विज्ञान बहुत कुछ कर गुजरा अब दर्शन की बारी है

July 1974

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विज्ञान का तात्पर्य प्रकृति के कुछ रहस्यों का उद्घाटन अथवा कुछ उपकरणों का निर्माण कर लेना मात्र नहीं हैं, वरन् उसकी व्यापकता मानवी दृष्टिकोण को अधिक सुविस्तृत, तथ्यपूर्ण, एवं सत्यनिष्ठ बनाने तक चली जाती है। विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख-सुविधाओं के संवर्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को आश्रय दें। परम्पराएँ कितनी ही पुरानी अथवा अहुमान्य क्यों न हों यदि वे यथार्थता और उपयोगिता ‘की कसौटी पर सही नहीं उतरती तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहें। नये या पुराने के झंझट में न पड़कर विज्ञानी सत्य की ही मान्यता प्रदान करता है।

विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया हैं, वरन् एक प्रवृत्ति भी है। जिसका फलितार्थ है—साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्य समर्पित यथार्थवादी दृष्टिकोण। सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परम्परा को कसें और उनमें से जो खरी उतरती हों उन्हीं को अंगीकार करें। विज्ञान के इस पक्ष को दर्शन कहा जाता रहा है। वस्तुतः दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।

मान्यता पुरानी है या नई। इस व्यामोह से निकाल कर जो तथ्य है उसी को स्वीकार करने की बात यदि मन में समा जाय तो समझना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिल गया। यथार्थवादी चिन्तन और औचित्य का अवलम्बन जिन्होंने अपनाया उन्हें विचार क्षेत्र का वैज्ञानिक ही कहना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे दार्शनिक भी कह सकते हैं।

भौतिक विज्ञान की अपनी सीमा और उपयोगिता है वह पदार्थ की स्थिति और गति का विवेचन करता है और वस्तु की मूलभूत सूक्ष्म सत्ता का पता लगाता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम तक पहुँचने के लिए निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है और अधिकाधिक गहराई तक पहुँचने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता है।

भावनात्मक क्षेत्र में भी दर्शन विज्ञान की गतिविधि इसी आधार पर अधिकाधिक कलात्मक और सौन्दर्योपासक बनती जाती हैं। किन व्यक्तियों और किन पदार्थों की कितनी उपयोगिता है इस स्थूल कसौटी की अपेक्षा वह उनकी स्थिति में सन्निहित महान् सम्वेदनाओं की गहराई तक पहुँचने का प्रयास करता है।

चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है—सत्यं, शिवम्, सुन्दरम्। वस्तुओं में लोभ और व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है। यह अहंता का आरोपण मात्र है। जिस सम्पत्ति को हम अपने अधिकार के अंतर्गत मानते हैं वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को इसी अपने परिवार के मान लेते हैं उनमें आसक्ति बढ़ जाती है। इसी ‘प्रिय’ परिधि की समीपता सुहाती है और उसे बढ़ाने तथा रखाने की ललक लगी रहती है। आमतौर से सुख सन्तोष की परिधि उतने ही क्षेत्र में अवरुद्ध होकर रह जाती है। जो किया और चाहा जाता है वह उसी सीमा में बँधा रहता है। यह अहंता की प्रतिध्वनि मात्र है इसमें वस्तु के मूल सौंदर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ और मोह के अँवर–डँवर देखता हुआ बाल कौतुकों में उलझा रहता है।

कला, काव्य एवं सौंदर्य को भावनात्मक सम्वेदना तथा चिन्तन की सूक्ष्मतर परिधि कह सकते हैं। नृत्य गायन कला नहीं, कला का आवरण है उस माध्यम से अन्तःकरण में जो उल्लास पूर्ण प्रस्फुरण उमँगता है वह सम्वेदना ही कला है। काव्य किन्हीं तुकबंदी या छन्द विन्यास को नहीं कहते। शब्दों का आवरण उठा कर विशिष्ट स्तर के भावोद्रेक को सजाया भर जाता है। उन शब्दों के अन्तरंग में जो कोमलता झाँकती है और चेतना में गुदगुदी पैदा करती है वही कविता है। सौंदर्य वस्तुओं की सज्जा, दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग गठन पर निर्भर नहीं है वह तो प्रकृति की मृदुल सुषमा एवं आत्मा की कोमल कान्त सम्वेदनशीलता को अपने अन्तरंग चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है। सुन्दरता को दूसरे शब्दों में दिव्यानुभूति कह सकते हैं। जो भाव भरे अन्तःकरणों में अपनी विशिष्टता के अनुरूप उमँगती, उभरती रहती है। उसका किसी की अंग संगठना से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।

द्रौपदी और लैला बिलकुल स्याह काले रंग की थीं साथ ही कुरूप भी, पर उनके प्रेमी प्राण-प्रिय मानते थे। इसमें विशेषता उन महिलाओं के अंग गठन की अथवा हाव-भावों की नहीं, उन प्रेमियों द्वारा आरोपित की गई सम्वेदनाओं की थी। इस आरोपण में श्रेय देखने वाले के अपने दृष्टिकोण को जितना दिया जायगा उतना प्रिय पात्र को नहीं।

संभव है वनस्पति शास्त्री को कोंपलों और कलियों में मात्र रासायनिक प्रक्रिया का कोई अमुक क्रम विकास भर दिखाई पड़े। भौतिकी का शोधकर्ता प्रभातकालीन अरुणोदय की प्रकाश किरणों को नेत्र गोलकों के साथ जुड़े हुए प्रभाव-प्रत्यावर्तन मानकर सन्तुष्ट हो सकता है। किसी की आँखों से टपकते आँसुओं का रसायन-वेत्ता कुछ क्षार, श्लेष्मा, प्रोटीन, पानी आदि का सम्मिश्रण बताकर अपना समाधान कर सकता है। खगोलज्ञ के लिए ग्रह तारकों की दूरी, परिधि, कक्षा आदि जानना पर्याप्त लग सकता है, पर जिनके दृष्टिकोण में सम्वेदनाओं की कोमलता विद्यमान है उसे पुष्प को, प्राकृतिक सौंदर्य को, अरुणोदय की पुण्य वेला को, किसी करुणार्द्र के अश्रु प्रवाह को, झिलमिलाते तारकों वाली निशा को देखकर जो अनुभूति होती है वह अपने स्थान पर अत्यधिक महत्वपूर्ण है। कला, कविता एवं सौंदर्य की परख वस्तुतः संवेदनशील धाराएँ हैं जो भावना क्षेत्र को अनेकानेक भाव लहरियों की थिरकन के साथ आन्दोलित करती हैं। इन्हें दार्शनिक उपलब्धियाँ कहा जा सकता है। अन्तःकरण का विनाश कोमल सम्वेदनाओं के क्षेत्र में न हो सके तो उसका शारीरिक पिछड़ापन वन्य प्राणियों से भी गई-गुजरी स्थिति में खड़ा कर देगा।

भौतिक विज्ञान को असंस्कृत समझने का कोई कारण नहीं, क्योंकि उसका उद्देश्य न केवल अणु-सत्ता का विवेचन एवं उपयोग जानना है, वरन् चेतना के साथ जुड़ी हुई कोमल सम्वेदनाओं को उभार कर अन्तःकरण की भाव भारी रसानुभूति प्रदान करना भी है। इन दोनों प्रयोजनों को साथ लेकर चलने से ही विज्ञान की पूर्णता बनती है। अन्यथा भौतिकी को ही विज्ञान मान लेने पर तो वह सचमुच ही असंस्कृत बन जायगा। तब उसे लँगड़े, काने, कुबड़े, पंगे, नकटे की संज्ञा दी जा सकेगी, वह वस्तुतः कुरूप एवं कर्कश ही बन जायगा।

जीवन को जड़ और चेतन का समन्वय कह सकते हैं। हमें पदार्थों का भी उपयोग करना पड़ता है और चेतनता से भी वास्ता पड़ता है। हमारा शरीर स्वयं जड़ पदार्थों से बना है और अंतःकरण में चेतना की सत्ता विद्यमान हैं। उभय-पक्षीय वस्तुस्थिति से अधिकाधिक आनन्द लेने के लिए उनकी सूक्ष्मता में प्रवेश करना आवश्यक है, ताकि जो अभी तक नहीं मिल सका वह आगे मिल सके। इस आवश्यकता की पूर्ति स्थूल जड़ जगत के क्षेत्र में भौतिकी द्वारा सम्भव होती है और चेतना के क्षेत्र में भाव संवेदना के अन्तराल में प्रवेश करके वह प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है।

विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र पृथक रखा जाय तो दोनों ही अपूर्ण रह जायेंगे। वस्तुतः वे दोनों दो हैं भी नहीं। एक ही तथ्य के दो पूरक पक्ष हैं। भौतिक जड़ पक्ष को सम्भालता है और ब्रह्मविद्या चेतना को सुसंस्कृत बनाती है। तथ्यों की उपेक्षा करने मात्र चिन्तन की कलाबाजी का खेल खड़ा करते रहने वाला दर्शन भ्रान्तियों का भंडार बन जायगा, वह हमें अवास्तविक कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते रहने वाला—दिवास्वप्न देखते रहने वाला—मात्र बना कर रख देगा। इसी प्रकार जड़ पदार्थों की क्षमता पर निर्भर होते-होते हम स्वयं हृदयहीन मशीनी मनुष्य मात्र बनकर रह जायेंगे। विज्ञान को दर्शन के साथ और दर्शन को विज्ञान के साथ अपना ताल-मेल बिठाना पड़ेगा। यद्यपि आज यह बहुत कठिन दीखता है पर कल इसकी अनिवार्यता अनुभव की जायगी। सत्य और तथ्य का समन्वय करने से ही सर्वतोमुखी प्रगति के दोनों पहिये गतिशील हो सकेंगे।

विज्ञानी को कलाकार बनना चाहिए और कलाकार को विज्ञान के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर उभय-पक्षीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए। दोनों को दो धाराओं में बहुत हुए भी एक लक्ष्य पर पहुँचना चाहिए। पिछली कितनी ही मान्यताएँ, परम्पराएँ, परिभाषाएँ और आकाँक्षाएँ अब अवास्तविक और असामयिक ठहरा दी हैं। किसी समय उनका औचित्य रहा होगा पर अब उनके साथ चिपके रहना केवल उपहासास्पद ही बना सकता है। ठीक इसी प्रकार यदि विज्ञानी बिना हित अनहित का विचार किये डडडडतक आविष्कार करता रहा और विलास वृद्धि में औचित्यकारों का उपयोग होता रहा तो मनुष्य अपनी कलाकारिता को अनावश्यक समझने लगेगा और उसकी सौंदर्यानुभूति समाप्त हो जायगी। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान की प्रगति सचमुच बहुत महंगी पड़ेगी।

विज्ञान के संपर्क में दर्शन की सत्ता को खतरा उत्पन्न हो जायगा, इस प्रकार सोचना तभी उचित है जब वह अवास्तविक आधारों को लेकर चल रहा हो। अब बुद्धिवादी युग आगया। क्यों और कैसे की कसौटी पर कसे बिना अगले दिनों किसी भी प्रचलन को स्वीकार न किया जा सकेगा। यथार्थता की परीक्षा से यदि दर्शन भागेगा तो उसका यह भगोड़ापन ही उसकी कच्चाई समझी जायगी और दंभी बताकर समय का प्रवाह उसका साथ छोड़ देगा, तब उसे बेमौत मरना पड़ेगा, इससे अच्छा यही हैं कि वह समय रहते आत्म-निरीक्षण, करके इस योग्य बना लें कि तथ्यों का सामना करने में उसे डरने की तनिक भी आवश्यकता न रहें’। दर्शन का गौरव इसी में है।

विज्ञान को अपना क्षेत्र जड़ की परिधि से अधिक विस्तृत करके उसे चेतना तक विकसित करना होगा। चेतना जड़ की प्रतिकृति, प्रतिच्छाया नहीं। पदार्थ का उपभोग करना मात्र ही उसकी तुष्टि का आधार नहीं है। आत्मा में कुछ ऐसा भी है जिसे अलौकिक, अद्भुत और सरस कह सकते हैं। प्रत्यक्ष को ही मात्र कसौटी मानकर चेतना की सत्ता को झुठलाया जा सकता है पर इससे काम कहाँ चलेगा। भावनाओं का अपना स्थान है और अपना स्तर। उनकी अपनी गरिमा है और अपनी सम्वेदनात्मक दिव्यता। यदि ऐसा न होता तो उसकी चेतना एक विकसित कम्प्यूटर जितनी होकर रह जाती।

शारीरिक उतार-चढ़ावों तक ही उसकी सम्वेदनाएँ सीमित रहती हैं। करुणा, ममता, स्नेह, सौंदर्य, सेवा, संयम और आदर्शवादी उभार उसके भीतर क्यों उठते? आत्म-गौरव, आत्म-सन्तोष, आत्मोल्लास जैसी दिव्य अनुभूतियों का ऐसा रसास्वादन उसे क्यों होता जिसके बदले में भौतिक सुखों को यहाँ तक कि प्राणों के मोह को त्याग कर भी आदर्शवादी क्रिया-कलाप अपनाने में प्रसन्नता होती। भावनात्मक क्षेत्र में ऊंचा उठने की ललक भी उससे कम प्रबल नहीं है जैसी कि सम्पदाओं के उपभोग की रहती हैं। यह कौन है जो बाहर से प्रचुर रहते हुए भी भीतर से असंतुष्ट रहता है? और कौन है जो बाहर से अभावग्रस्त रहने पर भी भीतर से फूला नहीं समाता। निश्चय ही वह शरीर की प्रतिक्रिया या प्रतिच्छाया नहीं है। शरीर सुख के प्रचुर साधन जुटा देने पर भी जो उद्विग्न बना रहता है उसे समझने और स्वीकारने से इनकार करना विज्ञान जैसे तथ्यान्वेषी के लिए उपयुक्त न होगा, इससे तो वह भी दुराग्रही, पूर्वाग्रही मात्र बनकर रह जायेगा।

ईश्वर जीव और प्रकृति की व्याख्या, विवेचनाओं में निरत रहने की पुरानी आदत अब दर्शन को बदल देनी चाहिए। यह गुत्थियाँ बहुत ही उलझी हुई हैं। मानव बुद्धि का क्रमिक विकास इन्हें समयानुसार ही सुलझा सकेगा। लाखों वर्षों से इन्तजार करते रहे हैं तो अभी कुछ समय और प्रतीक्षा कर सकते हैं। कल्पना को तथ्य बताने की पद्धति से भी कोई समाधान नहीं निकला है। मनीषी अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान इतने अधिक और इतने परस्पर विरोधी प्रकारों से कर चुके हैं कि उनसे मनुष्य की जिज्ञासा को भ्राँतियों में बदलने और एक दूसरे को मिथ्यावादी बताने के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकला है। दर्शन की उतावली, नहीं करनी चाहिए और येन-केन प्रकारेण अपनी नाम बचाने के लिए कुछ भी कह गुजरने का वाक् विलास बन्द करना चाहिए। जब इतनी अधिक और इतनी सामयिक समस्याएँ उलझी पड़ी है हमें उन्हीं पर अपना ध्यान क्यों नहीं केन्द्रित करना चाहिए।

दर्शन का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए अन्तःकरण की—सौंदर्यानुभूति की कलाकारिता को जगाना—सत्य के प्रति नम्रता और निष्ठा उत्पन्न करना है। इसके लिए हमें चिन्तन के साथ रसानुभूति की डडडड प्रक्रिया को समन्वित करना पड़ेगा। मस्तिष्क को जगाना स्कूली शिक्षा का काम है। दर्शन की भावनाएँ उभरनी चाहिए और मनुष्य को इतना सम्वेदनशील बनना चाहिए कि वह अपने दुखों के प्रति जितना दुखी होता है उससे अधिक दूसरों का दुख देखकर द्रवित होने लगे। अपने सुखोपभोग में जितनी प्रसन्नता होती है उससे अधिक दूसरों को सुखी बनाने में होने लगे। दार्शनिक दृष्टिकोण वह है जो हर व्यक्ति और हर पदार्थ में सत्−चित और आनन्द की अनुभूति को ढूँढ़ और जमा सकता है। घृणा, विद्वेष के स्थान पर करुणा, ममता और सेवा, सहायता की प्रतिष्ठापना करना ही वस्तुतः दर्शन का प्रमुख प्रयोजन है। इस अवलम्बन के सहारे व्यक्ति अधिक पवित्र और परिष्कृत बन सकता है। अधिक उदार और अधिक स्नेह सिक्त भी।

इतिहास, पुराण हमें भूतकाल के घटनाक्रमों के सहारे वर्तमान का निर्माण और भविष्य का निर्धारण सिखा सकते है। चारणों की तरह आखिर हम पुरातन पुरुषों की गाथाएँ कब तक गाते रहेंगे? उनसे हमें निष्कर्ष निकालना है और प्रकाश ग्रहण करना है ताकि अन्धकार में से निकल कर प्रकाश के पुण्य आलोक की झाँकी कर सके। इस कार्य में दर्शन हमारी बहुत सहायता कर सकता है।

विवेचना, विचारणा और विवेकशीलता के बिना मनुष्य केवल भ्रांतियों में ही उलझा रह सकता है। दर्शन हमारे चिन्तन को प्रखर, सत्यान्वेषी, यथार्थवादी और नीर−क्षीर विवेकी बना सकता है। सत्य के समीप हम इसी आधार को अपनाकर पहुँच सकते है। भौतिक विज्ञान का आराध्य सत्य है। वह परखा नहीं करता कि अब से पहने क्या कहा और क्या माना जाता रहा है। वह बिना किसी प्रकार का दबाव या संकोच किये जो तर्क संगत और तथ्य समर्पित प्रतीत होता है उसे प्रस्तुत करता है। दर्शन में भी इतना साहस होना चाहिए कि परम्पराओं के अनावश्यक दबाव या आग्रह मानने से इनकार करदे और केवल उसी का समर्थन करें जो सत्य के समीप है—हितकारी है।

भूतकालीन चिन्तन और उसके प्रस्तुतकर्त्ताओं के प्रति पूर्ण आदर रखते हुए भी सत्यान्वेषण की प्रक्रिया या को जारी रखा जा सकता है आखिर इन पूर्वजों ने भी तो अपने पूर्वजों के चिन्तन में अधिक तेजस्वी प्रकाश का समन्वय किया था। अभी वह समय नहीं आया कि उस क्रमिक अग्रगमन का पटाक्षेप का दिया जाय। अभी हमारे लिए सोचने और सुधारने की दिशा में बहुत चलना बाकी है। पूर्णता की प्राप्ति तक हमारे चरण अनवरत गति से आगे बढ़ते रहने चाहिए। विज्ञान की उपलब्धियों ने इस भूखण्ड के निवासियों को अत्यन्त समीप ला दिया है। द्रुतगामी वाहनों ने दूरी को दूर कर दिया है। संचार साधनों से हम दूरभाषण और दूर दर्शन की आवश्यकता क्षण भर में पूरी कर लेते हैं। समाचार पत्र हमें संसार भर की खबरें अगले दिन और विनोदपूर्ण गुदगुदी घर बैठे मिलती रहती है। विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनिया अब एक गाँव में रहने वाले लोगों की तरह इकट्ठी हो गई है। दूरी क्रमशः द्रुतगति से निरस्त होती जा रही है। यह भौतिक उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदान की गई है। दर्शन को, मनों की दूरी दूर करनी चाहिए और अन्तःचेतना की इकाई को घटाना और आत्मवत् सर्वभूतेषु की—विश्व मानव एवं विश्व परिवार की उदात्त मनःस्थिति को विकसित करने में अपने समस्त प्रयासों को केन्द्रित कर दिखायें। जड़ता और अहंमन्यता के निविड़ बन्धनों से मानव जाति को छुड़ाने में दर्शन को ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। देवत्व की सदा क्षमता का विकास कर सकना उसी के हाथ में है। मानवी संस्कृत का संरक्षण कर सकना दर्शन के अतिरिक्त भला और कौन कर सकेगा?

विज्ञान कहता है ब्रह्माण्ड का फुलाव-फैलाव और विस्तार बढ़ रहा है, मनुष्य को फैलने और फूलने का क्रम भी चलना चाहिए, भौतिक विज्ञान ने अपना अनुदान प्रस्तुत करने में सराहनीय भूमिका निभा दी। अध्यात्म विज्ञान के हिस्से का काम अधूरा पड़ा है। चेतना का परिष्कार और उसकी कोमल सम्वेदनाओं का उत्कर्ष करना दर्शन का उत्तरदायित्व है। वह अपना हाथ सकोड़ बैठेगा और उस अवसाद के कारण उत्पन्न विकृतियों का दोषी भौतिक विज्ञान को ठहराये तो वह उसकी आत्म प्रवंचना ही होगी। मनुष्य का आशीर्वाद विज्ञान ने अपनी तप साधना करके प्राप्त कर लिया, अब दर्शन की बारी है कि वह भी इतनी ही प्रचण्ड साधना करे और अपने महान् गौरव को अक्षुण्ण बनाये रहने के लिए प्रखर पुरुषार्थ का परिचय दे।


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