अपनी पृथ्वी तक के बारे में हम कितना कुछ जानते हैं।

January 1975

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जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसका व्यास 8000 मील है। उसकी परिधि 25000 मील है। ऐसी-ऐसी मोटी बातें ही हम अपनी इस धरती के बारे में जानते हैं। जिस पर हम मनुष्य लाखों वर्षों से रहते चले आ रहे हैं और जिस पर अपना अधिकार माने बैठे हैं। धरती की खोज-बीन बहुत हुई है उसके बारे में बौद्धिक ऊहापोह और यान्त्रिक निरीक्षण के आधार पर बहुत कुछ जानने का प्रयत्न किया गया है-बहुत कुछ जाना भी है पर जो कुछ जाना गया है वह अत्यंत स्वल्प है। अभिनव खोजों से पता चलता है कि भूतत्व के सम्बन्ध में अब तब की लाखों वर्षा की जानकारी बहुत स्वल्प थी। अगले दिनों उसके सम्बन्ध में बहुत कुछ जानना दोष है।

यों पृथ्वी का व्यास और परिधि का जो माप किया गया है वह स्थिर नहीं है। पृथ्वी क्रमशः फूल रही है। उसका फुलाव यों बहुत मन्द गति से है पर वह चलता रहा तो वर्तमान माप से सैकड़ों मील की वृद्धि करनी पड़ेगी। समुद्र क्रमशः सूख रहा है। फलस्वरूप थल भाग बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि पाँच लाख वर्ष बाद पृथ्वी का थल क्षेत्र अब की प्राणधारी वनस्पतियों तथा प्राणियों पर लागू होता है, वही पृथ्वी के बारे में भी है। पृथ्वी भी तो एक देवी है-इसकी सजीवता के कारण ही तो इसे धरती माता कहते हैं।

मनुष्य भले ही निश्चेष्ट बैठे-भले ही उदास, निराश दिखाई पड़े पर धरती उछलती-कूदती-नाचती, थिरकती अपनी मोद-विनोद भरी जीवन-यात्रा पर अनवरत गति से चलती चली जस रही है। हम साधारणतया इतना ही समझते हैं कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर काटती है और अपनी धुरी पर घूमती है। पर बहुत ही उसकी चाल में नृत्य जैसी की कुटकन-फुटकन भी शामिल है इसे अभी अभी ही जाना गया है।

सूर्य अपने ग्रह-उपग्रहों के विशाल परिवार को साथ लेकर एक महासूर्य की परिक्रमा करता है। पृथ्वी भी सौर परिवार के साथ बँधी, जकड़ी उस महायात्रा में घिसटती चली जाती है। इतना ही नहीं वह महासूर्य भी हमारे सौर मण्डल जैसे अनेक तारक समूहों को साथ लेकर किसी महाध्रुव की परिक्रमा में संलग्न हैं। बेचारी पृथ्वी उस यात्रा में भी अपने छोटे अस्तित्व के साथ भाग लेती है। यह सूर्य- महासूर्य- महा-महासूर्य का सिलसिला कितना बड़ा है और परिक्रमाओं का विस्तार कितना विस्तृत है इसे सोचते, खोजते वैज्ञानिकों की बुद्धि भी चकराती है।

पृथ्वी की एक गति और भी है जिसे ‘थिरकन’ कहा जा सकता है। वह अपनी धुरी पर सर्वथा स्थिर नहीं है। उसकी अक्ष और सिरे बना स्थान बदलते रहते हैं। 14 महीने की अवधि में यह विचलन प्रायः 72 फीट तक होता पाया गया है। यों सदा चार करोड़ व्यास वाली पृथ्वी के कलेवर को देखते हुए 72 फीट नगण्य है तो भी उससे उसकी गति और स्थिति का पता तो चलता ही है। इंग्लैण्ड के खगोल वेत्ता जेम्स ब्रेडले ने इस थिरकन की सम्भावना व्यक्त की थी जो अब विधिवत् यन्त्रों द्वारा नापी जाने लगी है। ध्रुव जिन्हें स्थिर मानकर ही उनका नामकरण किया गया था अब पता चला है कि उनका भी तन-मन डोलता है और वे भी इधर-उधर भटकते हैं, एक जगह छोड़ते और दूसरी पकड़ते रहते हैं।

यह थिरकन क्यों होती है इसका सही पता तो नहीं चला पर कुछ अनुमान ऐसे लगाये गये हैं जिन्हें सारगर्भित कहा जा सकता है। यथा ध्रुव क्षेत्रीय बर्फ पिघलने से उत्पन्न असन्तुलन-समुद्रीय जल का भटकाव-भूगर्भ में भरे हुए गर्म लावे का पुनर्वितरण एवं उद्वेलन आदि।

इस थिरकन के सम्बन्ध में अधिक जानकारी ज्ञात करने के उद्देश्य से उत्तरी ध्रुव के चारों ओर 40 अक्षांश पर पाँच वेधशालाएं स्थापित की जा रही है। (1) जापान में मिजुसावा (2) समरकन्द के निकट केताव (3) इटली में सार्डीनिया द्वीप का कार्लीफोर्ते (4) अमेरिका में गैदर्ज वर्ग तथा (5) यूक्रिया इन पाँचों केन्द्रों का संचालन इंटरनेशनल पोलरमोशन सर्विस द्वारा किया जा रहा है। इनमें लगे शोध यन्त्र अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए उन तक गर्मी एवं रोशनी का कम से कम प्रभाव पड़े ऐसी व्यवस्था बनाई गई है। वहाँ बत्तियाँ अत्यंत क्षीण ज्योति की जलती है जिनके सहारे अँधेरे में टटोलने की कठिनाई हल हो सके। खिड़कियाँ हर समय खुली रखी जाती है ताकि कार्यकर्त्ताओं के शरीर की गर्मी जमा होकर यन्त्रों को प्रभावित न करने लगे।

अपनी धरती को हम धूलि-मिट्टी की बनी ऊबड़-खाबड़ कुरूप मात्र देखते हैं। यह अति निकटता की अवज्ञा है। वस्तुतः वह बहुत ही सुन्दर और सुसज्जित है इस शोभा, सौंदर्य को थोड़ा-सा ही दूर हट कर देखा जा सकता है। वह साज-सज्जा युक्त नववधू की तरह अथवा किसी अति सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित देव प्रतिमा की तरह किसी चतुर कारीगर द्वारा गढ़ी गई सी प्रतीत होती है। अपोलो 8 पर यात्रा करते हुए अन्तरिक्ष यात्रियों ने बताया कि उन्होंने अन्तरिक्ष में पृथ्वी को इस तरह देखा मानों काली मखमल की चादर पर किसी ने रंग-बिरंगे रत्नों से जगमगाता हुआ प्रकाशवान थाल लटका दिया हो। चन्द्रमा हमें एक ही सुनहरे रंग का दीखता है पर चन्द्र तल से पृथ्वी रंग-बिरंगी दीखती है। वनस्पतियों का रंग हरा, समुद्र का नीला और रेत का भूरा, बर्फ का सफेद स्पष्ट दीखता है। लगता था कई रंगों से सजा हुआ विशालकाय प्रकाश पिण्ड आकाश पर अपना साम्राज्य स्थापित किये हुए है।

बाहर से शान्त, निश्चेष्ट पड़ी दीखने वाली धरती के भीतर निरन्तर उद्वेग भरी हलचलें होती रहती है। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने के लिए उसका व्यग्र असन्तोष कभी-कभी फूट पड़ता है जो हम काँप उठते हैं। भूकम्पों के रूप में वह अक्सर प्रकट होता रहता है। आन्तरिक विक्षोभ ही क्रान्तिकारी हलचलों के रूप में फूटते हैं। धरती ज्यों की त्यों नहीं पड़ी रहना चाहती। वही अपनी वर्तमान स्थिति में परिवर्तन और परिष्कार चाहती है। इसके लिये उसके भीतर ही भीतर चलने वाली हलचलें अक्सर विस्फोट बनकर बाहर आती रहती है। कई वार तो यह विस्फोट भूकम्प बहुत ही भयानक होते हैं और अपनी असाधारण भली-बुरी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं।

पृथ्वी के गर्भ में 25 मील गहरे उतरने पर इतनी गर्मी है कि उसमें पत्थर भी पिघल जाय। वहाँ सब कुछ पिघले हुए लोहे की तरह द्रव रूप में है। अपने जन्म काल में पृथ्वी भी सूर्य की तरह आग का गोला थी। वह क्रमशः ठण्डी होती गई ऊपर की परतें इतनी ठण्डी हो गई कि उस पर वनस्पतियों और प्राणियों का जीवन सम्भव हो सके; किन्तु भीतर की आग अभी भी बहुत गरम है। ठण्डक जैसे-जैसे भीतर घुसती जाती है वैसे ही वैसे गरम परतों का विस्तार सिकुड़ता है और वहाँ उत्पन्न होने वाली भाप परतें फोड़ कर ऊपर निकलने का प्रयास करती है। इसी विस्फोट को ज्वालामुखियों के रूप में देखा और भूकम्पों के रूप में अनुभव किया जाता है।

सन् 1967 में 11 दिसम्बर को महाराष्ट्र के कोयना नगर के समीपवर्ती क्षेत्र में जो भूकम्प हुआ उसमें 80 किलोमीटर लम्बी और छह फुट चौड़ी एक दरार ही जमीन में फट गई थी। जान-माल का विनाश भी रोमाँचकारी था। पूरा नगर खण्डहर में परिणत हो गया था।

कोयना भूकम्प के बारे में भूगर्भ शास्त्री डाक्टर कृष्णन का अनुमान था कि बाँध बनाकर उस क्षेत्र में जो शिव सागर झील बनाई गई है उसका पानी धरती के नीचे की परतों में उतर कर इस भूकम्प का कारण बना होगा।

कभी-कभी भूकम्पों का परिणाम वरदान जैसा भी होता है। सन् 1956 में मैक्सिको के दक्षिणी रेगिस्तान में एक भयंकर भूकम्प आया था जिसके कारण वहाँ मीठे पानी का एक विशालकाय फव्वारा फूट पड़ा और पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसने वाला वह क्षेत्र हरा-भरा उपजाऊ और मनुष्यों के रहने योग्य बन गया।

सन् 1923 में 1 दिसम्बर, को जापान की राजधानी टोकियो में ऐसा भूकम्प आया था जिसने प्रायः सारे नगर को उजाड़ दिया। बुरी तरह आग लगी और लगभग ढाई लाख मनुष्यों की जाने गई। सन् 1906 में 12 अप्रैल को सेनफ्राँसिस्को में भी ऐसा ही भूकम्प आया था जिसने तीन लाख मनुष्यों को बेघर वार बना दिया और हजारों की जाने ले लीं।

भारत में 1737 का भूकम्प इतिहास प्रसिद्ध है जिसने तीन लाख मनुष्य मारे थे। सन् 1950 में आसाम के भूकम्प में करीब 60 झटके लगे थे और डेढ़ हजार जानें गई थी। 1934 का विहार भूकम्प का आतंक दूर नहीं हो पाया था कि एक वर्ष बाद ही क्वेटा में एक और भूकम्प हुआ जिसने 30 हजार मनुष्यों को उदरस्थ किया। काँगड़ा का भूकम्प भी बहुत विनाशकारी था।

अब से कोई दो हजार वर्ष पूर्व इटली का विसूवियस भाग एक ऐसे ज्वालामुखी के रूप में फूटा था जिसमें आग की नदी बहने लगी थीं। विस्फोट से 7 मील दूर बसा पोम्पियाई शहर पूरी तरह विस्मार हो गया था। ऐसा ही एक भयंकर विस्फोट प्रशान्त महासागर के सुन्डा द्वीप में सन् 1893 में हुआ था। उसने उस द्वीप का अता-पता ही मिटा दिया।

धरती के आरम्भिक जीवन में भूकम्पों और ज्वालामुखियों की भरमार थी पर अब जैसे-जैसे ठण्डक गहराई तक घुसती जा रही है वह विस्फोटों का सिलसिला घट रहा है। इतने पर भी प्रायः डेढ़ लाख छोटे-बड़े भूकम्प अभी भी पृथ्वी पर अनुभव किये जाते हैं जिनमें से कम से कम दस तो महा विनाशकारी अवश्य ही होते हैं।

पृथ्वी के गर्भ में क्या-क्या भरा पड़ा है इस सम्बन्ध में केवल 15 प्रतिशत की ही जानकारी हमें है। भूगर्भ का 85 प्रतिशत भाग ऐसा है जिसके बारे में हम सर्वथा अनजान हैं। धरती से जो लाभ अब तक उठाया जाता रहा है उससे मनुष्य को सन्तोष नहीं वह चाहता है कि क्यों न उसकी समस्त सम्पदा का पता लगा लिया जाय और उसमें क्यों न भरपूर लाभ उठाया जाय?

इसके लिए धरती की गहरी खुदाई करनी होगी तभी भीतरी परतों के बारे में यथार्थ जानकारी प्राप्त की जा सकेगी अभी तो इस सम्बन्ध में जो जाना गया है वह अनुमानों पर ही आधारित है।

इसके लिए होनोलूलू का उत्तर पश्चिमी प्रशान्त महा सागर का 170 मील का क्षेत्र चुना गया है। यहाँ पनडुब्बीनुमा 6 मकान बनाये जा रहे हैं जो समुद्र में 18000 फुट गहराई में रहा करेंगे। इसमें एक शक्तिशाली ‘ड्रिलिंग संयंत्र’ रहेगा। यह ‘टर्वो कोरक’ यन्त्र लगातार 203 घण्टे चलने और दो मील गहरा छेद करने में सफल हो चुका है इसकी नोंक बहुमूल्य हीरों से बनाई गई है। जो गरम और कठोर परतों में भी छेद करती चली जायेंगी। यह छेद गहरे समुद्र तलसे ही आरम्भ करना उचित समझा गया है ताकि 18 हजार फुट तक की गहराई का छेद करने का परिश्रम एवं व्यय बचाया जा सके।

यों सन् 1952 में गार्डनलिल ने इस संदर्भ में बहुत दौड़-धूप की थी और काफी गहराई तक खुदाई भी की पर जितना आवश्यक था उतना कार्य न हो सका, सन् 1961 में वैस्कम योजना के अंतर्गत कैलीफोर्निया समुद्र तट पर यह प्रयत्न फिर आरम्भ हुआ और समुद्र तल से 600 फुट गहराई तक जाने में सफलता प्राप्त करलीं। अब वे प्रयत्न और अधिक तेज किये गये हैं।

एक बार ऐसा भी सोचा गया था कि जमीन के आरपार छेद कर दिया जाय। पर उसका खतरा जल्दी ही समझ लिया गया। समुद्र का पानी धरती की गरम परतों में समा कर न केवल सूख ही जायगा वरन् उसकी भाप से भयंकर ज्वालामुखी उठेंगे और धरती की ऊपरी परतों के चिथड़े उड़ जायेंगे। इन विभीषिकाओं को ध्यान में रखते हुए धरती में गहरा छेद करने के उत्साह के अगले कदम फूँक-फूँक कर ही उठाये जा रहे हैं। ‘अब तक 11 हजार फुट की गहराई में खोदी जा चुकी है। पर उतना पर्याप्त नहीं। आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए 20 हजार फुट गहराई तक तो जाना ही पड़ेगा।

पृथ्वी के रहस्य इतने अधिक हैं जिन्हें पूरी तरह जानने में कदाचित् ही कभी मानवी बुद्धि समर्थ हो सकें; फिर भी धरती माता उदारतापूर्वक अपनी आन्तरिक स्थिति का थोड़ा-थोड़ा परिचय हमें अनायास ही देती रहती है। माता अपने बच्चों को सहज ही बहुत कुछ सिखाती रहती है। पृथ्वी कभी अपनी अविज्ञात सम्पदाओं के बारे में हम मनुष्यों को इशारा करती रहती है और बताती रहती है कि वे चाहें तो इन संकेतों को समझ कर बहुत हद तक लाभान्वित होते रह सकते हैं।

भूमिगत खनिजों के सम्बन्ध में उस क्षेत्र में उगे हुए पेड़-पौधे का विश्लेषण करके भी जानकारी प्राप्त कर सकना सम्भव हो गया है। अमुक खनिज अथवा रसायन का बाहुल्य होने से अमुक वृक्ष या वनस्पति अधिक उगते और बढ़ते हैं। इस विज्ञान का क्रमशः अधिकाधिक विकास होता जाता है।

ब्रिटिश कोलम्बिया के पहाड़ी प्रदेश में ऐसे वृक्ष पाये गये जिनके तनों तथा पत्ते में स्वर्ण मिश्रित रसायन पाये गये ।इन वृक्षों के नाम हैं डग्लसफर, ड्वार्फ ज्युनियर, लार्जपोल पाइन, फीलेपाइन, इन वृक्षों के समीपवर्ती क्षेत्र की तलाश करने पर वहाँ सोने की खदानें पाई गई। इसी प्रकार न्यू मैक्सिको में पाये जाने वाले प्रिंस व्लूम, टबल, मर्स्टड, पेप्पर ग्राप्त आदि पौधों में गन्धक की अधिक मात्रा देखकर उस क्षेत्र में गन्धक की खदानें ढूँढ़ ली गई। कैलीफोर्निया में पाई गई ताँबे की खदानों का सुराग वहाँ पाये जाने वाले ‘पोपी’ वृक्ष के विश्लेषण से ही चला था।

भगवान का बनाया हुआ यह विश्व ब्रह्माण्ड चमत्कारी और रहस्यों से भरा पड़ा है। उसकी एक छोटी सी गुड़िया अपनी धरती है। उसे कितनी कारीगरी से बनाया गया और कितने रहस्यों से सँजोया गया है इसे देखकर अपनी बुद्धि चकित रह जाती है। धरती की भीतरी और बाहरी गतिविधियों का थोड़ा-सा परिचय जानने पर हम अवाक् रह जाते हैं और सोचते हैं जो जाना गया है उससे असंख्य गुना जानने के लिए शेष है।

इस जगत में जड़ के नाम से जाना गया भाग भी वस्तुतः चेतन है। उसमें चेतन की सारी विशेषताएँ विद्यमान है। अपनी धरती जड़ समझी जाती है पर थोड़े गहन निरीक्षण से पता चलता है कि उसमें, चेतन में पाये जाने वाले समस्त गुण मौजूद है। ब्रह्माण्ड के पिण्ड रहस्य कितने असीम है और मानव बुद्धि कितनी ससीम है; इसका थोड़ा-सा आभास तब मिलता है जब हम अपनी चिरसंगिनी धरती माता के अद्भुत रहस्यों के सम्बन्ध में मिलती आ रही जानकारी पर विचार करते हैं।

अपने बुद्धि बल पर इतराने वाले मनुष्य को प्रकृतिगत रहस्य व्यंगपूर्वक मुसकराहट के साथ देखते हैं और कहते हैं परमेश्वर की संरचना के रहस्य तुम्हारी परिधि से बहुत अधिक और बहुत बड़े हैं। उदाहरण के लिए धरती सम्बन्धी जो जानकारियाँ मिल रही है वे भी हमें आश्चर्यचकित कर देने के लिए कम नहीं है।


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