लिपि और भाषा की तरह हम अन्य क्षेत्रों में भी आगे ही बढ़ेंगे

July 1974

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विचारों को —भाषा को −लिपि के माध्यम से अंकित करके दूसरों तक पहुँचाने एवं स्थिर रखने का आज प्रचलन है, उससे हम भरपूर लाभान्वित होते हैं। भाषा का विकास न होता तो हम आदिम काल के बन्दरों की तरह चैंचें, खों−खों भर कर पाते। लिपि न होती तो सुनकर याद करके ही कुछ बातों को स्मरण रखा जा सकता था। अति प्राचीन काल में महत्वपूर्ण विचार बार−बार पढ़ने और उनका निरन्तर स्मरण करके ही काम चलता था। ‘श्रुति’ इसी प्रक्रिया का नाम है, लिपि के अभाव में और कोई मार्ग भी तो नहीं था।

हमें इन दिनों सुधरी हुई लिपियाँ प्राप्त हैं। देवनागरी, रोमन,अरबी चीनी आदि कितनी ही लिपियाँ संसार में प्रचलित हैं और सुविकसित हैं। यह स्थिति आरम्भ से ही ऐसी नहीं थी। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने पता लगाया है कि सर्वप्रथम वस्तुओं का परिचय संकेतों के माध्यम से आरम्भ हुआ जिस वस्तु या व्यक्ति के बारे में लिखा जाना होता उससे मिलता−जुलता एक रेखा चित्र बनाया जाता था। उसी आधार पर बात स्मरण हो आती थी। चीनी लिपि का —उसके अक्षरों का — आधार अभी तक वही चला आता हैं।

पीछे कुशल क्षेम, यात्रा, हारी−बीमारी, भोजन−निवास सन्तान, युद्ध आदि से सम्बन्धित कुछ आड़ी−टेड़ी लकीरों की रचना हुई और उस आधार पर एक स्थान से दूसरे स्थानों तक संकेतों का आदान−प्रदान आरम्भ हुआ। अभी भी धोबी लोग अपने ग्राहकों के लिए अलग−अलग तरह के रेखा चिह्न बना लेते हैं और पक्की स्याही से किसी कोने पर उन्हें अंकित करे देते हैं। इस प्रकार कौन कपड़ा किस ग्राहक का है इसी पहचान वे आसानी से कर लेते हैं।यही तरीका उस आदिम काल के लिपि विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।

जो लिपि अभी भी पाई गई है, वह पत्थरों पर खुदी हुई है। सम्भवतः उधर से आने −जाने वाली तथा भविष्य के लोगों को जानकारी देने की दृष्टि से ही इस प्रकार का लेखन चला होगा। उस समय की लिपि आड़ी−टेड़ी लकीरें हैं। जो किसी लोहे की कील से खोदकर बनाई गई हैं सम्भवतः पहले उन अक्षरों को कोयला आदि से पत्थरों पर लिखा जाता होगा पीछे उनकी खुदाई की जाती होगी।

कालान्तर में मिट्टी की पतली पट्टियाँ इट जैसी बनाई गई उन पर खोदा गया और उन्हें आग में पकाकर स्थायी बना लिया गया। खपरैलों में तो गोलाई होती है यह खपरे सीधे थे। ऐसी पुस्तकें केल्डिया की खुदाई में सर हेनरी लेअर्ड को प्राप्त हुई; वे लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इसमें किसी ‘बाढ़’ द्वारा हुए विनाश का उल्लेख है। इसे ईसा से 4 हजार वर्ष पुरानी माना जाता है।

इन्हीं लिपि खोजियों में एक विद्वान असीदिया का नाम भी आता है, जिसने अब से कोई 1400 वर्ष पूर्व ऐसी खप्पर पुस्तकों का संग्रह किया था; जिनमें प्राचीन काल के राजाओं के क्रिया−कलापों का ऐतिहासिक वर्णन है।

कागज से मिलती जुलती चीज मिश्र में सरकंडों को कूट उसकी लुगदी से मोटी परत के रूप में बनाई गई थी उसे पसार या पपरस कहा जाता था। मिश्र में तब तक लिपि भी विकसित होकर इस लायक बन गई थी कि उसमें किन्हीं विचारों या घटनाओं का उल्लेख हो सके। लंदन के संग्रहालय में इस प्रकार की प्रथम पुस्तक ‘मृतकों की पोथी’ सुरक्षित रखी है। यह पुस्तकें पिरामिडों में गाढ़े जाने वाले मृत शरीरों के साथ उनकी सुख−शान्ति के लिए लिखी जाती थीं। 23 फुट 7 इञ्च लम्बे और डडडड फुट 7 चौड़े एक पसार पर लिखी गई हो तप की ‘नसीहतें’ पैरिस के राजकीय पुस्तकालय में संग्रहित है इसे ईसा से 3500 पूर्व पूर्व की माना जाता है। इसके बाद ताड़ पत्रों पर और भोजपत्रों पर लिखने का समय आता है।

ईसा से 500 वर्ष पूर्व चीनी संत कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं का क्रमबद्ध लेखन प्रारम्भ हो गया था। यों लिपि उस समय भी अनपढ़ थी। अक्षर थोड़े से ही थे और उसमें मोटी बातें ही संकेत रूप में लिखी जा सकती थीं। बाँस की चौड़ी खपच्चियों पर खोदना तथा रेशमी वस्त्रों पर छापना तब तक चलता रहा जब तक कि कागज का आविष्कार नहीं हो गया। कागज का निर्माण ईसा से एक सौ पहले ही चीनियों द्वारा किया गया था। ठप्पे बनाकर छापने की युक्ति भी उन्हीं को सूझी। ईसा के बाद पुस्तक रचना का कार्य व्यवस्थित रूप से शुरू होने लगा था कि तत्कालीन चीनी शासक शेहाँमती को न जाने क्या उमंग उठी कि उसने कृषि और स्वास्थ्य सम्बन्धी पुस्तकों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के साहित्य में खड़े खड़े आग लगवा दी।

यूनान में ईसा से 500 वर्ष अक्षरों का स्वरूप सुव्यवस्थित होने लगा था। फिनीशियों और मिश्रियों ने लेखन में विशेष उत्साह दिखाया और कार्थेज नगरी में काम चलाऊ पुस्तक लेखन कार्य चल पड़ा। ईसा से कुछ समय पूर्व सम्राट जूलियस सीजर ने भी एक विशाल पुस्तक भण्डार जलवाया था। तब सिंकदरिया में पुस्तक लेखन कार्य एक छोटे व्यवसाय का रूप धारण कर चुका था। लेखन वाचन हर कार्य किसी को नहीं आता था कुछ विशेष लोग ही ग्रह कार्य करते थे। उन्हें धन और सम्मान दोनों ही मिलते थे। तब पुस्तकें इस तरह की होती थीं जैसे आजकल बड़े−बड़े नक्शे होते हैं। दोनों सिरों पर पतली छड़ियां जुड़ी होती थीं और उन्हें चटाई की तरक गोलाकार बनाकर सुरक्षित रखा जाता था।

भारत में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में खप्परों पर लिखी पुस्तकें मिली हैं जो ईसा से पाँच हजार वर्ष पूर्व की है। प्रिपावा में पाये गये एक घड़े पर भी व्यवस्थित अक्षरों का अभिलेख हैं। इसके बाद ताड़पत्रों पर नुकीली कीलों से खोदकर पुस्तक लेखन का क्रम चला।

कलम और स्याही से लिखी सर्व प्राचीन पुस्तक ‘ पंच रक्षा’ मिली हैं। जो कलकत्ता के आशुतोष संग्रहालय में सुरक्षित है इसे सन् 1100 का लिखा माना जाता है। हर पन्ने पर छै−छै पंक्ति याँ हैं। छठी शताब्दी में ताड़पत्र पर लिखी गई सबसे पुरानी पुस्तक जापान के होम्यूज मठ में है जो छठी शताब्दी की मानी जाती है। सन् 500 के करीब का लिखा साहित्य तो भारत में भी बहुत मिला है, यह एक विशेष प्रकार के मजबूत कागज पर काली पक्की स्याही से सुन्दर अक्षरों में लिखा मिला है। यद्यपि उसकी लिपि और भाषा आज जैसी नहीं हैं। ऐसी पुस्तकों में संस्कृत, पाली और प्राकृत की पुस्तकें ही प्रधान हैं।

प्राचीन काल में ही सब कुछ था और अब हम निरन्तर गिर रहे हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। क्रमिक विकास की मंजिल पार करते हुए हम आज की स्थिति तक पहुँचे हैं और यह अग्र गमन निरन्तर जारी रहने वाला है। भौतिक क्षेत्र में भी और अध्यात्म क्षेत्र में भी। रास्ते में विराम,विश्राम और अवरोध पहले भी आते रहे हैं और आगे भी आते रहेंगे, पर मनुष्य की अनवरत गतिशीलता जारी ही रहेगी।

लिपि और भाषा को ही लें वह आरम्भ से ही उस रूप में नहीं रही है जैसी कि अब है। क्रमिक विकास के चरण बढ़ाते हुए हम उस क्षेत्र में आज की समुन्नत स्थिति तक पहुँचे हैं। अन्य क्षेत्रों के सम्बन्ध में भी यही बात है। कितनी बातों में हम पूर्वजों से आगे हैं। भाषा और लिपि के सम्बन्ध में जिस प्रकार प्रगति करते हुए हम यहाँ तक पहुँचे हैं— उसी प्रकार भौतिक विज्ञान के अन्यान्य क्षेत्रों में भी आगे बढ़े हैं। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में गिरावट अवश्य आई है, पर यह अवरोध भी स्थायी नहीं है। मनुष्य का स्वभाव आगे बढ़ना है। आत्मिक अवसाद भी देर तक टिकेगा नहीं। भावनात्मक क्षेत्र में भी हम उसी प्रकार अगले दिनों बढ़ेंगे जैसे कि भूतकाल में अनेकानेक क्षेत्रों में अग्रगामी कदम बढ़ाते चल आये हैं।


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