संसार के वे पदार्थ हमें दिखाई पड़ते हैं जो स्थूल हैं। उनके भीतर काम करने वाली सत्ता जो सूक्ष्म में सन्निहित है न तो आँख से दिखाई देती है और न प्रत्यक्ष उपकरणों के समझ में आती है। जो सशक्त है वह सूक्ष्म है, स्थूल तो उसका आवरण है। काया को हम देख पाते हैं और मनुष्य को उसके कलेवर के रूप में ही पहचानते हैं, पर असली चेतना तो प्राण हैं जो न तो दिखाई पड़ता है और न उसका स्तर सहज ही समझ में आता है। जो सूक्ष्म है वही शक्ति को स्रोत हैं, उसे समझने और उपभोग करने के लिये अधिक गम्भीर और वेधक दृष्टि चाहिए। उसका उपयोग करने तथा उससे लाभान्वित होने के लिये तो और भी अधिक पैनी दृष्टि चाहिए।
चिकित्सा पद्धतियों में से सूक्ष्मता पर अवलम्बित एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होम्योपैथी की है। उसमें विष को विष से मारने की- काँटे से काँटा निकालने की- शठेशाठ्याँ समाचरेत् की नीति को मान्यता दी गई है, साथ ही यह भी प्रतिपादन किया गया है कि वस्तु के स्थूल कलेवर में जितनी सामर्थ्य है उसकी अपेक्षा उसके अन्तराल में सन्निहित सूक्ष्म शक्ति की गरिमा अत्यधिक है। चिकित्सा में काम आने वाली औषधियों के बारे में भी यही बात है, उन्हें मोटे रूप में सेवन किया जाय तो उसी पदार्थ की सामर्थ्य अनेक गुनी बढ़ जायेगी और अपना चमत्कारी प्रभाव प्रस्तुत करेगी। होम्योपैथी को एक प्रकार से सूक्ष्मता की शक्ति का प्रतिपादन ही कहना चाहिए।
छोटे से बीज में वृक्ष का विशालकाय कलेवर छिपा रहता है, एक शुक्राणु में मनुष्य का सारा ढाँचा पूरी तरह सन्निहित है, अणु की नगण्य सी सत्ता में एक पूरे सौर मण्डल की प्रक्रिया पूरी तरह विद्यमान है। यह सब जानते हुए भी हम ‘सूक्ष्मता की शक्ति’ से एक प्रकार अपरिचित ही बने हुए हैं।
जर्मनी के डा0 हैनियन ने जब होम्योपैथी के और डा0 शुकालत ने वायोकैमी के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए अपनी चिकित्सा पद्धतियों का विवेचन किया तो उनका मजाक उड़ाया गया और विरोध किया गया। भला बाल की नोंक से भी बहुत कम मात्रा में दी गई औषधि भी किसी पर कुछ असर कर सकती है? उतने भर से क्या किसी के कठिन रोग का निवारण हो सकता है?
एक दिन कार्लवोन नागेली ने एक लीटर भाप से उड़ाये हुए एक लीटर पानी में ताँबे के संयोगवश चार पैसे डाल दिये। उस पानी को ऐसे ही उसने अपने बगीचे के स्पाइरोगिर पौधों में डाल दिया। आश्चर्य यह कि वे पौधे कुछ ही मिनटों में मर गये। आखिर पानी में ऐसा क्या विष मिल गया जो इतनी जल्दी इतने पौधे समाप्त हो गये। देखा तो उसमें चार ताँबे के पैसे जरूर पड़े थे। पर इससे क्या, पैसों में तो कोई विष नहीं होता फिर इतने सारे पानी में इतने कम ताँबे का ऐसा क्या असर होता है- फिर ताँबा कोई विष भी तो नहीं है। जो हो, इस संदर्भ में अधिक शोध करना आवश्यक समझा गया। प्रयोगों और विश्लेषणों में यह पाया गया कि अधिक और स्थूल मात्रा की अपेक्षा स्वल्प और सूक्ष्म मात्रा की शक्ति कम नहीं होती वरन् प्रकाराँतर से वह और भी अधिक बढ़ जाती है।
चार्ल्स डार्विन को ‘सूक्ष्म मात्रा सिद्धांत में’ बहुत रुचि थी। एक दिन जब डच विज्ञानी प्रो0 डान्डर ने यह बताया कि एक ग्रेन एट्रोपिन का लाखवाँ भाग भी नेत्र गोलकों पर भारी प्रभाव डालता है तो डार्विन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा और सूक्ष्मता के सिद्धांत के बारे में उन्होंने इससे भी अधिक गहरी दिलचस्पी लेनी आरम्भ कर दी।
डा0 शुकालर अपनी ‘टिशू केमिडीज’ चिकित्सा पद्धति के द्वारा यही प्रतिपादन करते रहे कि मात्रा की सूक्ष्मता में शक्ति की गुणन प्रक्रिया चलती है। फलस्वरूप अधिक शक्ति के लिए अधिक सूक्ष्मीकरण की बात सही ठहरती है।
रसायन शास्त्री लीविंग ने यह सिद्ध किया कि रुग्ण शरीर के तन्तुओं का घनत्व इतना बढ़ जाता है कि उनमें औषधियों का अन्तः प्रवेश कठिनाई से ही हो पाता है। पर यदि अजैव लवणों को उनके प्राकृत रूप में उपयोग किया जाय तो उनकी वेधकता तन्तुओं को प्रभावित कर सकती है। अणुओं के अलग-अलग होने की स्थिति में-अधिक सूक्ष्म होने की स्थिति में वे इस योग्य रहते हैं कि सघनता का वेधन करके प्रभावशाली परिणाम प्रस्तुत कर सकें।
शरीर में जिस अनुपान में जो वस्तु है उससे न्यून अनुपात का पदार्थ यदि सेवन किया जायगा तो उसे शरीर में प्रवेश करने का अवसर मिल जायगा किन्तु यदि उसका गाढ़ापन अथवा घनत्व अधिक होगा तो शोषक छिद्र उसे आत्म-सात करने में असमर्थ रहेंगे। दूध के एक क्वाट्र में एक ग्रेन का छह लाखवाँ भाग ही लौह होता है। बच्चे आधा पाइन्ट दूध पीकर आवश्यक मात्रा में लौह प्राप्त कर लेते हैं। शरीर में क्लोरीन की मात्रा लोहे से भी कम है यदि क्लोरीन या लोहे की स्थूल मात्रा दी जाय तो वह कितने ही कम होने पर भी शरीर के अनुपात से कहीं अधिक होगी और उसका दबाव बुरा प्रभाव उत्पन्न करेगा।
संसार भर में रेडियम धातु कठिनाई से 4-5 ओंस होगी, पर उतने से ही संसार भर के चिकित्सा तथा दूसरे प्रयोजन पूरे किये जाने की योजनाएँ बन रही हैं। रेडियम से निरन्तर निकलने वाला विकिरण अन्ततः समाप्त होगा ही, पर इसमें अब से 25 हजार वर्ष लगेंगे तब कहीं वह शीशे के रूप में ठण्डा हो पायेगा। यही बात धरती पर पाये जाने वाले यूरेनियम के सम्बन्ध में है। उससे भी विकिरण निकलता है। समाप्त तो उसे भी होना है, वह भी ठण्डा होकर शीशा ही बन जायगा, पर इसमें आठ अरब वर्ष लगेंगे। सूक्ष्मता की क्षमता और अवधि कितनी व्यापक और दीर्घकालीन हो सकती है, इसका अनुमान रेडियम और यूरेनियम धातुओं के क्रिया-कलाप को देखकर लगाया जा सकता है।
परमाणु ऊर्जा की प्रतिक्रिया पर बकेरेल, रथरफोर्ड, सौरी, क्यूरी आदि अनेकों मूर्धन्य वैज्ञानिक प्रकाश डाल चुके हैं और कहते रहे हैं-अणु शक्ति मूल ईकाई नहीं है वह जिनके संयोग से बनती है वे एल्फा, बीटा और गामा किरणें ही वस्तुतः शक्ति के मूलभूत उद्गम हैं। अणु संचलना अपने आप में स्थूल भी है और परावलंबी भी उसका उद्गम केन्द्र इन तीन किरणों में है। यदि उन पर नियन्त्रण किया जा सके तो अणु शक्ति के असंख्य गुनी शक्ति करतल गत की जा सकती है।
हमारी स्थूल बुद्धि केवल दृश्यमान स्थूल पदार्थों को ही देख पाती है और उनका मोटा मूल्याँकन करके मोटा उपयोग ही समझ पाती है फलतः सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पदार्थों से हम बहुत मोटा सा ही लाभ ले पाते हैं। कदाचित उनकी सूक्ष्म शक्ति की समझें और उनसे निसृत होने वाली चेतना एवं प्रेरणा को समझें तो हर प्राणी और हर पदार्थ हमें इतना अधिक अनुदान दे सकता है कि सिद्धियों और विभूतियों की किसी प्रकार कमी न रहे।
यज्ञ प्रक्रिया में हव्य पदार्थों को सूक्ष्मतम बनाकर उन्हें प्राण वायु के सहारे शरीर के कण-कण तक पहुँचाने एवं प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है फलतः वे सूक्ष्मीकृत पदार्थ न केवल हमारे स्थूल शरीर की वरन् सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर को भी निरोग एवं बलिष्ठ बनाते हैं। होम्योपैथी से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं सूक्ष्मता के शक्ति सिद्धांतों पर आधारित यज्ञ प्रक्रिया है वह न केवल शरीर की रुग्णता की वरन् अन्तःचेतना पर चढ़ी हुई मलीनता को भी निरस्त करने में चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करती है।
भौतिक विज्ञान स्थूल के अंतर्गत छिपी सूक्ष्म शक्ति को ढूंढ़कर उसे महत्वपूर्ण प्रयोजनों में प्रयुक्त करता है अध्यात्म विज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम में प्रवेश करके उसकी असीम शक्ति का प्रयोग आत्मबल बढ़ाने एवं ब्रह्म तेजस् जमाने में करता है। ब्रह्म विद्या के इस तत्व दर्शक को यदि समझा जा सके तो हम समृद्धियों और विभूतियों से सम्पन्न बनकर देवोपम स्थिति तक पहुँच सकते हैं। होम्योपैथी की सफलता इसका एक बहु प्रचलित उदाहरण हमारे सामने मौजूद है।