अन्तःकरण की पुकार अनसुनी न करें

July 1974

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परमात्मा हमसे निरन्तर बात करना चाहता है—करता है—पर एक हम है जो उसकी स्नेह भरी वाणी सुनने तक सके इनकार करते रहते हैं। परमात्मा का सबसे निकटवर्ती निवास स्थान हमारा अन्तःकरण ही है। वहाँ बैठकर वह हमारे हित का—कल्याण का परामर्श निरन्तर देता रहा है। वह चाहता है उसका परमप्रिय पुत्र उसी के जैसा महान् बने—अपनी महान् गरिमा का परिचय दे और उसी तरह सत्-चित आनंद की अनुभूति के निरंतर रसास्वादन करता रहे जैसा कि वह स्वयं करता है।

यदि ध्यान पूर्वक सुनें तो प्रतीत होगा कि कोई अविज्ञान देव सत्ता हमारे अन्तःकरण में से ऐसी उमगे उत्पन्न करती रहती हैं जिनमें देवत्व की ओर बढ़ चलने के स्पष्ट सके त होते हैं। मनुष्य जीवन की गरिमा का—आत्मा के उच्चस्तर का—बोध हो सके इसके लिए आवश्यक प्रकाश हृदय गुफा में निरन्तर टिम–टिमाता रहता है, ताकि हम अपनी सत्ता और महत्ता के सम्बन्ध में यथार्थता से परिचित हो सकें। हम क्षुद्र नहीं हैं—क्षुद्र प्रयोजनों के लिए नहीं जन्मे हैं। कीट पतंगों से हमारी स्थिति कहीं ऊँची है उसी अनुपात से हमारा कार्यक्षेत्र एवं उत्तरदायित्व भी अत्यधिक है। कृमि-कीटक और पशु-पक्षी, पेट और प्रजनन की सीमित परिधि में आबद्ध हेय जीवन जीकर सन्तुष्ट रह सकते हैं, पर यदि मनुष्य ने भी उतनी ही संकीर्ण सीमा में मरना, खपना अंगीकार कर लिया तो फिर समझना चाहिए कि उस पर क्रिया गया ईश्वर का विशेष परिश्रम निरर्थक ही चला गया।

ईश्वर ने मनुष्य को बड़े-बड़े स्वप्नों और अरमानों की पूर्ति के लिए बनाया है। प्रभु के सहायक के रूप में, सृष्टि में शांति और सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए—सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करने के लिए—मानव प्राणी का आविर्भाव हुआ है। शासन-सत्ता का केन्द्र राजा में निहित होता है पर शासकीय सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व तो मन्त्री तथा अधिकारी लोग ही वहन करते हैं। इसी प्रकार ईश्वर, सृष्टि का सूत्रधार अवश्य है, पर उसके सुसञ्चालन का कार्य उसने मनुष्य को ही सौंपा है। जो साधन अन्य किसी प्राणी को नहीं मिले वे केवल मनुष्य को इसीलिए दिये गये हैं कि उनकी सहायता से अपना प्रयोजन ठीक तरह परा कर सके। मंत्रीपरिषद के सदस्यों को मोटर, बँगला, सहायक कर्मचारी, टेलीफोन आदि के सुविधा साधन तथा अतिरिक्त अधिकार इसीलिए प्रदान किये जाते हैं कि वे सौंपे गये कर्त्तव्यों का निर्वाह उन उपकरणों की सहायता से अधिक अच्छी तरह कर सकें।

ईश्वर अन्तःकरण में बैठा हुआ अपनी मंद किन्तु स्पष्ट वाणी से उन तथ्यों का स्मरण करता रहता है जो मानव जीवन के साथ विशेष रूप से जुड़े हुए हैं। टेलीफोन की आवाज तब सुनाई देती है जब चोंगा कान पर लगाया जाय यदि चोंगा उठाकर दूर रख दिया जाय तो उससे आने वाली आवाज सुनी न जा सकेगी। अन्तःकरण एक तरह का ईश्वरीय टेलीफोन है। उसे समीप रखकर यदि ध्यान पूर्वक सुना जाय तो वहाँ ऐसे संकेत, निर्देशों की तरंगें निरन्तर उठ रही होंगी जो मनुष्य जन्म के साथ जुड़े हुए महान् उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए परामर्श देते हैं और सचेत करते हैं कि इस संदर्भ में उपेक्षा करते रहने से भयंकर अनर्थ का सामना करना पड़ेगा।

जो अनुदान अन्य किसी प्राणी को नहीं मिले, वे यदि मनुष्य को अकारण या अनायास ही दिये गये होते तो यह ईश्वर का अन्याय और पक्षपात ठहरता। हम सामान्य मनुष्य भी अपने बालकों को समान प्यार देने का प्रयत्न करते हैं। कूकरी और शूकरी तक अपने सभी बच्चों को समान उदारता से दूध पिलाती हैं। फिर ईश्वरीय-सत्ता इतनी निर्दय कैसे हो सकती थी कि एक ही जाति के प्राणी को बोलने, सोचने, उपभोग करने के अनेकानेक सुखद साधन प्रदान करे और शेष प्राणियों को उन सुविधाओं से सर्वथा वंचित करदे। निस्संदेह परमेश्वर को सभी प्राणी समान रूप से प्यारे हैं और उसने शरीर यात्रा के आवश्यक साधन सभी को समान रूप से प्रदान किये हैं। मनुष्य को जो अतिरिक्त मिला है वह तो विशुद्ध रूप से एक अमानत है।

बैंक के खजाँची भी तो बैक की विपुल सम्पदा अपने अधिकार में रखते हैं; पर वे उसका उपयोग बैंक के कार्य में ही करते हैं। उस सम्पत्ति को अपनी व्यक्ति गत समझलें और निजी सुविधा के लिए खर्च कर डालें तो उस अपराध में उन्हें कठोर कारावास भुगतना पड़ेगा। मनुष्य को मिला विशेष वैभव एक पवित्र धरोहर है जो लोक-मंगल में नियोजित करने के लिए दी गई हैं। ईश्वर ने अपने जेष्ठ पुत्र पर यह विश्वास किया है कि उसे जो वस्तु जिस काम के लिए दी मई है वह उसी में खर्च करेगा। यदि ऐसा न करके उस सम्पदा को मनुष्य अपनी विलासिता, अहंता की पूर्ति में खर्च करने लगे—वासना और तृष्णा के क्षुद्र प्रयोजनों में नष्ट कर डाले—तो समझना चाहिए कि अनर्थ ही किया गया है और न्यायाधीश की प्रताड़ना से बचा न जा सकेगा।

अन्तःकरण में विराजमान परमेश्वर निरन्तर यही संकेत करता है कि जीवन सम्पदा के बहुमूल्य क्षण घटते चले जा रहे हैं—दीपक का तेल शनैःशनैः चुकता जा रहा है। जो किया जाना था वह नहीं किया गया—इस भयावह भूल का समय रहते परिमार्जन कर लिया जाय अन्यथा कष्टकर पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ शेष न रह जायेगा। यह चेतावनी आसानी से सुनी जा सकती हैं कि मनुष्य जीवन इन्द्रिय लिप्सा और तृष्णा की बाल-कीड़ा में गँवा नहीं दिया जाना चाहिए। इसका वह उपयोग होना चाहिए जिसका अरमान लेकर सृजेता ने इस दिव्य अनुदान को उदारता पूर्वक प्रदान किया था। मनुष्य को विश्वस्त समझा गया है, इसीलिए इतनी बहुमूल्य अमानत उसके हाथ में थमा दी गई है। विश्वासघात की आशंका रही होती तब तो वह मिला ही न होता जिसे पाकर हम गर्वोन्मत हो रहे हैं और वह कर रहे हैं जिनके करने की कुछ भी आवश्यकता न थी।

जब हम अपने मस्तिष्क में उच्चस्तरीय विचारों को भरे होते हैं और हृदय में उच्च भावनाएँ सँजोये रहते हैं तो प्रतीत होता है अन्तःक्षेत्र में एक सन्तोष भरा निर्झर प्रवाहित हो रहा है। जब हम सत्कर्म परायण होते हैं पेट और प्रजनन के पशु-क्षेत्र से आगे बढ़कर परमार्थ प्रयोजन में निरत रहते हैं—तब अन्तःकरण की शान्ति एवं शीतलता देखते ही बनती है। लगता है अपना आपा सहस्र भुजाएँ उठा कर आशीर्वाद दे रहा है, सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों में जितने समय निमग्न रहा जाय उतने समय तक यह प्रतीत होता रहेगा, मानो देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि की जा रही है और अमृत में स्नान करने की तरह अपना रोम-रोम पुलकित हो रहा है। कर्त्तव्य-पालन और सेवा, साधन के लिए भले ही कष्ट उठाया गया है—भले ही हानि सही गई हो, अन्तःक्षेत्र में यही अनुभूति होती रहेगी, मानो कोई बड़ा लाभ कमा लिया गया।

जब हम दुष्कर्म करते हैं तो पैर काँपते हैं—गला सूखता हैं, दिल धड़कता है यह आत्मप्रताड़ना है जो भीतर ही भीतर नोंचती, कचोटती है। अवाँछनीय स्वार्थ सिद्ध करके कोई भी चैन से नहीं बैठ सकता उसके भीतर ही विद्रोह की आग भड़केगी और लगेगा अन्तःक्षेत्र में देवासुर संग्राम छिड़ गया। असुर हमें पाप कर्म की ओर खींचता है इसके विपरीत देवता का आग्रह होता है कि कुमार्ग का अनुसरण करके विनाश के गर्त में न गिरा जाय न आत्मगौरव का हनन किया जाय। जब तक हम अनौचित्य का परित्याग न करेंगे आन्तरिक विद्रोह के कारण उत्पन्न घोर अशान्ति से छुटकारा न मिल सकेगा। प्रतीत यही होता रहेगा कि हम तुच्छ को पाने के लिए महान् को बर्बाद करते चले जाने वाले पतित स्तर के नर-पशु बन रहे हैं। मानवी सौभाग्य से वंचित होते चले जा रहे हैं।

अन्तःकरण की वाणी सुनें, उसके परामर्श पर चलें तो समझना चाहिए ईश्वर के स्नेह, दुलार का समझना, स्वीकार करना हमने सीख लिया। सर्वतोमुखी श्रेय प्राप्त करने के लिए एकमात्र यही राज मार्ग है।


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