भावी पीढ़ी का स्तर उठाने की समस्या

July 1974

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संसार की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, पर पीढ़ियों का स्तर शारीरिक, मानसिक, और नैतिक तीनों ही दृष्टियों से गिरता चला जा रहा है। इस गिरावट का कहाँ जाकर अन्त होगा, यह चिन्ताजनक प्रश्न है। विज्ञान, शिक्षा और सम्पत्ति की दृष्टि से हम कितनी ही प्रगति क्यों न करते जायें वंशपरम्परा का क्रम यदि पतनोन्मुख दिशा में ही बढ़ता चला गया तो इन सम्पदाओं का उपयोग कौन करेगा? जिनके निर्माण में आज हम अहर्निश सर्वतोभावेन लगे हुए हैं। शरीर और मन से दुर्बल और रुग्ण बना मनुष्य अपने आपके लिए भार रहेगा और अपने समाज के लिए अभिशाप सिद्ध होगा, भले ही उसके पास सुविधा साधन कितने ही बढ़े−चढ़े क्यों न हों।

प्रगति की बात सोचते हुए संसार के बुद्धिमान मनुष्य यह विचार गम्भीरता पूर्वक कर रहे हैं कि भावी पीढ़ियों का स्तर किस प्रकार समुन्नत बनाया जाय। नस्ल के भयंकर पतन का वर्तमान क्रम किस प्रकार रोका जाय। वैज्ञानिक आविष्कारों की घुड़दौड़ और सुविधा−साधनों को उपार्जन होते रहने से ही समुन्नत भविष्य की कल्पना सार्थक न हो सकेगी। इसके लिए शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से समुन्नत स्तर की पीढ़ियाँ भी चाहिए। विचारशील वर्ग ने अधिक तत्परता पूर्वक इस दिशा में विचार करना आरम्भ किया है कि संसार को श्रेष्ठ नागरिकों और महामानवों से भरा पूरा कैसे रखा जाय?

नोएल पुरस्कार से पुरस्कृत विश्व के मूर्धन्य विज्ञानी डा. हरमन जे. मुलर ने अपने ‘आउट आफ द नाइट’ प्रतिवेदन में इस आवश्यकता पर बहुत बल दिया था कि विश्व को—विशिष्ट व्यक्तियों को सर्वथा नष्ट होने की विपत्ति से बचाया जाय। उनका अभिप्राय यह था कि वर्तमान पीढ़ी के मूर्धन्य व्यक्तियों का जीवन−रस संग्रहित करके रखा जाय ताकि उन जैसे विशिष्ट व्यक्तियों को भविष्य में फिर कभी भी आवश्यकतानुसार उत्पन्न कर सकना सम्भव हो सके।

जीव विज्ञानी गाल्टन यूजेनिक्स (सृजननिकी) विद्या का सूत्रपात करते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि हम इस दिशा में शोध कार्य करते हुए अभीष्ट गुण सम्पन्न मनुष्यों का उत्पादन कर सकने में एक दिन सफल होकर रहेंगे। विद्वान फ्राँसिस गाल्टन ने इस बात पर बहुत जोर दिया था कि प्रगति की अन्य धाराओं को ही महत्व न दिया जाय; वंश सुधार पर भी ध्यान दिया जाय। पतनोन्मुख वंश परम्परा की दुर्गति यदि रोकी न गई तो दुर्बल और रुग्ण व्यक्ति समस्त प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेने पर भी सुखी न रह सकेगा।

इस सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ व्यक्त की गई हैं एक यह कि सुयोग्य नर−नारियों को सन्तानोत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाय, दूसरा यह कि यदि उनका विवाह सम्भव न हो तो फिर कृत्रिम गर्भाधान का प्रयोग चलाया जाय।

शरीर की दृष्टि से परिपुष्ट युवक और युवती विवाह करें और गर्भ रक्षा तथा शिशु−पोषण का समुचित प्रबन्ध रहे तो उसका परिणाम इतना ही हो सकता है कि मजबूत शरीर वाले बालक पैदा हों। बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास यदि इस जोड़े का नहीं हुआ है तो वह बलिष्ठ सन्तान बुद्ध अथवा अनैतिक भी हो सकती है। फिर वंश परम्परा की कोई विकृतियाँ भी इस जोड़े में ऐसी जुड़ी हो सकती हैं कि बड़ा होने पर वह मजबूत बालक किसी ऐसी विकृति में फँसा पाया जाय, जिससे परिपुष्ट शरीर वाले युवक−युवतियों के विवाह वाली बात ही निरर्थक सिद्ध हो जाय।

शरीर से अधिक महत्व बुद्धिमत्ता और प्रतिभा का है। उस तत्व का विकास अधेड़ आयु के उपरान्त होता है। इससे पूर्व पता नहीं चलता कि कौन बुद्धिमान या प्रतिभावान सिद्ध होगा। फिर उतनी आयु तक वे लोग अविवाहित ही बैठे रहें; यह सम्भव नहीं। प्रतिभाशाली लोग तलाक देकर नये जोड़े चुने यह और भी अधिक झंझट भरा कार्य होगा।

भौतिक विज्ञानी नीति−अनीति के झंझट में नहीं पड़ते। उन्हें गुणकारी औषधि बनाने के लिए प्रचुर जीव हिंसा करनी पड़े तो आपत्ति नहीं। इसी दृष्टि से वे उत्तम सन्तान प्राप्त करने का उद्देश्य पूर्ण करने के लिए दांपत्य−जीवन की, पवित्रता की उपेक्षा करने को तैयार हैं। वे कहते हैं विवाह एक सामाजिक साझेदारी है और संतानोत्पादन राष्ट्रीय कर्त्तव्य, मानवी समस्या। दोनों को एक दूसरे से जोड़ा न जाय। पति−पत्नी को अन्य नर−नारियों के संपर्क से सुप्रजा उत्पन्न करने की छूट रहे, तभी भावी पीढ़ियों को समुन्नत बनाने की समस्या हल होगी। इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान निरापद समझा गया है, उसमें व्यभिचार की वर्तमान बुराई भी शिर नहीं बँधती और एक महत्वपूर्ण उद्देश्यों भी पूरा हो जाता है। इसके प्रमाण में हनुमान पुत्र मकरध्वज का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है।

बुद्धिवादी वर्ग के गले यह दलील उतर गई है और विकसित देशों में कृत्रिम गर्भाधान के लिए अत्युत्साह फूट पड़ा है; किन्तु उससे अन्य कई कानूनी तथा भावनात्मक समस्याएँ सामने आई हैं।

अमेरिका में इन दिनों प्रायः 25 हजार माताएँ कृत्रिम गर्भाधान से संतानोत्पादन का लाभ उठाती हैं। इन उत्पन्न बालकों का असली पिता कौन है यह सर्वथा अविज्ञात रहता है। स्थापित शुक्र के अनुदाता का नाम सर्वथा गुप्त रखा जाता है अन्यथा भावनात्मक एवं आर्थिक उत्तराधिकार सम्बन्धी अनेक झंझट उठ खड़े होंगे और उनका सुलझाना एक नया शिर दर्द बन जायगा। आज के अभिभावकों और सन्तान के बीच जो कानूनी एवं भावनात्मक स्थिति है, वह बदल जाय तो फिर आज का दुराव भी आवश्यक न रहेगा।

प्रो. जोनास साल्क ने विश्व के कानून क्षेत्र को इस सम्भावना की आगाही दी है कि निकट भविष्य में मनुष्य प्रयोगशालाओं में उत्पन्न किये जायेंगे। जिनका रज−वीर्य उस प्रयोजन के लिए लिया गया है; उनका उस उत्पन्न हुई सन्तान पर कितना अधिकार होगा अथवा वे बच्चे अपने जन्मदाताओं से उत्तराधिकार की क्या उपेक्षा करेंगे, इसका निर्धारण किया जाना चाहिए। वर्तमान रतिक्रिया प्रधान उत्पादन को आधार मानकर बनाये गये उत्तराधिकार कानून अगले दिनों की जटिलताओं का समाधान न कर सकेंगे।

नर के शुक्राणु चिरकाल तक सुरक्षित रखना और उसे प्रजनन योग्य बनाये रहना यह सफलता बहुत पहले ही मिल चुकी है। अब आवश्यक नहीं रहा कि नर−नारी को रतिक्रिया करनी ही पड़े अथवा पिता जीवित ही हो। मृतक घोषित किया गया भी सन्तानोत्पादन करता रह सकता है। सुदूर देशवासी नर−नारी व्यस्तता के कारण परस्पर मिल न सकें तो भी उनका प्रजनन−कर्म व्यवस्थापूर्वक चलता रह सकता है। शुक्राणुओं को सुरक्षित रखने की विधि बहुत समय पहले लिटिलराक अर्कासास के डा. एच. शर्मन ने खोज निकाली थी। शुक्र को ग्लिसरोल में मिलाकर द्रव नाइट्रोजन की सहायता से बनाये गये। 196 सेन्टीग्रेड में नीचे शीत तापमान में रख दिया जाता है। इस प्रकार पशुओं का शुक्र 10 साल तक और मनुष्यों का 5 साल तक सुरक्षित रखा जा सकता है। उपयुक्त शुक्र की सहायता से उपयुक्त बच्चे उत्पन्न करने की इच्छुक महिलाओं ने इस विधि से अकेले अमेरिका में ही लगभग डेढ़ लाख बच्चे पिछले दिनों उत्पन्न किये हैं। अन्य देशों में भी यह प्रचलन बढ़ रहा है।

वैज्ञानिक सोचते हैं कि प्रजनन क्रिया पर विज्ञान का नियन्त्रण हो जाने से अभीष्ट स्तर की पीढ़ियाँ उत्पन्न कर सकना सम्भव हो जायगा जिस प्रकार पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान के सहारे नस्ल सुधार का प्रयास सफलता पूर्वक चल पड़ा है, उसी प्रकार मनुष्यों में भी क्यों नहीं चलाया जा सकता है। वे सोचते हैं संसार के मूर्धन्य महा−मानवों को विश्व प्रजनन संस्था के लिए वीर्यदान देना चाहिए और उसका उपयोग परिष्कृत स्तर की महिलाओं की सहायता से उसी स्तर की सन्तान उत्पन्न करने के लिए किया जाना चाहिए। सोचा गया है कि इस पद्धति से एक आइन्स्टीन से अनेकों आइन्स्टीन पैदा करने में सफलता मिलेगी और इससे विश्व−मानव की नसल सम्पदा को ऊँचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान मिलेगा।

इस क्षेत्र में मूर्धन्य पुरुषों को ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ेगा, वरन् मूर्धन्य नारियों को भी कष्ट सहने के लिए तैयार रहना होगा। एक पक्षीय श्रेष्ठता कुछ बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध न कर सकेगी।

विश्व विख्यात साहित्यकार जार्ज बर्नार्डशा अपनी विनोदी प्रकृति के लिए प्रख्यात थे। वे उन दिनों वृद्ध भी थे और कुरूप तो पहले से ही थे। एक सुन्दर युवती उनके पास यह प्रस्ताव लेकर पहुँची कि वे उसके साथ विवाह करलें ताकि उसे शा जैसी बुद्धिमान और उस जैसी सुन्दर सन्तान प्राप्त हो सके।

शा ने उत्तर दिया आवश्यक नहीं वह मुझ जैसी बुद्धिमान और आप जैसी सुन्दर ही सन्तान हो, इसका ठीक उलटा भी हो सकता है—वह मुझ जैसी कुरूप और आप जैसी मूर्ख भी उत्पन्न हो सकती है।

यह मात्र विनोद ही नहीं था। इसके पीछे एक सचाई भी है कि केवल नर पक्ष को ही पीढ़ी निर्माण का सारा श्रेय नहीं मिल सकता; इसके लिए माता का स्तर भी अनुकूल होना चाहिए। शुक्राणुओं के साथ तो श्रेष्ठ परम्पराएँ जुड़ी हुई हों, किन्तु डिंबाणु अवाँछनीय स्तर की विशेषताओं से भरे हों तो इच्छित परिणाम न हो सकेगा। माता और पिता की संयुक्त खेती ही तो शिशुओं की फसल देती है, इसलिए सुधार प्रयास, मात्र नर−पक्ष के लिए पर्याप्त नहीं, उसके लिए उतना ही प्रयत्न नारी पक्ष के गुण सूत्रों के सुधार को भी करना पड़ेगा। वंश परम्परा में पितृ पक्ष और मातृ पक्ष की भूमिका न्यूनाधिक मात्रा में प्रायः समान ही रहती है।

भीम का पुत्र घटोत्कच अपने पिता के समान बलवान तो था, पर माता हिडम्बा वनवासी भील थी इसलिए बच्चे की आकृति−प्रकृति माता के समान ही बन सकी। मदालसा ने अपनी सभी सन्तानें मनचाहे स्तर की उत्पन्न की थीं, इसमें उसके पति का स्तर तो साधारण था, पर उसने अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति में सुधार कर अभीष्ट गुण, कर्म, स्वभाव के बच्चे उत्पन्न किये। यह एकाँगी प्रयास के उदाहरण हैं। यदि भीम की पत्नी कोई परिष्कृत स्तर की होती तो घटोत्कच की अपेक्षा अधिक समुन्नत बालक उत्पन्न होता। इसी प्रकार मदालसा का पति भी यदि सुविकसित रहा होता तो अभीष्ट उत्पादन और भी यदि सुविकसित रहा होता तो अभीष्ट उत्पादन और भी अधिक ऊँचे स्तर का सम्भव हुआ होता।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में यह प्रचलन भी था कि गृह−व्यवस्था के लिए दाम्पत्य−जीवन का एक क्रम बना रहे और श्रेष्ठ सन्तानोत्पादन के लिए नर−नारी उपयुक्त आधार तलाश कर सकें। कुन्ती का उदाहरण ऐसा ही है वह पाण्डु की पत्नी थी और आजीवन उसी रूप में रही। बिना तलाक दिये अथवा न पतिव्रत धर्म भंग किये उन्होंने मनचाहे स्तर की सन्तान उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। उनके पाँच पुत्र, पाँच पाण्डव, पाँच देवताओं की संतानें थी। इतना ही नहीं विवाह से पूर्व भी उन्होंने कर्ण को जन्म दिया था। उनका यह प्रयोग असफल नहीं रहा। प्रचलित सामाजिक परम्पराओं के अनुसार लोकापवाद हुआ या नहीं यह एक पृथक प्रश्न है।

नियोग प्रथा का शास्त्र में उल्लेख भी है और आदेश भी। पति−पत्नी में से किसी की असमर्थता अथवा अनुपस्थिति में अन्य नर−नारी की सहायता से सन्तानोत्पादन करना और उसे उत्तराधिकारी मानना हिन्दू धर्म की शास्त्रीय परम्पराओं के अनुरूप ही माना जाता था।

हिटलर के वे प्रयोग सर्वविदित हैं जिनमें उसने जर्मन जाति की उत्कृष्ट नसल पैदा करने की दृष्टि से एक योजना चलाई थी, जिसके अंतर्गत चुनी हुई नारियों को चुने हुए नरों के द्वारा सन्तानोत्पादन के लिए बाध्य किया गया था। इस प्रयोग की उन दिनों धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में घोर निन्दा की गई थी, पर हिटलर यही कहता रहा—जर्मन जाति को विश्व विजयी नस्ल की आवश्यकता हैं। उसकी पूर्ति के लिए जो प्रयोग किये जा रहे हैं उनमें सन्निहित उद्देश्य किसी भी प्रकार निन्दनीय नहीं हो सकता।

इन सब दलीलों और प्रमाणों के रहते हुए भी यह प्रश्न बना ही रहेगा कि दाम्पत्य−जीवन की गरिमा को घटा कर ही कृत्रिम गर्भाधान का प्रचलन मानवी समाज में हो सकता है। इससे परम्परागत भावनाओं को चोट लगेगी और छुट−पुट प्रयोगों के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर यह प्रयोग सफल न हो सकेगा।

कृत्रिम गर्भाधान के समर्थन में कितनी ही गहरी दलीलें क्यों न दी जाँय वह बड़े पैमाने पर सफल न हो सकेगी। पति−पत्नी के बीच स्नेह, सम्बन्धों और मिलन आवेश का जो भावनात्मक प्रवाह बहता है, उसका कृत्रिम प्रक्रिया में कैसे समावेश किया जायगा? शिशुओं के प्रति आत्मीयता का सहज वात्सल्य पिता के मन में किस प्रकार उत्पन्न होगा? इतनी महत्वपूर्ण उपलब्धियों से वंचित शिशु को भावनात्मक दृष्टि से बहुत दूर तक अभावग्रस्त ही रहना पड़ेगा। अस्तु इस

वैज्ञानिक प्रक्रिया से इतनी ही आशा की जा सकती है कि वे शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से सुविकसित होंगे। उनमें स्थूल स्तर की विशेषताएँ भी वंश परम्परा के आधार पर भी हो सकती हैं किन्तु भावनात्मक अभाव तो अकेला ही इतना बड़ा है कि उसे छोड़ देने पर समग्र मानव की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

शिशुओं में भावनात्मक विकास लिए पति−पत्नी के बीच अगाध आत्मीयता और उद्दीप्त भावुकता का होना आवश्यक है। ऐसी दशा में भावी पीढ़ियों को सुसंस्कृत बनाने का लक्ष्य हर दृष्टि से आवश्यक और महत्वपूर्ण होते हुए भी उसकी पूर्ति के लिए हमें आध्यात्मिक मूल्यों का भी ध्यान रखना होगा। इस समस्या का समाधान हमें भावनात्मक आदर्शों को साथ लेकर ही करना चाहिए। पति−पत्नी की प्रजनन श्रेष्ठता बढ़ाकर ही इस प्रयोजन की पूर्ति की जा सकेगी।


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