सुख की अपेक्षा आनन्द पाना श्रेष्ठ भी है और सरल भी

January 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सुख और आनन्द में मौलिक अन्तर हैं। सुख शरीर का मिलता है और आनन्द आत्मा को। सुख, साधनों पर निर्भर है और आनन्द दृष्टिकोण पर

जिसके पास जितने अधिक सुविधाजनक साधन होंगे वह उतना ही सुखी ही सुखी कहा जा सकेगा। इन्द्रियाँ इन सुखों की अनुभूति करती हैं। उनकी भूख जितनी होती है और तृप्ति का अनुपात जितना होता है उसी हिसाब से सुख अनुभव किया जाता है इन्द्रियाँ शिथिल हो जायें और विविध प्रकार के तृप्ति साधन उपलब्ध हों तो भी सुख न मिलेगा और इन्द्रियों की माँग प्रबल हो किन्तु साधन उससे हलके पड़ते हों तो भी तृप्तिदायक सुखानुभूति में व्यवधान ही पड़ा रहेगा। कौन कितना सुखी है इसे नापने के लिए यह पता लगाना पड़ेगा कि किस की आकाँक्षाएँ कितनी प्रबल थीं और उसके अनुपात से उपभोग की व्यवस्था कितनी मात्रा में सम्भव हो सकी।

मस्तिष्क को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया हैं स्वादेन्द्रिय, कामेन्द्रिय आदि दसों इन्द्रियाँ अपने-अपने भोग और रसपान के लिए जिस प्रकार लालायित रहती है उसी प्रकार मन इन्द्रिय भी संग्रह की तृष्णा और बड़प्पन की अहंता के लिए आतुर रहती हैं स्वादिष्ट व्यंजन पाकर जीभ को सन्तोष होता है कामुक विषयासक्ति से कामेन्द्रिय की लिप्सा पूरी होती हैं। कण, नेत्र आदि भी अपने-अपने विषयों की पूर्ति चाहते हैं। जितने क्षणों जितनी मात्रा में माँग और पूर्ति का तारतम्य अनुकूल बैठता है उतने समय उतनी मात्रा में इन्द्रियजन्य सुखानुभूति होती है। मन की तृष्णा एवं अहंता का उभार जितना ऊँचा होता है उसी हिसाब से तृप्तिदायक साधनों ओर परिस्थितियों की अपेक्षा रहती है। कम आकाँक्षा वाले व्यक्तियों को जितने से तृप्ति मिल जाती है उसकी तुलना में अधिक आकांक्षा वाले को उतने ही साधन ओछे पड़ते हैं और सन्तोषजनक रहते हैं किसको कितना सुख कितनी साधन सामग्री मिलेगी इसका कोई माप दण्ड नहीं रखा जा सकता। तृष्णा एवं अभिलाषा बढ़ेगी तो साधन की उपलब्धि भी उतनी ही अधिक बढ़ने की अपेक्षा रहेगी अभिलाषा बढ़ती रहे तो संसार से सारे सुख-साधन मिलकर भी एक आदमी को सन्तोष दे सकने की दृष्टि से अपर्याप्त रहेंगे।

इसलिए सुखाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यह आवश्यक माना जाता रहा है कि अभिलाषाएँ घटाई जायें- आवश्यकताएं कम की जायें- ताकि स्वल्प साधनों में भी सुख-सन्तोष अनुभव किया जा सके। इसके विपरित अधिक बढ़ी अभिलाषाओं के लिए अत्यधिक साधन जुटाने का विकल्प अत्यन्त कष्टसाध्य होगा। पूर्ति के साथ-साथ आकाँक्षा बढ़ेगी और प्रस्तुत साधन अपर्याप्त लगेंगे ऐसी दशा में तृप्ति को राहत नहीं मिलेगी। तालाब में पानी जितना बढ़ता है कमल की बेल उसी हिसाब से ऊपर उठ आती है ओर पत्ते पानी में डूबने ही नहीं पाते। ठीक इसी तरह साधनों का जल, जीवन के तालाब में कितना ही बढ़ता जाय उपभोग की ललक का कमल पत्र उतना की ऊपर उठ आवेगा और उसकी स्थिति जल में डूबने से वंचित ही बनी रहेगी। इस प्रकार सुखाकाँक्षा की पूर्ति कभी किसी की नहीं हो सकेगी अब तक हुई भी नहीं है। इस दिशा में संतोष लाभ करना उन्हीं के लिए सम्भव हुआ है जिन्होंने इच्छाओं को -तृष्णा एवं वासना को घटाकर उपलब्ध साधनों की तुलना में कुछ नीचे स्तर पर ही रखा हैं ऐसे ही लोग इस संसार में रहकर किसी कदर सुख अनुभव कर सकते हैं अन्यथा अपर्याप्त और अतृप्ति की रट लगाये हुए अभावों की जलन में जलते हुए ही जिन्दगी बितानी पड़ती है।

आनन्द की प्राप्ति में ऐसा कोई व्यवधान नहीं है। आदर्शवादी क्रिया-कलाप अपनाने की प्रेरणा दे सकने में समर्थ उत्कृष्ट विचारधारा अब मस्तिष्क में घुमड़ती है तो वह सहज ही हमें सामान्य धरातल से ऊँचा उठा कर उस भावना लोक में पहुँचा देती है जिसे पौराणिक भाषा में स्वर्ग कहा जाता रहा हैं स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं है। वह कल्पना अब अवास्तविक सिद्ध हो चुकी है जिसके अनुसार किन्हीं लोक विशेषों को स्वर्ग बताया गया और कहा था स्वादेन्द्रिय, कामेन्द्रिय की इस लोक में अतृप्त रहने वाली लिप्साओं को पूर्ण कर सकने वाली साधन सामग्री प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। वह बात इसलिए भी बेतुकी ठहरती है कि जब स्थूल शरीर ही समाप्त हो गया और उसकी इन्द्रियाँ ही जल या गल गई तो फिर स्वर्ग की, भोग सामग्री का उपभोग किस प्रकार सम्भव हो सकेगा। मरने के बाद जो सूक्ष्म शरीर रहता है वह चिन्तन के चेतन तत्वों से बना होता है उसे यदि कुछ सुखद अनुभूति हो सकती है तो उसका आधार उत्कृष्ट चिन्तन का अवसर देने वाली परिस्थितियाँ ही होनी चाहिए स्वर्ग में जिस प्रकार के आनन्द का वर्णन किया जाता है उस प्रकार का ता नहीं पर उच्च लोक में ऐसा वातावरण हो सकता है जहाँ उच्च दृष्टिकोण बनाये रहने की स्थिति हो और वहाँ निरन्तर आनन्द मग्न वाली अनुभूति मिलती रहें।

ऐसा स्वर्ग मरने के बाद किसे, कब, कितनी अवधि के लिए मिलेगा यह सब अनिश्चित है। फिर जो अवसर किसी दूसरी सत्ता ने दिया है उसके छिनने का भी भय बना ही रहेगा। पराये अनुग्रह से मिली सफलता उनके अहसान से लदी रहती है जिनने कृपापूर्वक वैसा अनुदान प्रदान किया। यह अहसान से लदी सफलता नीरस हो जाती है क्योंकि उस पर परावलम्बन का -दूसरों के अनुग्रह का भारी बोझ लदा होता है। उसमें लज्जा खोकर देवताओं का दिया स्वर्ग अनुदान किसी स्वाभिमानी को कदाचित् ही कुछ अधिक सुखद अनुभव होगा।

तृप्तिदायक स्वर्ग वही होगा जिसे अपने हाथों बनाया आरे अपने पुरुषार्थ से कमाया गया हों अपने निकृष्ट चिन्तन और हेय क्रिया-कलाप से व्यक्तित्व को सुसज्जित-सुसंस्कृत बनाया जा सके तो उस सफलता के साथ जुड़ी हुई सरस अनुभूतियों का रसास्वादन निरन्तर होता रहेगा। यही वास्तविक स्वर्ग है।

आनन्द की उपलब्धि के लिए अमुक साधनों की-अमुक परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके लिए अपना चिन्तन और अपना स्तर ही पर्याप्त होता है। पुष्प की कोमलता, सुषमा ओर सुगन्ध ही उसे हँसते-खिलते रहने के लिए पर्याप्त हैं। उस पर किसी दूसरे द्वारा रंग पोता जाना या सुगन्ध छिड़का जाना अभीष्ट नहीं आदर्शवादी व्यक्तित्व खिले हुए सुगन्धित पुष्प की तरह है जो स्वयं भी धन्य होता है और संपर्क में आने वालों को भी आनन्द प्रदान करता है। ऐसे व्यक्तियों को देव कहा जा सकता है और उनके निवास क्षेत्र को बिना संकोच स्वर्ग घोषित किया जा सकता है। प्रखर विचारों में वह क्षमता होती ही है जिसके आधार पर संपर्क क्षेत्र को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत किया जा सके।

अपने व्यक्तित्व को आनन्दमय बनाने के लिए संयम, सदाचार, कर्त्तव्य निष्ठा, आत्मीयता, करुणा, जैसी सद्भावनाओं को अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता पड़ती है। संपर्क क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए नम्रता, प्रामाणिकता और पुरुषार्थ परायणता जहाँ भी होगी वहाँ विविध सफलताएँ अनायास ही उपलब्ध होती रहेंगी और जन सहयोग एवं लोक सम्मान का भी अभाव न रहेगा। ऐसी परिस्थितियों को प्रत्यक्ष स्वर्ग कहा जा सकता है। इसका विनिर्मित करना किसी के लिए भी कठिन नहीं है। सुख-साधनों की -भौतिक सफलताओं की प्राप्ति में कई प्रकार की अड़चने तथा आशंकाएं हो सकती है पर अपने मनःक्षेत्र की आदर्शवादी चिन्तन से भरे रखने में और सज्जनोचित आचरण करने में न तो कोई व्यक्ति बाधक हो सकता है और न कारणं आनन्द, उल्लास की स्वर्गीय परिस्थितियाँ यदि हमें सचमुच अभीष्ट हों तो थोड़ा साहस जुटायें और अपने अन्तरंग, बहिरंग जीवनक्रम का परिष्कृत परिवर्तन कर डालें। तब स्वर्ग जैसी आनन्दमयी रसानुभूति हमें हर घड़ी उपलब्ध होती रहेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118