आधि−व्याधियों के आक्रमण और उसका बचाव

January 1975

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केन्सर का नाम सुनते ही रोमाँच हो आता है उसे दुसह जलन से जला-जलाकर प्राण लेने वाला मृत्यु दूत ही कह सकते हैं। यह भयानक रोग क्या है? इसका उत्तर संक्षेप में देना ही तो इतना ही कहा जा सकता है- ’चन्द कोशिकाओं की उच्छृंखलता। सामान्यतया शरीर की समस्त कोशिकाएँ अपनी नियम मर्यादा का पालन करती है। और निर्धारित रीति-नीति अपनाकर कार्यरत बनी रहती हैं। किन्तु कभी-कभी उनमें से कुछ को विद्रोह की-मर्यादाओं का उल्लंघन करके उच्छृंखल गतिविधियाँ अपनाने की बात सूझती है। वे व्यवस्था मानने से इनकार कर देती हैं। बेहिसाब बढ़ती हैं और जहाँ उनका स्थान नहीं है वहाँ भी संरक्षकों को धक्का मारती हुई जा धमकती हैं।

शरीर में अरबों कोशिकाएं हैं वे सभी संभ्रांत नागरिकों की तरह अपना काम करती हैं, पर केन्सर की उद्धत कोशिकाएँ चाहे जहाँ पहुँचने और जो चाहे करने पर उतारू रहती हैं फलस्वरूप उनकी उपस्थिति जहाँ भी होती है सामान्य कारोबार ठप्प हो जाता है और गदर जैसा मच जाता है, वे पेट में जा पहुँचे तो पाचन प्रणाली गड़बड़ा जाती है, फेफड़ों में जा धमके तो आक्सीजन की तंगी पड़ती है, गुर्दों में पहुँचें तो सफाई का काम ठप्प, किसी भी अवयव में वे पहुँचें वहाँ के सामान्य क्रिया-कलाप में संकट उत्पन्न कर देती हैं और उनका विद्रोही दल एक प्रकार से विप्लव खड़ा करता है और जहाँ अड्डा जमालें वहाँ सब कुछ विस्मार करके छोड़ती हैं।

केन्सर से बचने का तरीका डाक्टरों ने यह बताया है कि नशेबाजी, उत्तेजक मसालों से भरा आहार और आवेशग्रस्तता से बचा जाय। इन तीन आधारों का सैद्धांतिक अवलम्बन करके हम केन्सर ग्रसित जैसी दुखद जीवन स्थिति से भी बच सकते हैं। हम ऐसे आहार-विहार से चिन्तन और कर्तृत्व से बचें, जो विद्रोह उत्पन्न करता है तो अपना शारीरिक ही नहीं मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी अक्षुण्ण बना रह सकता है।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद संसार में हैजे की बीमारी बेतरह फूटी और उसने लाखों लोगों के प्राण ले लिये। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार सन 1945 से 1950 तक हर वर्ष प्रायः 164000 व्यक्ति हैजे से काल कवलित होते रहे। अब जबकि वह प्रकोप बहुत हलका पड़ गया है तो भी हर वर्ष 14000 मनुष्यों को उदरस्थ कर लेता है। जो बच रहते हैं उनकी संख्या एक लाख से ऊपर है। विश्व स्वास्थ्य संघ ने चेतावनी दी है कि यदि स्वास्थ्य संदर्भ में अस्वच्छता एवं असावधानी को समय रहते न सुधारा गया तो कभी भी पिछले जैसा विस्फोट खड़ा हो सकता है।

पेट में पीड़ा, वमन, सफेद रंग के पतले दस्त, ऐंठन, शरीर में पानी की कमी, आँखों में गड्ढे बैठते जाना, बेचैनी जैसे लक्षणों को देखकर हैजे के प्रकोप का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। यह छूत का रोग एक से दूसरे को लगता है। रोगियों के मल-मूत्र किसी प्रकार जलाशयों में पहुँच जायँ तो उससे भी यह छूत फैल सकती है। हवा के साथ उड़ते हुए यह विषाणु साँस और पात्र भी इस छूत को फैलाते हैं। मक्खियाँ भी इन्हें फैलाने में सहायता करती हैं।

हैजा का तात्कालिक उपचार कुछ भी क्यों न हो, उस विभीषिका से बचने के लिए स्वच्छता का अधिकाधिक ध्यान रखा जाना और गन्दगी को एकत्रित न होने देने के लिए सतर्क रहना, यही वह उपाय है जिससे न केवल हैजा की वरन् दूसरी बीमारियों की भी जड़ काटी जा सकती है।

बहिरंग जीवन की अनेकानेक विकृतियाँ हमारे अन्तरंग जीवन की वमन ही कही जा सकती हैं। अन्दर गंदगी न जमने दें, मलीनता को प्रश्रय न दें और घड़ी-घड़ी स्वच्छता का अभियान जारी रखें तो हैजे के समय उत्पन्न होने वाली प्राणघातक विपत्ति की तरह ही जो विपन्न परिस्थितियां आये दिन सामने खड़ी रहती हैं उनसे सहज ही बचा जा सकता है।

बाह्य जगत में आक्रमणकारी और विघातक तत्व कम नहीं हैं। वे पग-पग पर भरे पड़े हैं। पर वे आक्रमण करने और विजय पाने में सफल तभी होते हैं, जब अपने भीतर उनके लिए गुंजाइश हो। घाव हो तो मक्खी बैठेगी। यह बात टेट्नस जैसे घातक रोग पर भी लागू होती है। सामान्य कूड़े-कबाड़े में उसके कीटाणु प्रचुर परिणाम में विद्यमान रहते हैं, पर वे आक्रमण तभी करते हैं जब शरीर कहीं घाव हो। बाह्य जगत में टेट्नस विषाणुओं की तरह अन्य अगणित दोष, दुर्गुण, पाप अनाचार और विक्षोभ भरे पड़े हैं, पर उनका आक्रमण हर किसी पर सम्भव नहीं हो सकता। वे हमला तभी करते हैं जब अपने भीतर दुर्बलता भरी पड़ी हो। जिस व्यक्तित्व में अवाँछनीयताओं का कड़ा प्रतिरोध करने की शक्ति है उसे सुदृढ़ सुरक्षा दुर्गम बैठे रहने की हर घड़ी अनुभूति होती रहती है।

शरीर में छोटी-मोटी खरोंच लगने पर भी हवा और धूप में उड़ने वाले विषाणु उस जख्म में प्रवेश कर सकते हैं और फिर वहाँ से रक्त में मिलकर अपनी वंशवृद्धि करते हुए प्राणघातक संकटों को खड़ा कर सकते हैं। इसी प्रकार का एक संकट है- ’टेट्नस’ जिसे धनुष टंकार, धनुस्तम्भ, अपतानक आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

जिन विषाणुओं से टेट्नस होता है उन्हें ‘क्लास्ट्रिडियम टेटेनाई’ कहते हैं। घोड़े, बैल आदि के गोबर में यह सदा रहता है यों इसका अस्तित्व मनुष्यों के रक्त में भी कहीं न कहीं रहता ही है। यह वैसिलस इतना ढीठ होता है कि उबलते पानी में जीवित रह सकता है और पाँच प्रतिशत का एसिड घोल भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। वह आक्सीजन के अभाव में ही जीता है। खुली हवा में उसे प्राण गँवाने पड़ते हैं।

टेट्नस का विष मुँह से भी खाया जाय तो उसका कोई असर नहीं होता, पर यदि वह किसी जख्म आदि के द्वारा रक्त में मिल जाय तो भयंकर संकट उत्पन्न कर देता है।

आरम्भ में जख्म के आस-पास जकड़न होती है और झटके लगते हैं, पर पीछे उसका असर सारे शरीर पर होता है और पूरा बदन जकड़ने-इठने लगता है, मुँह का जबड़ा बन्द होने लगता है और रोगी को लगता है मानो उसका सारा शरीर ऐंठा-मरोड़ा जा रहा है। यह कष्ट दौरे के रूप होता है। झटकों की प्रबलता मन्द और बन्द होती है और फिर उठ खड़ी होती है। रोगी मरते समय तक होश में बना रहता है।

टेट्नस की प्रधान औषधि है ‘ए0 टी0 एस0’ की सुई। इसके अतिरिक्त दौरों का प्रकोप कम करने के लिए पैरेल डिहाइड, टालसिरम, लारगेक्टिल, पेन्सलीन, ऐनेस्थीसिया, प्रभृति दवाएँ गोली अथवा सुई के रूप में दी जाती हैं। आक्सीजन देने और श्वाँस नली काटकर श्वाँस अवरोध दूर करने का भी प्रयत्न किया जाता है। पूर्व सावधानी के रूप में लोग ए0 टी0 एस0 की सुई भी लगवा लेते हैं। इतने पर भी इस रोग का उग्र प्रकोप होने पर बहुत कम ही सौभाग्यशाली रोगी बच पाते हैं।

जो बात केन्सर, हैजा और टेट्नस के सम्बन्ध में कही गई है वही समस्त रोगों पर लागू होती है। क्षय, मधुमेह, रक्तचाप, अनिद्रा, अपच, जैसे रोग अब सभ्यता के उपहार की तरह अधिकाँश लोगों पर हावी हो रहे हैं। इसका कारण इन रोगों के कीटाणुओं में आकस्मिक उभार आना नहीं वरन् यह है कि हमारी जीवनचर्या प्रकृति के प्रतिकूल चल रही है और संयम-सन्तुलन से विरत होते चले जा रहे हैं। रोग कीटाणुओं को निरस्त करने वाले उपचार सामने आ रहे हैं सो ठीक हैं, पर रुग्णता के सर्वतोमुखी आक्रमण से बचने के लिए हमें जीवनी शक्ति को सुरक्षित एवं विकसित करने का मार्ग ही अपनाना पड़ेगा । मानसिक रोगों और आन्तरिक उद्वेगों के आक्रमण से बचने के लिए भी हमें उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व से उत्पन्न समर्थता का ही संचय करना पड़ता है।


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