ऊँची उड़ाने पर लक्ष्य विहीन

July 1974

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मनुष्य गतिशील हो रहा है, उसकी प्रगति आकाँक्षाएँ राकेटों की तरह दूरगामी छलाँगें भर रही हैं। वह आगे बढ़ना चाहता है और ऊंचा उठना चाहता है —सीमा बन्धनों को तोड़ कर असीम के साथ सम्बन्ध जोड़ने की उसकी महत्वाकाँक्षा है। इस महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए उसने विज्ञान का सहारा लिया है और बिना पंखों के उड़ने वाले राकेटों के रूप में अभिनव उपकरण तैयार किये हैं। ये राकेट गजब के हैं। वे एक शक्ति शाली धक्के के साथ अन्तरिक्ष में धकेल दिये जाते हैं। निर्धारित गति के अनुसार वे उड़ते हैं और निर्दिष्ट लक्ष्य तक आ पहुँचते हैं। लक्ष्य−वेध की आकाँक्षा भौतिक जगत में एक सीमा तक पूरी हो सकी, इसकी साक्षी देता हुआ राकेट विकास हमारे सामने गर्वोन्नत मस्तक सा खड़ा है।

द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी के बी. 1 और बी. 2 राकेटों ने मित्र राष्ट्रों की नाकों में दम कर दिया था। एकबार तो ऐसा लगने लगा था कि इंग्लैंड का पूर्ण विनाश करके ही यह राकेट दम लेंगे। पाशा पलटा मित्र शत्रु हुए और शत्रु मित्र। रूस और जर्मनी में खटकी। फलस्वरूप रूस के उसी प्रकार के राकेटों ने जर्मनी की चमड़ी उधेड़ कर रखदी और लड़ाई का नक्शा ही बदल गया। विजय की सम्भावना पराजय में और पराजय की आशंका विजय में बदल गई।

युद्ध की दृष्टि से यह राकेटों का युग है अब आमने−सामने खड़े होकर तीर, तलवार या तोप, बन्दूक चलाने की आवश्यकता नहीं रही। प्रयोगशाला में बटन दबते ही राकेटों के दैत्य आकाश में उड़ने लगते हैं और शब्दबेधी बाण का कथा गाथा को साकार करते हुए निर्धारित लक्ष्य पर जा गिरते हैं और अपनी प्रचण्ड विस्फोट शक्ति से महाविनाश के दृश्य उपस्थित करते हैं। भविष्य में तीसरा महायुद्ध हुआ तो उसका प्रधान आयुध राकेट ही होगा। उस पर लाद कर अणुबम, गैस बम, बारूद बम,मृत्यु−किरणबल अथवा जो कुछ भी भेजे जाया करेंगे वे प्रति पक्षी को महामरण के— महाविनाश के श्मशान में जलाया करेंगे। इन युद्धरत पक्षों में से किसको जीवित रहने का सौभाग्य मिलेगा यह पीछे की बात है— पर इतना निश्चय है कि अब युद्ध में बाहुबल अथवा शौर्य, साहस की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वैज्ञानिक उपकरण और उनके संचालक का कौशल ही भावी युद्ध में निर्णायक फैसला कर देंगे।

राकेट जिसने युद्धकला की परम्परागत समस्त परम्पराओं और सम्भावनाओं को उलट कर रख दिया आखिर है क्या? उसमें शक्ति कहाँ से आती है? वह अपना क्रियाकलाप कैसे सम्पन्न करता है? इसकी जिज्ञासा जनसाधारण को हो तो यह उचित ही है। मनुष्य जाति के भाग्य का फैसला करने की क्षमता जिस महादैत्य ने अपनी मुट्ठी में समेट ली है, उसका सामान्य परिचय और क्रियाकलाप हमें विदित रहें यह उचित भी है और आवश्यकता भी।

यान्त्रिकी विद्या क विद्यार्थी ‘ क्रिया की प्रतिक्रिया’ का प्रकृति नियम भली प्रकार जानत हैं। जीवधारियों के सामान्य शारीरिक क्रिया−कलाप तक इसी आधार पर होते हैं। नाव का खेना, पानी में तैरा, पक्षियों का उड़ना जैसे क्रिया कलापों में क्रिया की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली शक्ति ही काम करती है। न्यूटन ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का ही विवेचन नहीं किया है उसने यह भी सिद्ध किया है कि प्रत्येक क्रिया की एक समान और विरोधी प्रतिक्रिया भी होती है। राकेट का निर्माण भी इस सिद्धान्त के आधार पर हुआ है।

राकेट सिद्धान्त को विकसित करने का श्रेय रूसी वैज्ञानिक सलकोब्सकी को है। उनके बताये आधारों को राकेट सूत्र क हते हैं। उनने राकेट निर्माण के लिए दो तथ्य प्रस्तुत किये थे। (1) इंजन से निकलने वाली गैस की धारा की गति (2)राकेट के कलेवर और उसमें भरे ईंधन का अनुपात। ईधन जितना अधिक और आवरण जितना हलका होगा उसी अनुपात से राकेट की गति बढ़ेगी और वह अधिक ऊँचाई तथा अधिक दूरी तक जा सकेगा।

जर्मनी का बी. 2 राकेट 47 फुट लम्बा 6 फुट चौड़ा होता था। उसकी नोंक में करीब एक टन वाष्प भरी रहती थी। उसमें ईधन 9 टन था और कलेवर 4 टन इस स्थिति में वह एक सेकेंड में एक मील की चाल से चलता था। ईधन में 4 टन शुद्ध पेट्रोल और शेष वजन ऑक्सीजन का था। गैस में आग लगते ही राकेट का दबाव भार ठीक दूना हो जाता था और वह उछल कर आकाश में उड़ने लगता था। विस्फोट के आरम्भिक क्षण में वह एक मिनट के भीतर ही प्रायः 30 मीच ऊँचा उछल जाता था। बस ईधन समाप्त। इस उछाल से उत्पन्न हुई गति को निर्धारित दिशा में मोड़ने और अभीष्ट लक्ष्य पर नीचे गिराने का काम उसमें लगे अन्य यन्त्र करते थे। नीचे गिरते ही वह जमीन से टकराता था और फूटकर विनाश उत्पन्न करता था। यह राकेट युग की आरम्भिक उपलब्धि थी अब उसमें भारी सुधार हुए हैं। उसी क्षमता और बहुमुखी प्रक्रिया कही आगे बढ़ गई है इतने पर भी उसका सूत्र सिद्धान्त वही है, जो सलकोब्स्की ने प्रतिपादित किया था। वे कहते रहते थे ईधन की मात्रा जितनी अधिक होगी और कलेवर जितना हलका होगा राकेट की क्षमता उतनी ही तीव्र की जा सकेगी।

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की पकड़ से छूट निकलने के लिए प्रति सेकेंड सात मील की गति चाहिए। इसे ‘मुक्ति गति’ कहते हैं। युद्ध में काम आने वाले राकेटों में उतनी गति नहीं होती किन्तु अंतर्ग्रही राकेट इस मुक्ति गति से अधिक सामर्थ्यवान होते हैं अस्तु कुछ ही समय में पृथ्वी की सामान्य पकड़ से बाहर निकल कर अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमने लगते हैं। इससे भी अधिक सामर्थ्य प्राप्त करने पर वे कक्षा भ्रमण की पकड़ से भी छुटकारा पा लेते हैं और जिस ग्रह की ओर उन्हें उड़ना है उधर ही उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने लगते हैं।

इस प्रकार की अंतर्ग्रही गति प्राप्त करने के लिए चरण राकेटों की शृंखला का आविष्कार किया गया। एक के साथ जुड़े हुए दूसरे और दूसरे के साथ जुड़े हुए तीसरे राकेटों के निर्माण का उद्देश्य यह था कि पहले की शक्ति चुक जाय तो आगे का प्रयोजन पूरा करने में दूसरे की शक्ति काम आये। दूसरा अपना कार्य पूरा कर चुके तो आगे का मोर्चा तीसरा सम्भाले। भूमि से सीधा उड़कर अन्तर्ग्रही गति पकड़ने वाला राकेट बनना कठिन था। उसमें इतने अधिक ईधन की जरूरत पड़ती और भार इतना अधिक हो जाता कि लक्ष्य पूर्ति उसने लिए असंभव हो जाता है।

पिछली अन्तर्ग्रही उड़ानों में यही होता रहा। वे तीन चरण वाले बनाये जाते रहे। राकेट क प्रथम चरण में जो विस्फोट हुआ उसने उसे एक दूरी तक उड़ सकने के लिए उछाल दिया और स्वयं बिछुड़ कर पृथक हो गया। इससे पूरे राकेट का एक बहुत बड़ा भार भाग हट जाने से वह हलका हुआ और कम शक्ति से अधिक ऊँचाई तक उड़ सका। पहले चरण द्वारा दी हुई शक्ति चुकने पर दूसरे का विस्फोट किया गया और उसे भी हटाकर अगल कर दिया गया। अब भार और भी अधिक हलका हो गया केवल तीसरा भाग अधिक छोटा और अधिक हलका रहने से लम्बी उड़ान भर सकने के उपयुक्त रह गया। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र — उसका परिभ्रमण वातावरण इन दोनों परतों से ऊपर निकल जाने पर भार रहित अन्तरिक्ष आ जाता है, उसमें न्यूनतम शक्ति से अधिकतम लम्बी यात्राएँ कर सकना और स्वल्प साधनों से इच्छानुसार गति घटा या बढ़ा लेना सम्भव होता है। इसी आधार पर मनुष्य चन्द्रमा की यात्राएँ करके वापिस लौटा है। मनुष्य रहित राकेटों ने तो कई ग्रहों की यात्राएँ की हैं। इन सब में यही चरण विभाजन सिद्धान्त काम करता रहा है।

चन्द्रमा की यात्रा करके लौटे अमेरिकी और रूसी अन्तरिक्षयानों ने राकेटों की अद्भुत शक्ति का परिचय दिया है। आकाश में मध्यवर्ती स्टेशन बनाने का प्राथमिक परीक्षण पूरा हो चुका है। भावी महायुद्ध में इन राकेटों की ही प्रधान भूमिका होगी। वे एक घण्टे के भीतर ही लाखों वर्षों की सञ्चित मानवी सभ्यता और करोड़ों वर्ष पुरानी इस धरती को तहस−नहस करके रख देंगे। यदि वे रचनात्मक दिशा में चल पड़े तो सौर परिवार तथा ब्रह्माँड विस्तार में बिखरे हुए तारकों के साथ सम्बन्ध बनाने वाले माध्यम स्तर का विकास करेंगे।

चन्द्रमा पर एक अन्तरिक्षयान भेजने पर अमेरिका ने औसतन 8000 करोड़ रुपया खर्च किया है ऐसे लगभग एक दर्जन यान उस राह पर प्रयाण कर चुके हैं। आगे यह योजना सन् 85 तक के लिए बनी हुई है उस पर कुल मिलाकर कितना खर्च होगा यह आश्चर्यचकित करने वाला है। रूस को भी लगभग इतना ही धन खर्च करना पड़ा होगा। आगे अन्तरिक्षयानों पर खर्च बढ़ने ही वाला है। सम्भव है अन्य देश भी इस दौड़ में सम्मिलित हो जाँय और अपने अलग −अलग यान छोड़ने आरम्भ करें।

अब तक छोटे यान ही उड़े है क्यों कि अन्तरिक्ष में रहने वाले मनुष्यों के लिए आहार,जल,वायु तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की अधिक मात्रा में व्यवस्था करनी पड़ेगी। इससे यान का भार बढ़ेगा और उसे उड़ाने के लिए अधिक ईधन की आवश्यकता पड़ेगी।

चन्द्रमा का क्षेत्रफल अपने अफ्रीकी महाद्वीप के बराबर है, इतने बड़े क्षेत्र की ढूँढ़ −खोज करने के लिए काफी समय लगेगा। फिर वहाँ जो कुछ उपयोगी मिलेगा उससे लाभान्वित होने के लिए अनेक साधन जुटाने पड़ेंगे। यह समय साध्य है— श्रम,साध्य और साधन,साध्य। यह सब जुटाने क लिए चन्द्रमा पर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करनी पड़ेगी जिनमें न केवल अधिक समय ठहराना ही वरन् सुविधा पूर्वक काम करते रह सकना भी सम्भव हो सके। पृथ्वी से चन्द्रमा तक पहुँचने का कार्य जितना कठिन था उससे कम कठिन यह चन्दे निवास की समस्या भी कम जटिल नहीं है।

प्लास्टिक फोम की एक ऐसी किस्म ढूँढ़ गई है जिसके बने मकान चन्द्रमा पर जाये जाने वाले अत्यधिक ताप और शीत से मनुष्य की रक्षा कर सकेंगे। इन मकानों को ‘एयर कंडीशनर ‘ बनाया जायगा। उनमें कृत्रिम ऑक्सीजन पैदा की जाती रहेगी। बिजली, रोशनी आदि पाने में वहाँ सुविधा रहेगी। वहाँ एक जमीन पर पड़ने वाली धूप की ऊष्मा से ही दो हार्सपावर जितनी बिजली उत्पन्न करने की सम्भावनाएँ मौजूद हैं। मल को पुनः खाद्य पदार्थ में और मूत्र को पेय जल में बदल लेने में अब प्रायः पूर्ण सफलता मिल चुकी है। एकबार का खाया−पिया ही उलट−पुलट कर मुद्दतों काम देता रहेगा। नित नये अन्न−जल तलाश करने की कठिनाई से अब सहज ह बचा जा सकता है।

चन्द्रमा पर मनुष्य का मजबूत अड्डा जम जाने के बाद वहाँ से अन्य ग्रहों की यात्रा कर सकना बहुत ही सरल हो जायगा। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से पिण्ड छुड़ाने के लिए अन्तरिक्षयान की प्रारम्भिक गति 24800 मील प्रति घण्टा की होनी चाहिए। चन्द्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की अपेक्षा छठा भाग मात्र है इसलिए वहाँ से उड़ने के लिए अन्तरिक्षयानों की चाल मात्र 5300 मील प्रति घण्टा हो तो भी काम चल जायगा। ईधन पृथ्वी से भेजना भी आवश्यक नहीं। चन्द्रमा पर बनी अणु भट्टियाँ मनचाही मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करती रहेंगी।

चन्द्रमा के बाद किस ग्रह पर पहुँचा जाय। इस योजना के अंतर्गत अलग सूची में मंगल ग्रह के दो बच्चे उपग्रह नोट किये गये हैं। समूचे मंगल पर चढ़ाई करने से पहले उसके इन बच्चों की नब्ज़ जाँचना ठीक समझा गया है।इन भौम उपग्रहों के नाम हैं— ‘फी बोस’ और ‘डीमोस’।

मंगल का व्यास 4200 मील है। यह पृथ्वी की तरह अपनी धुरी पर घूमता है, उसका दिन इतना ही बड़ा होता है जितना धरती का। धरती पर 24 घण्टे का दिन होता है वहाँ 24 घण्टा 21 मिनट का। मंगल पर जीवधारियों की सम्भावना सौर मण्डल के अन्य ग्रहों की तुलना में कहीं अधिक है। मैरियर− 4 ने सूचनाएँ दी हैं उससे वहाँ वायुमण्डल को उत्साहवर्धक आशा बँधी है। आये हुए चित्रों ने वहाँ के ध्रुव प्रदेश पर ऐसी सफेद पर्तें दिखाई हैं जो सर्दी में गहरी होती हैं और बसन्त में हलकी पड़ जाती हैं। समझा गया है कि यह बर्फ हो सकती है जो ऋतु के अनुरूप जमती और पिघलती है। हरियाली एवं वनस्पति के भी प्रमाण मिले हैं।

अगले 4 सितम्बर 1974 में मंगल पृथ्वी के अत्यधिक समीप होगा। तब उसकी दूरी मात्र 3,40,00,000 मील रह जायगी। उस अवसर पर वहाँ खोजी राकेट पहुँचाना कम खर्चीला रहेगा। इसके लिए काफी समय पहले यान को भेजना पड़ेगा जो न्यूनतम दूरी के ठीक समय तक अपनी यात्रा पूरी करके वहाँ जा पहुँचे। सन् 1976 और 80 के बीच चार वर्षों का समय ऐसा रहेगा जिसमें बृहस्पति,शनि और प्लूटो की खोज खबर लेना अपेक्षाकृत अधिक सरल पड़ेगा। उस समय का लाभ उठाने के लिए वैज्ञानिक अभी से तैयारी कर रहे हैं।

गुब्बारे, ग्लाइउर एवं वायुयान अब खिलौने भर रह गये हैं। पलक मारते पृथ्वी के किसी भी कोने तक जा पहुँचने वाले राकेटों ओर अन्तर्ग्रहीयानों के रूप में अब मनुष्य की उड़ान कल्पना साकार होने जा रही है। निस्सन्देह मनुष्य शक्ति पुञ्ज है। उसकी कल्पना जब संकल्प एवं पुरुषार्थ के साथ समन्वित महत्वाकांक्षा के रूप में प्रचण्ड होती है तो वे साधन सामने आ खड़े होते हैं जिन्हें देखकर नैपोलियन की वह उक्ति याद आती है जिसमें वह ‘असम्भव’ शब्द के अस्तित्व से ही इनकार करता था।

काश यही महत्वाकाँक्षा यदि मनुष्य का — संसार का स्तर ऊँचा उठाने में सुख−शान्ति की सौंदर्य सुषमा के विकास में नियोजित हो सकी होती तो आज हमें उस परिस्थिति में न रहना पड़ता जिसमें वह आज बुरी तरह दुख −दारिद्र के — पतन पराभव के— नरक के पड़ा हुआ सड़ रहा है।

विज्ञान ने इतनी उन्नति की इस प्रगति पर हमें गर्व करने का अधिकार है, पर तब वह गर्व हर दृष्टि से संतोषजनक और आनन्ददायक कहा जा सकता था।जब यही महत्वाकाँक्षा, भावनात्मक आकाश में उड़ते और ऐसे प्रयास राकेटों का निर्माण करती जो सद्भावनाओं के स्वर्ग−लोक की सैर हर किसी का करा सकने में समर्थ होती। न जाने ऐसे विज्ञान का आविष्कार अवतरण करने वाले अध्यात्म विज्ञानवेत्ताओं का युग कब अपनी धरती पर आयेगा?


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