सफलता प्राप्त करने के लिये अभीष्ट योग्यता सम्पादित करें

January 1975

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कुछ अपंग विक्षिप्त ओर जन्म-जात अविकसित लोगों को छोड़कर कोई भी सामान्य स्तर का मनुष्य ऐसा नहीं है जिसमें अभीष्ट दिशा में प्रगति कर सकने की क्षमता विद्यमान न हो। अगणित सामर्थ्य मनुष्य में बीज रूप में विद्यमान रहती हैं। उन्हें उभार कर ऊपर लाने और क्रियात्मक जीवन में अपनी भूमिका निभा सकने योग्य बनाया-विकसित करना-अपने प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं मनोबल के ऊपर निर्भर है। यदि सच्चे मन से किन्हीं योग्यताओं के विकसित करने का संकल्प एवं प्रयत्न किया जाय तो कोई कारण नहीं कि आज का अयोग्य समझा जाने वाला व्यक्ति कल सुयोग्य न बन सके।

लोग तरह-तरह के मनोरथ करते हैं और विविध-विधि सुख-साधन प्राप्त करना चाहते हैं। सफल एवं समुन्नत बनना चाहते हैं। पर चाहना ही तो पर्याप्त नहीं। चाहना और सफलता के बीच में एक चौड़ी खाई है; जिसे पाटने से ही बात बनती है। अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर सकने के लिए आवश्यक योग्यता सम्पादन करना अनिवार्य है इसके बिना हम भविष्य की सुखद कल्पनाएं करते रहने वाले स्वप्नदर्शी भर बने रहेंगे। सफलताएँ अनायास ही किसी को नहीं मिली वे तो उपयुक्त समर्थता सम्पादन करने वाले को दैवी उपहार की तरह मिला करती हैं।

योग्यता को दो भागों में बाँट सकते हैं एक मनस्विता दूसरी प्रयास परायणता, समर्थता का प्रथम चरण मनोबल है। जिसके आधार पर वर्तमान परिस्थिति और प्रगति की दिशा में बढ़ने वाले कदम का तालमेल बिठाना पड़ता है। आरम्भ तो वहीं से हो सकता है जहाँ हम आज है। भविष्य में जब यह परिस्थितियाँ प्राप्त होंगी तब यह आरम्भ करेंगे इस तरह सोचना व्यर्थ है। वे कल्पित परिस्थितियाँ सम्भव है कभी भी न आवें और जिधर बढ़ना चाहते हैं उधर बढ़ सकना सम्भव ही न हो सके। इसलिये आगत की प्रतीक्षा को छोड़कर विचार यही करना चाहिए कि आज हम जहाँ हैं वहाँ से-उन्हीं साधनों से क्या कुछ किया जा सकता है। जो कर सकना आज सम्भव है वस्तुतः वही यथार्थ है। मनस्वी वह है जो यथार्थवाद को अपनाकर चलता है और अपने आज के साधनों की परिधि से आगे बढ़ने का प्रयास करता है।

जो करना है उसके गुण, दोषों पर-भली बुरी सम्भावनाओं पर हजार बार विचार करना चाहिए। उजेले ओर अँधेरे पक्षों की गम्भीरतापूर्वक विवेचना करनी चाहिए। इसमें थोड़ी देर लगती हो तो हर्ज नहीं। आवेशग्रस्त उतावली, मनःस्थिति में बढ़े-चढ़े निर्णय कर डालना और फिर प्रस्तुत कठिनाइयों को देखकर निराश हो बैठना बचकाना तरीका है। इससे अपनी हिम्मत टूटती है और जग हँसाई होती है। एक पक्षीय विचार करने की दुर्बलता ही अक्सर ऐसे कदम उठा देती है जो वर्तमान परिस्थितियोँ में नहीं उठाये जाने चाहिए थे। मनोबल का प्रथम कार्य आवेशग्रस्त उतावलेपन पर नियन्त्रण रखना और जो सम्भव है उसके गुण, दोषों पर विचार करने के उपरान्त किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचना है। मनस्वी दूरदर्शी होते हैं और विवेकवान भी। इसलिए उनके निर्णयों के पीछे व्यावहारिकता का पुट रहता है। अतएव उनके संकल्प भले ही छोटे स्तर के हाँ पर सफल होकर रहते हैं।

मनस्वी जो निर्णय करते हैं उस पर दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहते हैं। आवश्यक साधन जुटाने के लिए सूझ-बूझ का पूरा प्रयोग करते हैं और प्रयास प्रयत्नों में किसी प्रकार की कभी नहीं रहने देते। आलस्य और प्रमाद ही प्रायः प्रगतिशीलता के मार्ग में सबसे अधिक बाधा करते हैं। समझ कर काम न करना- पूरे मन और पूरे श्रम से काम न करना- बेगार भुगतने की तरह मंद उत्साह और मंद गति से काम करना-यह सब आलस्य के चिन्ह है। आधे अधूरे काम करने का दुर्गुण क्रियाशीलता का ऐसा कलंक है जो किये गये प्रयास को चौपट करके रख देता है। करना तो पूरे मन से करना न करना तो न करने वाली नीति अपनाकर चलने वाले-आलसी आदतों के साथ कुछ-कुछ करते रहने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ में रहते हैं। शरीर का आलस्य और मन का प्रमाद जुड़वा भाई है। मन में उत्साह न हो और शरीर काम करता रहे तो उसका परिणाम जेल में रहने वाले कैदियों द्वारा बेगार भुगतने के लिए किये जाने वाले कामों की तरह अपर्याप्त और अनुपयुक्त ही रहेगा। मन लगाकर पूरी दिलचस्पी के साथ-व्यवस्थापूर्वक काम न करना और उसे अधूरा लंगड़ा रहने देना मानसिक प्रमाद का चिन्ह है। ऐसे लोगों को यह सूझता ही नहीं कि प्रस्तुत कार्य को कैसे अधिक सुन्दर और अच्छे स्तर का बनाया जा सकता है। मनस्वी व्यक्ति को आलस्य और प्रमाद से जूझना पड़ता है और अपनी शारीरिक, मानसिक तत्परता को इतना प्रखर बनाना पड़ता है कि उसकी धार तेज तलवार की तरह जौहर दिखाती हुई विजय श्री प्राप्त करके ही रहे।

हिम्मत, बहादुरी दूरदर्शिता और दिलचस्पी के साथ जो भी काम किये जायेंगे वे सफल होकर रहेंगे। मनस्वी सर्वप्रथम अपनी स्वभाव जन्य दुर्बलता पर विजय प्राप्त करके अपनी योग्यता की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। उन्हें दूसरी परीक्षा यह देनी पड़ती है कि जिस कार्य को हाथ में लिया गया है उसके लिए आवश्यक ज्ञान-अनुभव एवं अभ्यास का उपार्जन करें। इसके बिना अनगढ़ और अनजान मनःस्थिति में केवल भटकाव ही हाथ लगेगा। अँधेरे में ढेला फेंकते रहने से निशाना कहाँ लगता है।

जो करना है उसके लिए आवश्यक कौशल उपलब्ध किया जाना चाहिए और इस मार्ग में कहाँ, कब, कैसे, क्यों उतार-चढ़ाव आते हैं उन्हें समझा जाना चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि उन अवरोधों से निपटने का तरीका क्या है? नौकरों अथवा साथियों की योग्यता एवं जानकारी पर पूरी तरह निर्भर रहना, स्वयं उस विषय में अनजान रहना ठीक नहीं। मनस्वी व्यक्ति सफल जीवन के लिए योग्यता संपादन में इस तथ्य को भी जुड़ा रखते हैं कि जिस कार्य को हाथ में लिया गया है उसके लिए अधिकाधिक योग्यता, कुशलता एवं जानकारी का संग्रह किया जाता रहें।

सफलता के लिए व्यवस्था बुद्धि की अत्यधिक आवश्यकता रहती है। काम करने के साधन यदि कम हैं तो उस कमी के अनुपात से कार्य का विस्तार घटाना अथवा जिस-तिस प्रकार साधन जुटाना; यही दो पहिये हैं जिन पर प्रगति की गाड़ी आगे चलती है। कार्य तो साधन जुटाने से ही सम्भव होता है। साधन और कार्य विस्तार का तालमेल बिठाना व्यवस्था बुद्धि पर निर्भर है। कम साधनों से अधिक कार्य कैसे सम्भव हो सकता है, ढूँढ़-खोज करने पर इस की भी कई तरकीबें हाथ लग जाती हैं। सिलसिले बार सम्भालकर आवश्यक देखभाल और हिसाब-किताब के साथ योजनाबद्ध रीति से काम करने का ढर्रा बनाया जाय तो उसमें आशातीत सफलता मिलेगी। समय की चोरी तो नहीं होती, वस्तुओं की चोरी तो नहीं होती इन दो सतर्कताओं को तो रखना ही चाहिए, साथ ही यह भी न भूल जाना चाहिए कि काम बेगार भुगतने की तरह तो नहीं निपटाया जा रहा है और असुरक्षित अधूरी स्थिति में बिखरा छोड़कर चल देने वाली अवांछनीयता तो नहीं घुस पड़ी है। यह ऐसी बुरी आदतें हैं जिनके कारण उसी कार्य में अपने को भारी घाटा उठाना पड़ता है जिसमें दूसरे लोग पर्याप्त लाभ उठा रहे थे और सफल हो रहे थे। अव्यवस्था को दरिद्रता की सगी बहिन कहना चाहिए। बड़ी बहिन अव्यवस्था है और छोटी दरिद्रता। बड़ी बहिन को छोटी बहिन प्राणों से प्यारी है जहाँ वह रहेगी छोटी बहिन भी देर सवेर में जा ही पहुँचेगी।

अधिक मात्रा में-अधिक सस्ता उपार्जन करना आमतौर से अधिक लाभदायक समझा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि इस भगदड़ में घटिया वस्तुएँ ही बनेंगी। सस्ते मोल में घटिया चीजें खरीदने वाले यों रहते तो सदा ही हैं, पर वे कुछ ही समय में यह समझ जाते हैं यह नीति उसकी अपेक्षा कहीं अधिक महंगी पड़ती है जिसमें बढ़िया चीजें खरीदने की प्राथमिकता दी जाती है भले ही उनके लिए कुछ अधिक मूल्य चुकाना पड़े। समझदारी जहाँ भी होगी वहाँ अच्छे स्तर के उपार्जन का सम्मान किया जायगा और उसके लिए कुछ अधिक मूल्य भी खुशी-खुशी चुकाया जायगा। यह तथ्य जिनने समझ लिया है वे ‘घटिया किन्तु सस्ता’ काम करने की अपेक्षा ‘बढ़िया भले ही महंगा’ की नीति अपनाते हैं। इस नीति से व्यापारिक, सामाजिक, शारीरिक आदि किसी भी क्षेत्र में जो भी काम किया जायगा वह सफल रहेगा और सम्मानास्पद भी समझा जायगा। ऊँचा और अच्छा काम करने की साख जमा लेने पर क्या श्रमिक, क्या व्यापारी, क्या समाज-सेवी, हर किसी को अन्ततः अभीष्ट सफलता का लाभ मिलता है। आरम्भिक दिनों में अपनी प्रामाणिकता और काम की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए अवश्य ही अधिक धैर्य और अधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ती है। पर पीछे लोग उसी से आश्वस्त रहते हैं और उत्साहवर्धक सहयोग प्रदान करते हैं।

किसी प्रकार सफलता प्राप्त करने की नीति बुरी है। अधिक जल्दी और अधिक लाभ प्राप्त करने की धुन में लोग अनैतिक काम करने पर उतारू हो जाते हैं और अपराधियों जैसी गतिविधियाँ अपनाते हैं। सम्भव है उससे आरम्भ में कुछ लाभ भी रहे, पर पीछे वस्तुस्थिति प्रकाश में आते ही वह बालू का महल पूरी तरह धराशायी हो जाता है। निन्दनीय और अप्रामाणिक ठहराया गया व्यक्ति हर किसी की आँखों से गिर जाता है। उसका नैतिक पतन न केवल व्यक्तित्व को ही अवाँछनीय ठहराता है वरन् उसके किये कामों में भी अविश्वसनीयता का ढिंढोरा पीटता है। ऐसे व्यक्तियों को एक प्रकार से सामाजिक पक्षाघात ग्रसित ही कहना चाहिए। उनके कार्य जब अविश्वस्त ठहराये जाने लगें तो फिर एक से दूसरे तक वह हवा उड़ेगी और हर कोई सतर्क रहने एवं बचने का प्रयत्न करेगा ऐसी दशा में उन्हें असहाय, असफल की तरह सदा तिरस्कृत बहिष्कृत ही रहना पड़ेगा। तब वे बार-बार वेष बदलने अथवा काम बदलने पर भी कोई अच्छी सफलता न पा सकेंगे। जिसने अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करके लोक विश्वास अर्जित नहीं किया समझना चाहिए उसकी कमाई उड़ते हुए तिनके की तरह है, जिसे स्थिरता का लाभ कभी भी न मिल सकेगा।

सफल, प्रगतिशील विकासोन्मुख और सम्मानित जीवन-यापन करना जिन्हें अभीष्ट हो उन्हें इसके लिए अन्तरंग से छिपे हुए सामर्थ्य बीजों को अंकुरित करने का प्रयत्न करना चाहिए। वे आमतौर से उपेक्षित पड़े रहते हैं, लोग बाह्य साधनों में सफलताओं की सम्भावना एवं कामनाओं की पूर्ति के आधार ढूँढ़ते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि वे आधार बाहर नहीं भीतर है जिनसे व्यक्तित्व को विकसित करना सम्भव होता है और सफलताओं के रुके हुए द्वार खुलते हैं।

बाहरी साधनों की, व्यक्तियों के सहयोग की, परिस्थितियों की, अनुकूलता की आवश्यकता रहेगी ही और सफलता के लिए उन्हें जुटाने की बाह्य क्षेत्र में भी चेष्टा करनी ही पड़ेगी, पर इतने से ही काम चलने वाला नहीं है। इन सबके साथ मूल आधार पर भी ध्यान देना होगा, वह है अपना परिष्कृत व्यक्तित्व। भौतिक सफलताओं की दृष्टि से परिष्कृत व्यक्तित्व की परिभाषा, प्रखर मनस्विता और प्रयत्नों की समस्वरता के रूप में ही की जा सकती है। हमारी मनःस्थिति न तो उथली होनी चाहिए और न असन्तुलित। इसी प्रकार हमारी चेष्टाएँ न तो आलस्य प्रमाद से घिरी हुई हों और न उनमें अदूरदर्शिता एवं अव्यवस्था का ही समावेश हो। आंतरिक स्थिति को सही बनाने का प्रथम चरण पूर्ण होते ही बाह्य परिस्थितियों में आशाजनक अनुकूलता उत्पन्न होती है और प्रगति का पथ अनवरत रूप से प्रशस्त होता चला जाता है।


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