मरने के साथ ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता

July 1974

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भौतिक विज्ञानी यह कहते रहे हैं कि प्राणी एक प्रकार का रासायनिक संयोग है। जब तक पञ्चतत्वों का सन्तुलन क्रम शरीर को जीवित रखता है, तभी तक जीवधारी की सत्ता है। जब शरीर मरता है तो उसके साथ ही जीव भी मर जाता है। शरीर से भिन्न जीव की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।

यह मान्यता मनुष्य को निराश ही नहीं अनैतिक भी बनाती है। जब शरीर के साथ ही मरना है तो फिर जितना मौज-मजा करना है वह क्यों न कर लिया जाय? यदि राजदण्ड या समाज दण्ड से बचा जा सकता है तो पाप-अपराधों के द्वारा अधिक जल्दी—अधिक मात्रा में—अधिक सुख-साधन क्यों न जुटाये जाँय? पुण्य-परमार्थ का जब हाथों हाथ कोई लाभ नहीं मिलता तो उस झंझट में पड़कर धन तथा समय की बर्बादी क्यों की जाय?

आस्तिकता के विचार अगले जन्म में पुण्यफलों की प्राप्ति पर विश्वास करते हैं। इस जन्म में कमाई हुई योग्यता का लाभ अगले जन्म में मिलने की बात सोचते हैं। अस्तु उनके सत्प्रयत्न इसलिए नहीं रुकते कि मरने के बाद इनकी क्या उपयोगिता रहेगी। यह मान्यताएँ मनुष्य को नैतिक, परोपकारी एवं पुरुषार्थी बनाये रखने में बहुत सहायता करती हैं। नास्तिक की दृष्टि में यह सब बेकार है। आज का सुख ही उसके लिए जीवन की सफलता का केन्द्र बिंदु है, भले ही वह किसी भी प्रकार अनैतिक उपयोग से ही क्यों न कमाया गया हो। यह मान्यता व्यक्ति की गरिमा और समाज की सुरक्षा दोनों ही दृष्टि से घातक है।

व्यक्ति की आदर्शवादिता और समाज की स्वस्थ परंपरा बनाये रहने के लिए आन्तिकवादी दर्शन के प्रति जनसाधारण की निष्ठा बनाये रहना आवश्यक है। आस्तिकता का एक महत्वपूर्ण अंग है—मरणोत्तर जीवन। जो इस जन्म में नहीं पाया जा सका वह अगले जन्म में मिल जायगा, यह सोचकर मनुष्य बुरे कर्मों से बचा रहता है और सत्कर्म करने के उत्साह को बनाये रहता है। तत्काल भले-बुरे कर्मों का फल न मिलने के कारण जो निराशा उत्पन्न होती है उसका समाधान पुनर्जन्म की मान्यता सँजोये रहने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं हो सकता। समाज संगठन और शासन-सत्ता में इतने छिद्र है कि भले कर्मों का सत्परिणाम मिलना तो दूर, बुरे कर्मों का दण्ड भी उनके द्वारा दे सकना सम्भव नहीं होता। अपराधी खुल कर खेलते रहते हैं और अपनी चतुरता के आधार पर बिना किसी प्रकार का दण्ड पाये मौज करते रहते हैं। इस स्थिति को देखकर सामान्य मनुष्यों का मन अनीति बरतने और अधिक लाभ उठाने के लिए लालायित होता है। इस पाप-लिप्सा पर अंकुश रखने के लिए ईश्वर के न्याय पर आस्था रखना आवश्यक हो जाता है और उस आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए मरणोत्तर जीवन की मान्यता के बिना काम नहीं चल सकता।

भौतिक विज्ञान ने शरीर के साथ जीव की सत्ता का अन्त हो जाने का जो नास्तिकवादी प्रतिपादन किया है, उसका परिणाम नैतिकता की—परोपकार की सत्प्रवृत्तियों का बाँध तोड़ देने वाली विभीषिका के रूप में सामने आया है। आवश्यकता इस बात की है कि उस भ्रान्त मान्यता को निरस्त किया जाय।

मरणोत्तर जीवन के दो प्रमाण ऐसे हैं जिन्हें प्रत्यक्ष रूप में देखा, समझा और परखा जा सकता है। (1) पुनर्जन्म की स्मृतियाँ (2) प्रेत जीवन का अस्तित्व। समय-समय पर इस प्रकार के प्रमाण मिलते रहते हैं, जिनसे इन दोनों ही तथ्यों की सिद्ध भली प्रकार हो जाती है। मिथ्या कल्पना, अन्ध-विश्वास और किम्बदंतियों की सीमाओं को तोड़ कर प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा किये गये अन्वेषणों से ऐसी घटनाएँ सामने आती रहती हैं जिनसे उपरोक्त दोनों तथ्य भली प्रकार सिद्ध होते रहते हैं।

“आत्मा की खोज” विषय को लेकर विश्व भ्रमण करने वाले अमेरिका के एक विज्ञानवेत्ता डा. स्टीवेंसन कुछ समय पूर्व भारत भी आये थे। पुनर्जन्म को आत्मा के चिरस्थायी अस्तित्व का अच्छा प्रमाण मानते थे। अस्तु उन्होंने भारत को इस शोधकार्य के लिए विशेष रूप से उपयुक्त समझा। भारत की धार्मिक मान्यता में पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया है, इसलिए पिछले जन्म की स्मृतियाँ बताने वाले बालकों की बात यहाँ दिलचस्पी से सुनी जाती है और उससे प्रामाणिक तथ्य उभर कर सामने आते रहते हैं। अन्य देशों में यह स्थिति नहीं है। ईसाई और मुसलमान धर्मो में पुनर्जन्म को मान्यता नहीं है, इसलिए यदि कोई बालक उस तरह की बात करे तो उसे शैतान का प्रकोप समझ कर डरा, धमका दिया जाता है तो उभरते तथ्य समाप्त हो जाते हैं।

डा. स्टीवेंसन ने संसार भर से लगभग 600 ऐसी घटनाएँ एकत्रित की हैं, जिनमें किन्हीं व्यक्तियों द्वारा बताये गये उनके पूर्वजन्मों के अनुभव प्रामाणिक सिद्ध हुए हैं। इनमें 170 प्रमाण अकेले भारत के हैं। इनमें बड़ी आयु के लोग बहुत कम हैं। अधिकाँश तीन से लेकर पाँच वर्ष तक के बालक हैं। नवोदित-कोमल मस्तिष्क पर पूर्वजन्म की छाया अधिक स्पष्ट रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ वर्तमान जन्म की जानकारियाँ इतनी अधिक लद जाती हैं कि उस दबाव से पिछले स्मरण विस्मृति के गर्त में गिरते चले जाते हैं।

पूर्वजन्म का स्मरण किस प्रकार के लोगों को रहता है, इस सम्बन्ध में डा. स्टीवेंसन का मत है कि जिनकी मृत्यु किसी उत्तेजनात्मक आवेशग्रस्त मनःस्थिति में हुई हो उन्हें पिछली स्मृति अधिक याद रहती है। दुर्घटना, हत्या, आत्म-हत्या, प्रतिशोध, कातरता, अतृप्ति, मोहग्रस्तता कहा विक्षुब्ध घटनाक्रम प्राणी की चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं और वे उद्वेग नये जन्म में भी स्मृतिपटल पर उभरते रहते हैं। अधिक प्यार या अधिक द्वेष जिनसे रहा है, वे लोग विशेष रूप से याद रहते हैं।

भय, आशंका, अभिरुचि, बुद्धिमत्ता, कला-कौशल आदि की भी पिछली छाप बनी रहती है। जिस प्रकार की दुर्घटना हुई हो उस स्तर का वातावरण देखते ही अकारण डर लगता है। जैसे किसी की मृत्यु पानी में डूबने से हुई हो तो उसे जलाशयों को देखकर अकारण ही डर लगने लगेगा। जो बिजली कड़कने और गिरने से मरा है, उसे साधारण पटाखों की आवाज भी डराती रहेगी। आकृति की बनावट और शरीर पर जहाँ-तहाँ पाये जाने वाले विशेष चिह्न भी अगले जन्म में उसी प्रकार के पाये जाते हैं। एक स्मृति में पिछले जन्म में पेट का आपरेशन चिह्न अगले जन्म में भी उसी स्थान पर एक विशेष लकीर के रूप में पाया गया। पूर्वजन्म की स्मृति सँजोये रहने वालों में आधे से अधिक ऐसे थे जिनकी मृत्यु पिछले जन्म में बीस वर्ष से कम थी। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भावुक सम्वेदनाएँ समाप्त होती जाती हैं और मनुष्य बहुधंधी, कामकाजी तथा दुनियादार बनता जाता है। भावनात्मक कोमलता जितनी कठोर होती जायगी, उतनी ही उसकी सम्वेदनाएँ झीनी पड़ेगी और स्मृतियां धुँधली पड़ जायेंगी।

डा. स्टीवेंसन के शोधरिकार्ड में एक ऐसी पाँच वर्ष की लड़की की भी घटना थी, जो हिन्दीभाषी परिवार में जन्म लेकर भी बँगला गीत गाती थी और उसी शैली में नृत्य करती थी। जबकि कोई बँगाली उस घर, परिवार के समीप भी नहीं था। इस लड़की ने अपना पूर्वजन्म सिलहट का बताया। इस जन्म में वह जबलपुर पैदा हुई, पर उसने पूर्वजन्म की जो घटनाएँ तथा स्मृतियाँ बताई वे पता लगाने पर 95 प्रतिशत सही हुई।

इंग्लैंड की एक विचित्र पुनर्जन्म घटना कुछ समय पूर्व प्रकाश में आई थी। नार्थम्बरलेण्ड के एक सज्जन पोलक की लड़कियाँ सड़क पर किसी मोटर की चपेट में आकर मर गई थीं। बड़ी 11 वर्ष की थी—जोआना। छोटी छै वर्ष की जैकलीन।

दुर्घटना के कुछ समय बाद श्रीमती पोलक गर्भवती हुई तो उन्हें न जाने क्यों यही लगता रहा कि उनके पेट में दो जुड़वा लड़कियाँ हैं। डाक्टरी जाँच कराई तो वैसा कुछ प्रमाण न मिला। पर पीछे समय पर दो जुड़वा लड़कियाँ ही जन्मी। एक का नाम रखा गिलियन, दूसरी का जेनिफर। इन दोनों के शरीरों पर वे निशान पाये गये जो उनके पूर्वजन्म में थे। इतना ही नहीं, उनकी आदतें भी वैसी ही थीं, जैसी मृत लड़कियों की। इन लड़कियों को मरी हुई बच्चियों के बारे में कुछ बताया नहीं गया था, पर वे बड़े होने पर आपस में पूर्वजन्म की घटनाओं की चर्चा करती हुई पाई गई। समयानुसार उनने पूर्वजन्म के अनेकों संस्मरण बताकर तथा अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं की जानकारी देकर यह सिद्ध किया कि उन दोनों ने पुनर्जन्म लिया है।

कोपल हेरान (डेन मार्क)की एक सात वर्षीय लड़की लीना मार्कोनी अपने पूर्वजन्म की स्मृति का विवरण बताया करती थी। वह अपने को फिलीपीन निवासी किसी होटल मालिक की लड़की कहती थी और पिछले जन्म का नाम मारिया एस्पिना बताती थी। ग्यारह वर्ष की उम्र में वह भरी और फिर यहाँ आकर पैदा हो गई। यह सभी बातें आश्चर्यजनक थीं, विशेषतया ईसाई परिवार की लड़की के लिए जिनमें पुनर्जन्म की मान्यता का प्रचलन नहीं हैं। इस पूर्वजन्म स्मृति के उसके बताये गये देश तथा स्थान में जाकर जाँच-पड़ताल की तो पाया गया कि उसका कथन यथार्थता की कसौटी पर बिलकुल खरा था।

सामान्यतया यह कहा जाता है कि ईसाई और मुसलमान धर्मो में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है, पर उनके धर्मग्रन्थों एवं मान्यताओं पर बारीक दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि प्रकारान्तर से वे भी पुनर्जन्म की वास्तविकता को मान्यता देते हैं और परोक्ष रूप से उसे स्वीकार करते हैं।

प्रो. मैक्समूलर ने अपने ग्रन्थ ‘सिक्स सिस्टम्स आफ इंडियन फिलासफी’ में ऐसे अनेक आधार एवं उद्धरण प्रस्तुत किये हैं जो बताते हैं कि ईसाई धर्म पुनर्जन्म की आस्था से सर्वथा मुक्त नहीं है। प्लेटो और पैथागोरस के दार्शनिक ग्रन्थों में इस मान्यता को स्वीकारा गया है। जौजेक्स ने अपनी पुस्तक में उन यहूदी सेनापतियों का हवाला दिया है जो अपने सैनिकों को मरने के बाद भी फिर पृथ्वी पर जन्म मिलने का आश्वासन देकर उत्साहपूर्वक लड़ने के लिए उभारते थे। ‘विजडम आफ सोलेमन ग्रन्थ’ में महाप्रभु ईसा के वे क थन उद्धत हैं, जिसमें उनने पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया है। उन्होंने अपने शिष्यों से एक दिन कहा था—पिछले जन्म का एलिजा ही अब जाती वैपटिस्ट के रूप में जन्मा था। बाइबिल के चैप्टर 3 पैरा 3−7 में ईसा कहते हैं—’मेरे इस कथन पर आश्चर्य मत करो कि तुम्हें निश्चित रूप से पुनर्जन्म लेना पड़ेगा।’ ईसाई धर्म के प्राचीन आचार्य फादर ओरिजिन कहते थे—”प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार अगला जन्म धारण करना पड़ता है।”

दार्शनिक गेटे, फिश, शोलिंग, लेसिंग आदि ने पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया है। अँग्रेज दार्शनिक ह्यूम तो दार्शनिक की तात्विक दृष्टि की गहराई इस बात में परखते थे कि वह पुनर्जन्म को मान्यता देता है या नहीं।

सूफी सन्त, मौलाना रूम ने लिखा है, मैं पेड़-पौधे, कीट-पतंग, पशु-पक्षी योनियों में होकर मनुष्य वर्ग में प्रवेश हुआ हूँ और अब देव वर्ग में स्थान प्राप्त करने की तैयारी कर रहा हूँ।’

इनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स के बारहवें खंड में अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के आदिवासियों के सम्बन्ध में यह अभिलेख है कि वे सभी समान रूप से पुनर्जन्म को मानते हैं। मरने से लेकर जन्मते तक की विधि-व्यवस्था में मतभेद होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि इन महाद्वीपों के आदिवासी आत्मा की सत्ता को मानते हैं और पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं।

बहुत छोटी आयु में असाधारण प्रतिभाओं का होना भी पुनर्जन्म का एक प्रामाणिक आधार है। मनुष्य का स्वाभाविक विकास एक आयुक्रम के साथ जुड़ा हुआ है। तीव्र मस्तिष्क कितना ही क्यों न हो उसे क्रमबद्ध प्रशिक्षण की आवश्यकता तो रहेगी ही। यदि बिना किसी प्रशिक्षण अथवा उपयुक्त वातावरण के छोटे बालकों में असाधारण विशेषताएँ देखी जाँय तो भी उसका समाधान भी उनके पूर्वजन्मों के संग्रहित ज्ञान को ही कारण मानने से हो सकता है।

पूर्व जर्मनी का विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न तीन वर्ष की आयु का बालक ‘हामेन केन’ मस्तिष्क विद्या के शोधकर्ताओं का आकर्षण केन्द्र रहा है। यह बालक इतनी छोटी उम्र में जर्मन भाषा की पुस्तकें पढ़ने लगा था तथा हिसाब के सामान्य प्रश्नों को हल करने लगा था, इतना ही नहीं उसने फ्रेंच भाषा भी अच्छी तरह सीखली थी। सामान्य मानवी विकास क्रम से सर्वथा भिन्न प्रकार की इस प्रगति ने मस्तिष्क विज्ञानियों को चकित कर दिया था।

संसार के इतिहास में ऐसे जन्म-जाती प्रतिभा लेकर जन्मने वाले बालकों की संख्या बहुत बड़ी है। साइबर-नैटिक्स विज्ञान के आविष्कर्ता वीनर ने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय पाँच वर्ष की आयु से ही देना आरम्भ कर दिया था। उस समय भी उसका मस्तिष्क प्रौढ़ों जैसा विकसित था और युवा वैज्ञानिकों की पंक्ति में बैठकर वह उसी स्तर के विचार व्यक्त करता था। उसने 14 वर्ष की आयु में स्नातक की परीक्षा पास करली थी। ऐसा ही एक अन्य बालक पास्काल 15 वर्ष की आयु में एक प्रामाणिक विज्ञान ग्रन्थ लिखकर प्रकाशित करा चुका था। मोजाती सात वर्ष की आयु में संगीताचार्य बन गया था। गेटे ने 9 वर्ष की आयु में यूनानी, लैटिन और जर्मन भाषाओं में कविता लिखना आरम्भ कर दिया था।

इस प्रकार के अनेकानेक प्रमाण आये दिन सामने आते रहते हैं, जिनसे पुनर्जन्म मान्यता की पुष्टि होती है। मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व स्वीकार किया जाना मानव जाति की एक ऐसी अनिवार्य आवश्यकता है जिसके बिना व्यक्ति एवं समाज के नैतिक मूल्यों को स्थिर नहीं रखा जा सकता। प्रसन्नता की बात है ऐसे प्रमाणों की कमी नहीं है और वे तथ्य रूप में विज्ञ—समाज के सामने आ रहे है।


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