विशाल ब्रह्माण्ड की झाँकी की जाय और अनुमान को प्रत्यक्ष में परिणत करके यह देखा जाय कि आखिर यह सारा प्रसार है क्या? है कैसा?

सौरमण्डल से बाहर निकलने के लिए हमें तीव्रतम गति की आवश्यकता होगी और दीर्घकालीन जीवन अभीष्ट होगा अन्यतम अकल्पित दूर तक पहुँचना और लौटना सम्भव ही कैसे हो सकेगा। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों के जो प्रयास चल रहे हैं, उनमें आशा की एक क्षीण किरण दिखाई पड़ने लगी है।

अब तक प्रकाश की गति को ही सर्वोपरि गति माना जाता रहा है। प्रकाश एक सेकेंड में 1 लाख 86 हजार मील चलता है। आइंस्टीन कहते थे, इससे तीव्रगति नहीं हो सकती। पर अब ‘कर्क’ निहारिका की-गतिविधियों का विश्लेषण करते हुए इस गतिशीलता का नया कीर्तिमान सामने आया है आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय के डा0 एल. एल. और डा0 ज्याफे एनडीन ने इस निहारिका के विद्युतीय चुम्बकीय क्षेत्र की चल रही गतिशीलता को प्रति सेकेंड 5,95,200 मील नापा है जो प्रकाश गति की तुलना में लगभग चार गुना अधिक है। इस निहारिका के मध्य एक छोटा सूर्य ऐसा पाया गया है जिसका तापमान अपने सूर्य से 100 गुना अधिक है। वह अपनी धुरी पर प्रति सेकेंड 33 बार परिक्रमा कर लेता है, यह भ्रमण गति भी अब तक की कल्पनाओं से बहुत आगे है।

काकभुशुण्डि, अगस्त, नारद आदि ऐसे पुराण पुरुषों का उल्लेख मिलता है जो अन्तरिक्ष यात्राएँ करते रहते थे और दीर्घजीवी थे। अन्तरिक्ष यात्रा के लिए यों दीर्घजीवी होना अनिवार्य मालूम पड़ता है ताकि द्रुतगामी यानों पर सवार होकर जाने पर भी लम्बा फासला पूरा करने में जो समय लगता है उतनी अवधि तक जीवित रहा जा सके। पर अब स्पष्ट हो गया है कि सामान्य स्वास्थ्य और सामान्य जीवन अवधि के लोग भी लम्बी अन्तरिक्ष यात्राएँ करने में सफल हो सकते हैं। आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षवाद के अनुसार प्रकाश की गति से जरा कम वेग से चलने वाले नक्षत्र यान में समय की प्रवाह गति- पृथ्वी पर समय की प्रवाह गति की अपेक्षा धीमी होती है। इसी बात को अधिक सरलतापूर्वक समझने के लिये यों भी कहा जा सकता है कि अति तीव्रगामी यान में पृथ्वी की अपेक्षा समय धीमी गति से गुजरता है। प्रकाश की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड है। यदि अन्तरिक्षयान की गति इसकी 99 प्रतिशत हो तो पृथ्वी पर जितना समय 100 वर्ष में गुजरेगा उतना समय अन्तरिक्ष-यान से 14 वर्ष के करीब ही होगा। पृथ्वी निवासी 30 वर्ष का युवक 100 वर्ष में 130 वर्ष का जराजीर्ण हो जायगा किन्तु अन्तरिक्ष यात्री की आयु 14 वर्ष ही बढ़ेगी दानों युवक जब 100 वर्ष बाद मिलेंगे तो एक 130 वर्ष का होगा और दूसरा 44 वर्ष का। इस सुविधा का लाभ उठाकर नारद आदि अन्तरिक्ष यात्री दीर्घजीवी रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है


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