आकांक्षाओं की पूर्ति और उसकी तैयारी

July 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मधुर अभिलाषाएँ हर किसी के मन में उठती हैं। प्रिय वस्तुएँ और सुखद परिस्थितियाँ कौन नहीं चाहता? जहाँ तक चाहने का प्रश्न है सहज इच्छाओं का केन्द्र इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है कि आज की अपेक्षा कल अधिक अच्छी स्थिति में रहने का अवसर मिले। इन्द्रिय भोगों से लेकर—स्त्री, पुत्रों के सुखी समुन्नत होने तक की विविध कल्पनाएँ अनायास ही उठती है। संग्रह करना अच्छा लगता है। सम्पत्तिवान और वैभववान बनने की लालिमा हर समय जगती रहती है। इससे भी आगे बढ़कर कई व्यक्ति यश, प्रशंसा, सम्मान की आकाँक्षा करते हैं और चाहते हैं कि उन्हें जन-प्रतिष्ठा मिले। नेतृत्व करने का अवसर मिले। ऐसा पद मिले जिसके आगे बहुत लोग झुकते और निर्देश पाने की प्रतीक्षा करते हों।

पेट भरने और तन ढकने की प्राथमिक आवश्यकता पूरी करने के उपरान्त प्रायः मनःक्षेत्र में ऐसी ही सुखद कल्पनाएँ उमड़ती, घुमड़ती रहती हैं, जिनका उद्देश्य इन्द्रिय भोगों से लेकर कुटुम्ब-पालन और सम्पत्ति संग्रह तथा यश, वर्चस्व का सम्पादन होता है। आमतौर से मनुष्य की आकाँक्षाएँ इसी प्रकार की बनी रहती हैं। जो अधिक सुलझे हुए दूरदर्शी हैं वे महामानवों की पंक्ति में अपने को खड़ा देखना चाहते हैं। इतिहास के स्मरणीय पृष्ठों पर अपनी चर्चा का उल्लेख होने के इच्छुक हैं। स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि, ईश्वर दर्शन आदि के अभिलाषी हैं। यह आकाँक्षाएँ भी—भावी प्रगति की ही सूचक हैं। इन्द्रिय जन्य, सम्पत्ति परक, परिजन, सम्बन्धित, यश प्रदायक अथवा पारलौकिक आध्यात्मिक वर्गों में इन्हें विभाजित किया जा सकता है। एक से दूसरी को विकसित परिष्कृत कहा जा सकता है, पर हैं सभी आकाँक्षाएँ ही। मनुष्य की अदम्य इच्छा यह रहेगी ही कि उसे अधिक सुखद और सन्तोषजनक परिस्थिति प्राप्त होनी चाहिए।

देखा जाता है कि कई व्यक्ति अभीष्ट, मनोरथों को प्राप्त करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ते हैं और धीरे-धीरे इतना कुछ सम्पादन भी कर लेते हैं जिसे सन्तोषजनक अथवा आश्चर्यजनक कहा जा सके। इसके विपरीत कई ऐसे होते हैं जिनकी लालसाएँ मात्र सपना बनकर रह जाती हैं। अभीष्ट उपलब्धियों की एक किरण भी कभी झाँकती दिखाई नहीं पड़ती। एक ओर इच्छाओं के घटाटोप, दूसरी ओर प्रगति का सर्वथा अवरोध, इस स्थित में मन में घोर निराशाजनक प्रतिक्रिया होती है। मनुष्य अपने आपको अभागा मानकर आत्म-प्रताड़ना की पीड़ा सहता है अथवा किन्हीं व्यक्तियों या परिस्थितियों को इस अवरोध का कारण मानकर उन्हें कोसता हैं। कई स्वप्नदर्शी और भी आगे बढ़ जाते हैं उन्हें किन्हीं अदृश्य देव-दानवों पर, ग्रह-नक्षत्रों पर, दोषारोपण करने से राहत मिलती है। क्योंकि वे बेचारे अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए—सफाई देने के लिए—सामने आने में असमर्थ रहते हैं।

जो हो, प्रगति और समृद्धि की अभिलाषा ऐसी है, जो जीव चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है, उसे हटाया, मिटाया नहीं जा सकता। अध्यात्मवादी-दार्शनिक अधिक से अधिक इतना ही कर सकते हैं कि उसे पशु-स्तर से ऊँचा उठा कर देव-स्तर तक ले पहुँचें। आत्म-कल्याण,विश्व-कल्याण की बात सोचें। ईश्वर प्राप्ति अथवा स्वर्ग मुक्ति का प्रयास करें। इस मार्ग में चलते हुए भक्ति भावना अथवा तपश्चर्या, योग-साधना का जो क्रिया-कलाप अपनाना पड़ता है, उसे भी आकाँक्षाओं की श्रेणी से अलग नहीं रखा जा सकता है, भले ही उनका स्तर कितना ही ऊँचा क्यों न हो।

जब आकाँक्षाओं को हटाया नहीं जा सकता तो फिर एक ही मार्ग शेष रह जाता है कि उनकी पूर्ति के लिए योजनाबद्ध व्यवस्था जुटाई जाय। यही वह मार्ग है जिस पर चलकर हम अहर्निश अन्तःक्षेत्र में उठने वाले तूफानों का समाधान कर सकते हैं और अशान्त उद्वेग विक्षोभों से छुटकारा पाकर सुव्यवस्थित, सुसन्तुलित जीवन-क्रम में शान्तिपूर्वक अग्रसर होते रह सकते हैं।

आकाँक्षाओं की पूर्ति होते रहने से सन्तुष्ट जीवनचर्या प्राप्त करने के अभिलाषी को प्रथम चरण यह उठाना पड़ता है कि वह निर्धारण करे कि उसकी आकाँक्षाओं को किस दिशा में अग्रसर होना चाहिए, किसमें नहीं। यह निर्णय हो पावे तो इच्छाएँ अनेक दिशाओं में दौड़ती हैं। वे परस्पर विरोधी भी होती हैं और इतनी भिन्न भी कि प्रस्तुत क्षमता एवं साधनों के आधार पर उन्हें आज की परिस्थितियों में पूरा नहीं किया जा सकता। चिन्तन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। क्षणभर में दुष्ट जैसी और क्षणभर में सन्त जैसी आकाँक्षाएँ मन में उठ सकती हैं, पर एक साथ दोनों प्रकार की क्षमताएँ नहीं जुटाई जा सकती। अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित और असन्तुलित अभिलाषाओं को मस्तिष्क में घुमड़ते रहना सरल है, पर उनकी पूर्ति असम्भव है। मनुष्य उन कार्यों में उतनी ही मात्रा में सफल हो सकता है, जितने कि उसके पास अन्तरंग अथवा बहिरंग साधन होते हैं। योग्यता एवं साधन सुविधा में क्रमशः बढ़ोतरी हो सकती है, तब अपनी आकाँक्षाएँ भी विकसित की जा सकती हैं, पर आज जिनकी बुद्धि संगत संगति नहीं हैं और व्यावहारिक सम्भावना नहीं हैं, उनके लिए कल्पना की उड़ाने लगाना सर्वथा निरर्थक है। उसमें अपनी बौद्धिक क्षमता का अनावश्यक अपव्यय होता है और कुछ न कर पाने, कुछ न बन पाने, कुछ न मिल पाने की खोज का आक्रोश बिना कारण ही शिर पर आकर लद जाता है।

प्रगतिशील जीवन का आरम्भ आकाँक्षाओं को नियमित और व्यवस्थित करने से होना चाहिए दिशा निर्धारण एक अत्यन्त आवश्यक कार्य है। लक्ष्यहीन अव्यवस्थित चिन्तन की विडम्बना से जितना बचा जा सके उतना ही उत्तम है। सोचना चाहिए कि एक निर्धारित दिशा में ही सफलता प्राप्त कर सकने के साधन मनुष्य के पास होते हैं, इसलिए यह निर्धारण करना चाहिए कि हमें भविष्य में क्या करना और क्या पाना है। यह निर्धारण ऐसा होना चाहिए जो अपनी आज की योग्यता एवं परिस्थितियों के साथ ताल-मेल खाता हो। आधारहीन कुलाचें भरने में टाँग टूटने का खतरा ही उभर कर आगे आता रहेगा।

हमें धनवान, पहलवान, विद्वान, प्रतिभाशाली, लोकसेवी, श्रेयार्थी, मनमौजी, आदि जो कुछ बनना उपयुक्त लगता हो, उसमें से एक को चुनलें। अधिक से अधिक दो को। दिशाएँ सीमित कर लेने पर क्रमबद्ध चिन्तन सम्भव हो जाता है। जो पाना है, जो करना है, वह निश्चित हो जाने पर मस्तिष्क को वैसा ही ताना-बाना बुनने की बात सूझती है। इसके लिए अपनी बौद्धिक क्षमता क्या बढ़ानी है? साधन क्या जुटाने हैं? संपर्क किन से बनाना है? सीखना क्या है? आदि अनेकों आधार सामने आते हैं। उन गुत्थियों को सुलझाने और साधन-उपकरण जुटाने के प्रयास आरम्भ हो जाते हैं। सोचने और करने की हलचलें उन साधनों को जुटाती हैं जिनके बलबूते अभीष्ट आकाँक्षाओं की पूर्ति का पथ-प्रशस्त हो सके।

कोई व्यक्ति अभी पूरब, अभी पच्छिम, अभी उत्तर, अभी दक्षिण को चलता रहे तो जिन्दगी भर चलते या दौड़ते रहने पर भी कहीं पहुँच न सकेगा। ऐसे ही अपनी शक्ति, सामर्थ्य को नष्ट करता रहेगा। समय की बर्बादी और कुछ हाथ न लगने की खोज ही उसके पल्ले पड़ेगी। इसके विपरीत यदि वह दिशा निर्धारित करके किसी मार्ग पर धीरे-धीरे क्रमबद्ध रूप से चलता रहे तो कुछ समय बाद प्रतीत होगा कि उसने लम्बी मंजिल पूरी करली दिशा निर्धारण और क्रमिक गतिशीलता के अपने चमत्कार हैं। अव्यवस्थित दौड़ लगाने वाले खरगोश से मन्दगामी किन्तु अनवरत श्रम संलग्न कछुए ने बाजी जीती थी और उसके कान काटे थे, यह कहानी भले ही बाल मनोरञ्जन की दृष्टि से गढ़ी मई हो, पर उसमें जिस तथ्य का समावेश है वह अक्षरशः सत्य है। एक दिशा में अनवरत गति से चलने वाले—अपने चिन्तन और प्रयास को अभीष्ट लक्ष्य पर नियोजित रखने वाले इतनी सफलता प्राप्त कर लेते हैं जिसे दैवी वरदान अथवा अप्रत्याशित तक कहा जा सके।

लक्ष्य का निर्धारण अनावश्यक और अस्त-व्यस्त आकाँक्षाओं की कल्पना, जल्पना से छुटकारा दिलाता है। इससे अपनी शक्ति के महत्वपूर्ण अंश की बर्बादी बच जाती है और उसका उपयोग जब अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में होने लगता है तो सफलता की मंजिल पूरी करने में उतने से ही बड़ी सहायता मिलती है।

आकाँक्षा की पूर्ति के समय जो सुखद उपभोग उपलब्ध होंगे, प्रायः उन्हीं के चिन्तन में उथले लोग उलझे रहते, है। उस क्रिया-कलाप की गहराई में नहीं उतरते जिसके सहारे वह सफलता प्राप्त की जाती है आकाँक्षा और उसकी पूर्ति के बीच में एक बड़ी लम्बी-चौड़ी और गहरी खाई होती है, उसे पाटने के लिए कितने साहस की-कितने अध्यवसाय की - कितने प्रयास की आवश्यकता पड़ेगी इसे तो भूला ही दिया जाता है। सफलता की मंजिल तक पहुँचने के कितने साधन जुटाने पड़ेंगे और उनके लिए क्या-क्या करना पड़ेगा? अड़चनों से किस तरह निपटा जायगा और जो साधन नहीं जुट सके उनका विकल्प क्या होगा? इन बातों पर जो विचार नहीं कर सकता और इच्छा के बाद सफलता को ही दूसरा चरण मानता है, वह पूरा शेखचिल्ली ही बना रहेगा। शेखचिल्ली की कहानी सर्वविदित है। वह सिर पर तेल का घड़ा रखने के बाद कल्पना का घोड़ा अति द्रुतगति से दौड़ाने लगा था। मजूरी के दो पैसे हाथ आने से पूर्व ही वह अण्डा, मुर्गी बकरी, भैंस, बीवी खरीदने, बच्चा होने और बड़ा होकर हुक्का पिलाने की कल्पना में इतना भाव विभोर हो गया कि शिर झटक कर सिर पर रखे तेल के घड़े को ही गिरा बैठा। कल्पना की इतनी द्रुतगति जिनकी है-जो मध्यवर्ती साधनों की महती आवश्यकता और उनके जुटाने में प्रयुक्त होने वाले प्रखर साहसिकता एवं प्रचण्ड प्रयत्नशीलता की आवश्यकता को भूला देते हैं उन्हें शेखचिल्ली ही कहा जायगा। हममें से कितने ही, ऐसे ही भावुक अत्युत्साही होते हैं और उसी तरह अपने को उपहासास्पद बनाते है।

आकाँक्षाओं की पूर्ति में निस्संदेह सुख और सन्तोष है। इस उपलब्धि को पाकर मनुष्य को आनन्द एवं उल्लास की उपलब्धि होती है। हर कोई इस स्थिति को प्राप्त करना चाहता है पर न जाने क्यों यह तथ्य भुला दिया जाता है कि इस वरदान को प्राप्त करने के लिए अनवरत एवं कष्टसाध्य साधना करनी पड़ती है। सन की प्रसन्नता का केन्द्र इस पहली मंजिल पर ही नियोजित करना पड़ता है। अभीष्ट प्रयोजन के लिए साधन जुटाने के लिए अपनी क्षमता, योग्यता का बढ़ाना एवं आवश्यक साधनों का जुटाना अनिवार्य है। इन दोनों उपलब्धियों के लिए किये जाने वाले प्रयास को इतना सुखद मान लिया जाना चाहिए मानो वही सफलता का अन्तिम बिन्दु हो। सुखद सत्परिणाम के उपभोग जितना रस यदि प्रगति पथ पर चलने के साधन जुटाने एवं काँटे बीनने में आने लगे तो ही यह समझना चाहिए कि सफलता का आधार सुनिश्चित बन गया।

अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति में देर लगाना और अनेकानेक अवरोध उत्पन्न होना नितान्त सम्भव है। मनस्वी व्यक्ति धैर्य, साहस, पुरुषार्थ और सन्तुलन का आश्रय लेकर इस कठिन मार्ग को पार करते है। किन्तु उथले और अधीर मनुष्य जरा-सा विलम्ब होते के गर्त में गिर कर असफलता की घोषणा कर देते है। इन बालबुद्धि लोगों को यह समझना चाहिए और समझाया जाना चाहिए कि सफलता के प्रतिफल खजूर जैसे ऊँचे वृक्ष पर ही लगते है। उन्हें पाने के लिए जोखिम भरी ऊँचाई तक चढ़ने के लिए घोर साहसिकता का परिचय देना पड़ता है। जो इतना मूल्य नहीं चुका सकते, उन्हें किन्हीं बड़ी उपलब्धियों की आशा नहीं करनी चाहिए। तुर्त इच्छा फुर्त पूर्ति के सपने तो केवल बालबुद्धि को ही शोभा देते है। संसार के प्रगतिशील मनुष्यों की अविचल धैर्य के साथ अनवरत पुरुषार्थ करने की प्रक्रिया को ही अत्यन्त सरस मानकर चलना पड़ा है। वे अपनी पुरुषार्थ, परायणता को-संघर्ष निष्ठा को ही इतना मधुर मानते रहे है कि हजार वर्ष तक अन्तिम सफलता के लिए प्रतिक्षा करना भी भारी न पड़े।

अनेकानेक अभिलाषाएं करना और उनकी पूर्ति के समय मिलने वाले आनन्द की कल्पना करना मनो विनोद की दृष्टि से अच्छा है, पर उसमें खीज और निराशा की प्रतिक्रिया भी पूरी तरह जुड़ी हुई है। जिन्हें मधुर कल्पना और दुखद निराशा के ज्वार-भाटे में उछलना, निरन अच्छा लगता हो वे प्रसन्नतापूर्वक उस बाल-विनोद में ला रहें पर जिन्हें कुछ पाना है, उन्हें आकाँक्षाओं को निष्ठ नित परिष्कृत करने का प्रथम चरण बढ़ाकर दूसरा कद यह रखना चाहिए कि निर्धारित लक्ष्य के लिए अवश्य खमता एवं साधन जुटाने में इतने धैर्य एवं इतने उत्साह साथ संलग्न होंगे कि वे प्रयास ही सफलता के जित आनंददायक प्रतीत होने लगें। महत्वपूर्ण सफलताएँ कर सकने का अधिकार इससे कम मिलता भी कहाँ है


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118