कुछ दिनों की बीमारी ने ही चुआँगत्सु की पत्नी को भगवान् का प्यारा बना दिया। रोग निवारण के लिए भरसक प्रयत्न किये गये। कितने ही चिकित्सकों के उपचार के बाद भी उसे बचाया न जा सका। हुईत्सु को पता चला तो वह भी शोक में भाग लेने के लिए वहाँ जा पहुँचा।
रोने, चीखने का क्रन्दन उसे सुनाई न पड़ा। अन्दर जाकर देखा तो एक प्रकार की निस्तब्धता थी, पर उस निस्तब्धता को भंग करने वाला चुआँगत्सु ही था। वह घुटने पर उलटा कटोरा रख उँगलियों से ताल देकर कुछ गुनगुना रहा था।
हुईत्सु को बड़ा आश्चर्य हुआ वह बोला—’जिन्दगी भर वह तुम्हारे साथ छाया की तरह लगी रही। हर तरह से तुम्हारी सेवा की। बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया। वृद्धावस्था में भी उसके प्रेम में किसी प्रकार की कमी दिखाई न दी। कर्त्तव्यनिष्ठा उसके जीवन का एक अंग बन चुकी थी। ऐसी पत्नी को पाकर भला किसे गौरव का अनुभव न होता, पर एक तुम हो जो इस शोक के वातावरण में भी गा-बजा रहे हों।’
चुआँगत्सु ने कहा—”भाई! तुमने मुझे समझने में बड़ी भूल की है। भला जिसकी प्रियतमा इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गई हो उसके दिल पर क्या बीतती होगी।”
हम दोनों अभिन्न थे। एक के दुख-दर्द में दूसरे को वैसी ही अनुभूति होती थी। मैंने देखा कि शोक, वियोग ने मुझे जर्जर कर डाला तो परलोक में मेरी प्रियतमा भी वैसी ही स्थिति में जा पहुँची होगी।
इस आधार ने मुझे पलट दिया और सोचने लगा गुन-गुनाकर कुछ गीत गाऊँ ताकि मेरी प्रियतमा को कुछ राहत मिले।