भाग्यवाद ओर अहितकर भी और अवास्तविक भी

January 1975

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लोग भाग्य की सराहना और निन्दा करते नहीं थकते। वे हर सफलता का श्रेय और हर असफलता का दोष भाग्य का देते रहते हैं। जो लोभ मिला उसे भाग्य ने उपस्थित किया और जो हानि हुई उसका दोषी भाग्य ही था, ऐसी चर्चा करते हुए अनेकों को सुना जाता है।

यदि भाग्य इतना ही प्रबल है कि उसे हर सफलता असफलता का कारण कहा समझा जा सके तो फिर पुरुषार्थ का कोई महत्व नहीं रह जाता। तब परिश्रम करना और सूझ बूझ का उपयोग करना बेकार हैं उस सिर फोड़ी अथवा दौड़ धूप से जब कुछ बनने वाला ही नहीं है सब कुछ तो भाग्य लेख के आधार पर होता तो यही उचित प्रतीत होता है कि किसी प्रकार के प्रयत्न पुरुषार्थ के झंझट में न पड़ा जाय। अमिट भाग्य रेख के आधार पर यह मानकर चला जाय कि पेट भरना आवा भूखे मरना सब कुछ विधि के विधान के आधार पर होगा फिर बेकार के झंझट मोल लेने से क्या प्रयोजन। चैन से बैठे बैठे समय क्यों न गुजारा जाय? शरीर और मन को क्यों कष्ट में डाला जाय?

क्या ऐसा सम्भव है? प्रबल भाग्यवादी भी ऐसा नहीं कर सकते। भले ही वे कहते- प्रतिपादित करते- कुछ भी रहें। रोटी कमाने का प्रयत्न न करें- घर परिवार की व्यवस्था न बनायें- परिजनों के बीमार पड़ने पर दवादारु न करें- चोरी और विघ्न कर्ताओं से बचने का प्रयत्न न करें- तो ही यह कहा जा सकेगा कि यह सच्चा भाग्यवादी है। भाग्य और पुरुषार्थ में से एक ही मान्यता दी जा सकती है। दोनों प्रत्यक्षतः एक दूसरे के विपरीत है। भाग्यवादी यदि पुरुषार्थ करता है तो व्यर्थ की विडम्बना करता है। यदि किसी को पुरुषार्थ करता है तो व्यर्थ की विडम्बना करता है। यदि किसी का पुरुषार्थ ही करना पड़ा तो फिर भाग्य पर विश्वास होने वाली बात पूरी तरह कट गई। दोनों को मिलाकर नहीं चला जा सकता। दोनों पक्ष एक दूसरे के विरोधी है।

भाग्यवाद के पक्ष में अधिक से अधिक इतना ही तर्क उपस्थित किया जा सकता है कल का पुरुषार्थ आज पककर भाग्य के रूप में सामने आया कल का जमाया हुआ दूध आज दही बन गया कल का बोया बीज आज अंकुर बनकर उपजा कल का आहार आज रक्त के रूप में परिणत हुआ यह रूपांतरण भाग्य कहा जा कसता है। पर इतने पर भी उसे श्रेय देने की या उस पर आश्रित रहने की बात जरा भी नहीं बनती। दूध न होगा तो दही कहाँ से आ जाएगा? बीज न होगा तो अंकुर कैसे फूटेगा? आहार न मिलेगा तो रक्त किस प्रकार बनेगा? पुरुषार्थ न होगा तो भाग्य की रचना कैसे हो जायगी? ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है और क्रिया की परिणति तकदीर में होती है। वस्तुतः तदवीर ही समय की साड़ी ओढ़े तकदीर के रूप में दीख पड़ती है। उसका स्वतन्त्र रूप से कोई अस्तित्व नहीं।

कल जो किया था उसे आज भोगना पड़ रहा है। यह ठीक है। साथ ही यह भी ठीक है कि आज कर रहे हैं उसका सुनिश्चित परिणाम कल आने ही वाला है। कल का पिसा आटा आज का भोजन बन चुका इसलिए अब कल के लिये आटे की व्यवस्था करने से मुँह मोड़ा जाय इसका कोई औचित्य नहीं।

भाग्यवाद की इतनी ही उपयोगिता है कि आज की असफलताओं को भूतकाल में पुरुषार्थ की कमी का परिणाम समझें और यह प्रेरणा ग्रहण करें कि हमें आलस्य प्रमाद को तनिक भी प्रश्रय नहीं देना चाहिए अन्यथा आज की तरह ही कल भी हमें असफलताओं का मुँह देखना पड़ेगा। कल विषैली चीजें पेट में भरी फलस्वरूप आज पतले दस्त लग गये और पेट में मरोड़ हुई। इस पेचिश को भाग्य का खेल समझ कर जो हाथ पर हाथ रखकर बैठेगा और विधि विधान की चर्चा करते हुए निष्क्रिय बैठेगा वह बेमौत मरेगा। पेचिश का इलाज करने के लिये डाक्टर के पास दौड़ना चाहिए उपचार में संलग्न होना चाहिए ताकि पिछली भूल का परिमार्जन हो सके, साथ ही आगे के लिये सावधान होना चाहिए कि आहार में अमुक प्रकार की भाल करने का दुष्परिणाम यह होता है कि आगे के लिए वैसी गलती फिर न होने पावे। अप्रत्याशित अप्रिय घटनाओं के सामने आने पर यदि भाग्य की चर्चा करनी है तो पेचिश के कष्ट, उपचार और उपदेश के रूप में ही उसका ऊहापोह होना चाहिए।

कर्म विपर्यय का दोष यदि भाग्य के मत्थे थोप कर हम निश्चिन्त बनना चाहेंगे तो यह एक भयंकर भूल होगी। हम भाग्य के गुलाम हैं। विधाता के कर्म रेख पहले से ही लिख रखी है जैसी मान्यताओं की यदि प्रश्रय दिया गया तो उसकी प्रतिक्रिया हमें परावलम्बी और कर्महीन बना देगी। आशा और उत्साह का दीपक बुझा देगी। साहस और पुरुषार्थ को समाप्त कर देगी। तब आत्म-निरीक्षण ओर आत्म-निर्माण की दिशा में सोचते भी न बन पड़ेगा। सब कुछ जब ग्रह-नक्षत्रों की-विधि-विधान की कृपा से होता है तो मानवी कर्म को न तो कोई श्रेय दिया जाना चाहिए और न दोष। फिर हर सफलता, असफलता को विधाता का उपहार, अभिशाप माना जायगा। यदि विधाता किसी को उपहार और किसी को अभिशाप देता है तो इसे उसका भयानक पक्षपात कहा जायगा। प्राणियों के साथ यह उसका क्रूर व्यंग ही हो सकता है।

जब सभी प्राणी, सभी मनुष्य ईश्वर के बनाये हैं- उसी के पुत्र है तो फिर न्याय यही है कि पिता का कर्तव्य पालन करते हुए वह सभी बच्चों के साथ समान नीति अपनाये और दुख-सुख देने की प्रक्रिया किसी औचित्य के आधार पर ही निश्चित करे। किसी को दुखी, किसी को सुखी-किसी को धनी किसी को निर्धन-किसी को समुन्नत किसी को पतित-बनाने का खेल यदि उसने खेला है तो उसे ईश्वर के साथ जुड़े हुए-समदर्शी, करुणासिन्धु-दयानिधान, दीनबन्धु, निष्पक्ष-न्यायकारी आदि विशेषणों से सर्वथा विपरीत क्रूर-कर्मा ही माना जायगा। तब मनुष्यों की सारी विपत्तियों का दोष ईश्वर के मत्थे ही मढ़ा जायगा। तब दूसरों के साथ अनीतिपूर्ण, निर्दयता बरतने वाले दुष्टकर्मा लोगों की पंक्ति में ही ईश्वर को भी खड़ा किया जायगा। ऐसा ईश्वर विक्षिप्त, उन्मत्त अथवा कुकर्मी ही ठहराया जायगा-उसकी आराधना करके वैसा ही स्वयं भी बनने की चेष्टा कोई न्यास निष्ठ व्यक्ति तो करेगा ही नहीं। आतंक से भयभीत होकर गिड़गिड़ाने वाले आर्त भक्तों की बात दूसरी है।

वस्तुतः भाग्यवाद को अधिक महत्व देने-उसमें दिलचस्पी रखने का कोई कारण नहीं। भविष्य पूछने या बताने में कोई सार नहीं। मनुष्य लोहे, पत्थर का बना हुआ नहीं है जो बदला न जा सके और न कोई विधिविधान ऐसा है जिसे टाला, सुधारा न जा सके। उपचार करने पर विष खाने वाले के भी प्राण बच जाते हैं। फिर कोई कारण नहीं कि पिछली भूलों के कारण विनिर्मित हुए परिणाम को-भाग्य को-हटाया, बदला न जा सके। वाल्मीकि-अंगुलिमाल-अजामिल-बिल्व मंगल जैसे हेय स्तर के मनुष्य अपने को साहस पूर्वक बदल सकते हैं और पिछले दिनों दिख पड़ने वाला अन्धकारमय भविष्य एवं घृणित जीवन उलट सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि प्रयत्न पूर्वक सामने प्रस्तुत भाग्य को बदला न जा सके।

कभी-कभी अद्भुत, आश्चर्यजनक, अप्रत्याशित घटनायें ऐसी होती रहती हैं जो मनुष्य के सामान्य क्रिया-कलाप से भिन्न प्रकार के घटना क्रम सामने प्रस्तुत कर देती हैं। संयमी का रोगी हो जाना, पुरुषार्थी का असफल रहना आदि। इन विपर्ययों को अपवाद कह सकते हैं। मन को समाधान न मिलने पर भाग्य का खेल इन्हें कहा जा सकता है और किसी पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ कर्म के साथ उसकी संगति जोड़ कर सामयिक उद्वेग को शान्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त भाग्यवाद की और कोई उपयोगिता नहीं है। कर्मनिष्ठा एवं पुरुषार्थ परायणता-आज्ञा, उत्साह एवं साहस को जो शिथिल बनाता हो ऐसा भाग्य तो निश्चित रूप से अहितकर है- अवास्तविक तो वह है ही।


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