भटकाव (kahani)

July 1974

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राज्य में चोरों ने उत्पात मचा रखा था। कौशल नरेश ने समाचार सुना तो वे आगबबूला होकर स्वयं एक बड़ी सेना साथ लेकर तस्करों का दमन करने के लिए निकल पड़े।

मन्त्री ने समझाया—राजन्, शत्रु अपने राज्य ने उस सलाह पर ध्यान नहीं दिया और सेना समेत कूच पर निकल पड़े। कुछ दूर जाने पर घोर वर्षा के कारण सर्वत्र जल भर गया और वे एक भूखण्ड में घिरे हुए रह गये।

घोड़ों को दाना दिया गया था। पेड़ पर से एक बन्दर उतरा। उसने दाने में से मुट्ठी भरी और ऊँची टहनी पर बैठ कर खाने लगा। मन्त्री और राजा यह कौतूहल देख रहे थे।

कौतूहल और भी बढ़ा जब कि बन्दर की मुट्ठी में से एक दाना गिरा और वह उसे पाने के लिए आतुर हो उठा। बन्दर का आवेश इतना बढ़ा कि उसने मुट्ठी के दाने फेंक दिये और नीचे उतर कर उस गिरे हुए दाने भी चले गये। इस दुहरी हानि से बन्दर दुखी व निराश होकर मुँह लटकाये हुए एक सुखी डाली पर बैठा जम्हाई लेने लगा।

राजा और मन्त्री जटिल था। राजा विचारों में खो गया। राजधानी की रक्षा और जीवन सम्पदा की व्यवस्था के दोनों ही ‘निश्चित’ उसे अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत हुए—सो रास्ता खुलते ही सेना को वापिस लौट चलने का आदेश दिया गया।

बन्दर की तरह—कौशल नरेश की तरह हम भी जीवन तथ्य के निश्चित से परांगमुख होकर उस अनिश्चित के पीछे भटकते हैं जिसके मिलने और टिकने की सम्भावना स्वल्प ही होती है।


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