भ्रमजाल से छूटे मायामुक्त हों

January 1975

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माया का प्रस्तार है कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है जो बात जैसी न हो उसे उस तरह से कहना मिथ्या भाषण कहलाता है। इसी प्रकार जो वस्तु जैसी नहीं है उसे वैसी मान बैठना ‘मिथ्या ध्यास’ कहलाता है। संसार को मिथ्या इसी अर्थ में वेदान्तकार ने कहा है प्रकृति परमाणु उनकी हलचल पदार्थ की सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता पर उनकी यथार्थता और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में मोटी बुद्धि को प्रायः को प्रायः भ्रम ही नहीं विपर्यय ही रहता है अपने आप को ईश्वर का अविनाशी अंश अपने भीतर समस्त विभूतियों और परिस्थितियों के बीज केन्द्र मूल सता के रूप में कोई विरले ही मानते हैं। शेष तो शरीराध्यास में ही डूबे रहते हैं। अपने को शरीर और मन मानकर उन्हीं के सुख सन्तोष का साधन जुटाने में निमग्न रहते हैं। यदि इतनी देर भर वस्तुस्थिति विदित होती है कि हम आत्मा है शरीर से अलग है शरीरी परिधान मात्र है अपना कल्याण इन्द्रियजन्य लिप्सा और मनोजन्य लालसा से भिन्न है ता फिर सब कुछ ठीक हो जाता है।

जीवन का लक्ष्य खाओ पीओ मौज करो के अतिरिक्त कुछ और ही रहा होगा यदि हमने अपना अवतरण ईश्वर के सहायक सहयोगी के रूप में उसकी सृष्टि को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए हुआ अनुभव किया होता पर किया क्या जाय बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य पर अदूरदर्शिता और मूर्खता भी उतनी ही सघन बनकर छाई हुई है।

आत्मा में केन्द्रित प्रियता को वस्तुओं में खोजना अबुद्धिमता ही है। जड़ पदार्थों में न कुछ सुखद है और न दुखद। इस तथ्य को थोड़ी सी खोज बीन करने पर सहज ही जाना जा सकता है। और सुख के लिए प्रिय पात्रता के लिए कस्तूरी मृग की तरह बाहर मारे मारे फिरने की अपेक्षा अन्तर्मुखी हुआ जा सकता। तिनके के पीछे ताड़ छिपा होने के इसी आश्चर्य को माया कहा जाता है। माया और कुछ नहीं केवल वह अज्ञान है जो बाहरी मोटी सामने की तात्कालिक बातों को ही देखता हे और कुछ गहराई में उतर कर वस्तुस्थिति समझने का कष्ट उठाने के लिए तत्पर नहीं होता।

तत्वदर्शी ऋषियों ने अनन्त सुख शान्ति की ओर अंगुलि निर्देश करते हुए कहा है अन्वेषक प्रकाश को भीतर की ओर मोड़ दो। कार्लाइल प्रभृति पाश्चात्य दार्शनिक भी यही रहे हैं टर्न द सर्च लाइट इन वार्डस। कठोपनिषद् 2।1।1 में इस महासत्य को समझने और अपनाने के लिए प्रत्येक श्रेयार्थी को परामर्श दिया है -

वस्तुओं और व्यक्तियों में कोई आकर्षण नहीं है अपनी आत्मीयता जिस किसी से भी जुड़ जाती है वही प्रिय लगने लगती है यह तथ्य कितना स्पष्ट किन्तु कितना गुप्त है लोग अमुक व्यक्ति या अमुक वस्तु को रुचिर मधुर मानते हैं और उसे पाने लिपटाने के लिए आकुल व्याकुल रहते हैं। प्राप्त होने पर वह आकुलता जैसे ही घटती है वैसे ही वह आकर्षण तिरोहित हो जात ह। किसी कारण यदि ममत्व हट या घटा जाय तो वही वस्तुतः जो कल तक अत्यधिक प्रिय प्रतीत होती थी और जिसके बिना सब कुछ नीरस लगता था। बेकार और निकम्मी लगने लगेंगी वस्तु या व्यक्ति वही किन्तु प्रियता में आश्चर्यजनक परिवर्तन बहुधा होता रहता है। इसका कारण एक मात्र यही है कि उधर से ममता का आकर्षण कम हो गया।

तह तथ्य यदि समझ जाय तो ममता का आरोपण करके किसी भी वस्तु या व्यक्ति को कितने ही समय तक प्रिय पात्र बनाये रखा जा सकता है। यदि यह आरोपण क्षेत्र बड़ा बनाते चले तो अपने प्रिय पात्रों की मात्रा एवं संख्या आश्चर्यजनक रीति से बढ़ती चली जाएगी और जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही रुचिर मधुर बिखरा पड़ा दिखाई देगा और जीवन क्रम में आशाजनक आनन्द उल्लास भर जायगा। आत्मविद्या के इस रहस्य को जानकर भी लोग अनजान बैठे रहते हैं। आनन्द की खोज में प्रिय पात्रों के पीछे मारे मारे फिरते हैं। यदि इस माया मरीचिका को छोड़ दिया जाय जिसे प्रियपात्र बनाना हो तो उसी पर ममता बखेर दी जाय तो केवल वही व्यक्ति प्रियपात्र रह जायेंगे जिनकी घनिष्ठता समीपता मित्रता वस्तुतः हितकर है।

बिछुड़ने एवं खोने पर प्रायः दुख होता है। यदि समझ लिया जाय कि मिलन की तरह वियोग जन्म की तरह मृत्यु भी अवश्यंभावी है तो उसके लिए पहले से ही तैयार रहा जा सकता है साँस लेते समय भी यह विदित रहता है कि उसे कुछ ही क्षण पश्चात छोड़ना पड़ेगा इसलिए श्वास प्रश्वास की दोनों क्रियाएँ समान प्रतीत होती। न एक में दुख होता न दूसरी में सुख। एक का मरण दूसरे का जन्म है। मृत्यु के रुदन के साथ ही किसी घर का जन्मोत्सव बँधा हुआ है। व्यापार में एक को नफा तब होता है जब दूसरे को घाटा पड़ता है। धूप छाँह की तरह दिन रात की तरह सर्दी गर्मी की तरह यदि मिलन विछोह और हानि लाभ को परस्पर एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से मानकर चला जाय तो राग द्वेष एवं हानि लाभ के सामान्य सृष्टिक्रम में न कुछ प्रिय लगे न अप्रिय। हमारा अज्ञान ही है जो अकारण हर्षोन्मत्त एवं शोक आवेश के ज्वार भाटे में उछलता भटकाता रहता है। यदि मायाबद्ध अशुद्ध चिंतन से छुटकारा मिल जाय और सृष्टि के अनवरत जन्म बुद्धि विनाश के अनिवार्य क्रम को समझ लिया तो मनुष्य शान्त सन्तुलित स्थिर सन्तुष्ट एवं सुखी रह सकता है। ऐसी देवोपम मनोभूमि पल पल में पग पग में स्वर्गीय जीवन की सुखद संवेदनाएं सम्मुख प्रस्तुत किये रह सकती है। चिन्तन में बैठे अज्ञानी बालक के ज्वार से प्रसन्न और भाटा से अप्रसन्न होने की तरह हमें उद्विग्न बनाये रहता है।

मल मूत्र की गठरी के ऊपर प्रकृति ने एक आकर्षण खोल चढ़ाया हुआ है ताकि वह घृणित पिटारा सर्वत्र दुर्गन्ध बखेरता न फिरे। लोग इस आवरण पर मुग्ध हो जाते हैं। रूप यौवन पर लट्टू होते हैं। सौंदर्य की शाश्वत प्यास सुकोमल पुष्प से लेकर बाल सुलभ भोलेपन तक से सर्वत्र सहज ही तृप्त की जा सकती पर विकारी दृष्टि के साथ जुड़ी हुई कामुक लिप्सा नर नारियों को बेतरह उद्विग्न करती रहती है और उन्हें न चलने योग्य मार्ग पर चलाती है। मूत्र त्याग के घृणित अंगों की तनिक सी खुजली न जाने किससे क्या क्या नहीं करा लेती। यदि मोहान्ध दृष्टि का पर्दा उठ सका होता तो शारीरिक रूप यौवन की यौन लिप्सा की मदोन्मत्तता का नशा सहज की उतर जाता और पंचभूतों से बने जड़ कलेवर के पीछे आत्मा की ज्योति जगमगाती दीखती। कामुकता का स्थान पवित्र प्रेम भावनाओं ने ग्रहण कर लिया होता और नर नारी के बीच के सम्बन्ध प्रकृति और पुरुष को तरह एक दूसरे के पूरक बनकर श्रेय साधन में संलग्न रहे होते। आज का नारकीय दाम्पत्य जीवन तब स्वर्गीय सुषमा बखेर रहा होता। ऐसे उच्च आदर्शों को आधार बनाकर बनाये गये गृहस्थ तब स्वर्ग की प्रतिमूर्ति बनकर धरती को आनन्द उल्लास से भर रहे होते ओर नर रत्नों की पीढ़ियां सृजी जातीं। यह पिशाचिनी माया ही है जिसने रूप सौंदर्य को परखने का दृष्टि दोष उत्पन्न करके आत्मतत्व को तिरस्कृत और चमड़ी की चमक को गौरव प्रदान किया है।

अपना स्वरूप अपना लक्ष्य अपना कर्तव्य यदि मनुष्य समझ सका होता तो उसका चिन्तन और कर्तव्य अत्यन्त उच्च कोटि का होता ऐसे नर को नारायण कहा जाता और उसके चरण जहाँ भी पड़ते वहाँ धरती धन्य हो जाती। पर अज्ञान के आवरण को क्या कहा जाय जिसने हमें नर पशु के स्तर पर देखने ओर उसी प्रकार की रीति नीति अपनाने के लिए निष्कृष्टता के गर्त में धकेल दिया है। माया का वही आवरण हमें नारकीय यातनाएँ सहन करते हुए रोता कलपता जीवन व्यतीत करने के लिए विवश करता है।

संसार को जैसा कि हम देखते हैं समझते हैं वह पूर्व प्रचलित भ्रान्त धारणाओं पर और मस्तिष्क सहित इन्द्रियों के ज्ञान पर आधारित है। यदि हम एक बार इन दोनों आधारों की अप्रामाणिकता और अक्षमता को स्वीकार कर ले तथा नये सिरे से अपने सम्बन्ध में सम्बन्धित व्यक्तियों तथा पदार्थों के समस्त विश्व ब्रह्मांड के सम्बन्ध में नये तर्क पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करना संभव करे तो तथ्य बिलकुल दूसरे ही स्तर के सामने आवेंगे और वही प्रतिपादन सोलहों आने सत्य सिद्ध होगा जिसे वेदान्त दर्शन में निर्धारित किया गया है।

जिस प्रकार हर प्रीत को हम देखते हैं कि और हर रात को गहरी नींद में सोते हैं। ठीक उसी प्रकार थोड़ी अधिक विस्तृत भूमिका में जन्म और मरण की प्रक्रिया चलती रहती है। सूर्य हर दिन डूबता उगता है। जीवन भी नियम अवधि में उत्पन्न और समाप्त होता रहता है जिस तरह एक के बाद दूसरे दिन का लम्बा जीवनयापन चलता रहता है। उसी प्रकार एक जन्म के बाद दूसरे जन्म की शृंखला चलती है। यह तथ्य यदि सामने प्रस्तुत रहे तो फिर जीवन की लम्बी शृंखला की योजना इसे ध्यान उज्ज्वल बनाने की सम्भावना सामने हो तो इसके लिए एक दिन के कष्ट कठिनाई से व्यतीत करने की बात किसी को अखरती नहीं ऐसी भूल भी कोई समझदार आदमी नहीं कर सकता कि एक दिन शौक मौज मनाने के लिए कोई ऐसा अवाँछनीय कार्य कर डाला जाय जिसके लिए जीवन के शेष समस्त दिन विपत्ति में फंसकर व्यतीत करने पड़े। मनुष्य जीवन की भोजन व्यवस्था बनाते समय भी यदि यही रीति नीति अपनाई जा सके तो समझना चाहिए कि अनन्त जीवनों की जुड़ हुई शृंखला का स्वरूप समझ लिया जाय। ऐसी दशा में न वस्तुओं से लोभ हो सकता है और न व्यक्तियों के प्रति कर्तव्य पालन का भाव ही मन में उठता रह सकता है।

एक जन्म को ही पूरा जीवन मान बैठने से मनुष्य आज ही जी भरकर शौक मौज करने के लिए आतुर होता है। और भविष्य में अन्धकारमय बनता है यदि अनन्त जीवन में एक एक जन्म को एक दिन की तरह नगण्य महत्व का माना जाय तो फिर विद्यार्थी के विद्याध्ययन पहलवान और कृषक की तरह अनवरत कष्ट साधन करते के लिए उत्साह बना रहेगा और उज्ज्वल भविष्य की आज में आज की कठिनाइयों को तुच्छ माना जायगा। पर होता ऐसा कहाँ है? इसका कारण वर्तमान को ही सब कुछ मान बैठने का मायावादी अज्ञान ही है। इसी में फंसकर मनुष्य दुर्बुद्धि अपनाता और पापकर्म करता है। यदि माया का पर्दा हट जाय तो फिर बाल क्रीड़ाओं को छोड़ कर वयस्कों और बुद्धिमानों जैसी गति विधियाँ अपनाने की ही प्रवृत्ति बनेगी।

हम सब सराय में ठहरे गये मुसाफिरों की तरह की दिन व्यतीत कर रहे हैं। जल प्रवाह में बहते हुए तिनकों की तरह ही इकट्ठे हो गये है। जब मिल ही गये तो सराय के नियमों का सड़क पर चलने के कानूनों का क्षेत्र के नागरिक कर्तव्यों का पालन करना ही पड़ेगा इस दृष्टि के विकसित होकर पर यह अज्ञान हट जाता है कि कोई हमारा है या हम किसी के है। सब ईश्वर के हैं और ईश्वर ही सबका हितू है। प्रत्येक प्राणी अपनी कर्म रज्जु में बंध अपनी धुरी पर धूम रहा है। समय का परिपाक बहुतों को परस्पर जुड़वाता और बिछुड़वाता रहता है। यह सत्य यदि समझ में आ जाय तो न किसी के मोह बंधन में बंधा जाय न बाँधा जायं आत्मीयता के विस्तार द्वारा सम्पन्न होने वाला प्रेम हर किसी पर परिपूर्ण मात्रा में बखेरा जाय पर उसमें विवेक का समुचित पुट रहे। परिवारी लोगों के प्रति अत्यधिक आसक्ति पक्षपात और मोह के कारण उन्हें अनुचित लाभ देने की जो प्रवृत्ति पाई जाती है उससे हर किसी का घोर अहित होता है। मुफ्त में अनावश्यक सहायता पाकर परिवार के लोग मुफ्तखोर बनते हैं और अपने श्रम साधनों से जो लोक मंगल सम्भव था उससे समाज को वंचित रहना पड़ता है। और व्यक्ति परमार्थ का कल्याणकारी लाभ लेने से वंचित रह जाता है। यह माया बंधनों का परिणाम ही है जिसने मोह जाल में जकड़ पर विश्व हित को श्रेय साधना से वंचित करके पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने में भारी व्यवधान प्रस्तुत किया।

वस्तुएँ हमें इसलिए मिलती है कि उनका श्रेष्ठतम सदुपयोग करके उनसे स्व पर कल्याण की व्यवस्था बनाई जाय। साधन जड़ जगत के अंग है और वे विभिन्न रंग रूप बदलते हुए इस जगत की शोभा बढ़ाते रहने के लिए है। उन्हें अपने गर्व गौरव का विलास वैभव का आधार बनाकर संग्रह करते चले। अहंकार का पोषण तृष्णा की तुष्टि अथवा विलासिता के अभिवर्धन में धन को शारीरिक मानसिक विभूतियों को नियोजित रखा जाय तो उत्कृष्ट जीवन जी सकने का द्वार अवरुद्ध ही बना रहेगा। संकीर्ण और स्वार्थी जिन्दगी ही जी जा सकेगी और इस कुचक्र में यह सुरदुर्लभ अवसर निरर्थक ही चला जायगा।

शरीर और मन को अपना आपा मान बैठना और उसकी वासनाओं तृष्णाओं की पूर्ति में इतना निमग्न हो जाना कि आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य पूरी तरह विस्मृत हो जाय तो दूरदर्शितापूर्ण नहीं है। शारीरिक और मानसिक उपलब्धियों के लिए जितना श्रम किया जाता है और मनोयोग लगाया जाता है जोखिम उठाया जाता है उतना ही विनियोग यदि आत्मोत्कर्ष आदि के लिए आत्मबल सम्पादन के लिए लगाया जा सके तो मनुष्य इसी जीवन में महामानव बन सकता है। और उन विभूतियों को करतलगत कर कसता है हो देवदूतों में पाई जाती है। इतना उच्चकोटि का लाभ छोड़कर नगण्य सी लिप्साओं में डूबे हुए न करने योग्य काम करना उनके कटु कर्म परिपाक सहना किसी विवेकवान के लिए उपयुक्त न होगा। किन्तु देखा जाता है कि अधिकाँश व्यक्ति उचित छोड़कर अनुचित का लाभ छोड़कर हानि का रास्ता अपनाते हैं इसे क्या कहा जाय? यह माया का खेल ही है जिससे भ्रमित होकर मनुष्य जल में थल थल में जल देखने की तरह हानि को लाभ और लाभ को हानि समझता है। अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता है।


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