ईसा जब बारह वर्ष के थे, माता मरियम के साथ फरुह का त्यौहार मनाने यरुसलेम जा रहे थे। रास्ते में एक मन्दिर में उपदेश होते उन्होंने सुना और वहीं रुक गये।
मरियम का अनुमान था लड़का भीड़ में बिछुड़ गया होगा और अगले पड़ाव पर मिल जायगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब अगले पड़ाव पर वे न मिले तो मरियम वापिस लौटीं और उस पड़ाव को खोजा जहाँ से लड़का बिछुड़ा था।
देखा तो ईसा धर्मोपदेशकों से विवाद कर रहे थे और कह रहे थे जो तुम कहते हो—क्या उसके अतिरिक्त और कुछ सच नहीं हो सकता है? क्या सत्य किसी वर्ग विशेष की मान्यताओं तक ही सीमित हैं? पंडित उसके विलक्षण तर्कों के आगे सकपका रहे थे।
मरियम ने लड़के को पकड़ा और उठ चलने के लिए कहा।
ईसा ने कहा—जननी मैं तो अपने पिता का काम कर रहा हूँ, तुम मुझे कहाँ घसीटे लिये जा रही हो। फरुह का त्यौहार यरुसलेम में मनाया जाय इससे तो—यही अच्छा है कि पिता के प्रकाश को अँधेरे में बन्दी रहने से छुड़ाया जाय।
मरियम ने पूछा-भला तेरा पिता कौन है? तू तो कुमारी के पेट से जन्मा है।
ईसा बोले, जो शरीर को जन्म देते हैं वे पिता नहीं हैं। असली पिता वह हैं जो आत्मा में प्रकाश बनकर रहता है। त्यौहार मनाने के उत्सव की तुलना में क्या यह उचित नहीं कि कुहरे को हटाने वाली रोशनी पैदा की जाय। मरियम क्या कहती वह भी लड़के के पीछे चुपचाप बैठ गई और बालक के अद्भुत तर्कों को ध्यान पूर्वक सुनने लगी।