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July 1974

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सुख और आनन्द की खोज बाहर करते हैं; लेकिन व अन्दर ही है।

— रवीन्द्रनाथ टैगोर

शहद पर बेतरह टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पर और पैर उसमें चिपका लेती है और बेमौत मरती है इसकी अपेक्षा वह मक्खी नफे में रहती है जो चासनी से थोड़ा पीछे हठकर बैठती है और स्वादपूर्ण मिठास का रस लेती है। फलाशा की आतुरता में मिलने वाली वस्तु का आनन्द ही चला जाता है, जब कभी अभीष्ट मनोरथ पूरा हो गया तब थोड़ा सी प्रसन्नता होगी किन्तु इस बीच विलम्ब लगने और आशंका रहने और व्यवधान पड़ने के जो अवसर आते हैं उनमें अनेकानेक आघात लगते रहते हैं, वे सब मिलकर इतने भारी बैठते हैँ कि अन्तिम सफलता का आनन्द उनकी तुलना में तुच्छ बैठे, इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए गीताकार ने अनासक्त कर्मयोग की शिक्षा दी है। सफलता की आनन्द लेने के हर इच्छुक को इसी मार्ग का सहारा लेकर अभीष्ट दिशा में चलना अधिक लाभदायक रहता है और अधिक आनन्ददायक भी।


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