कर्त्तव्य निष्ठा का अनवरत आनन्द

July 1974

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अभीष्ट आकांक्षाएं पूरी हो भी सकेंगी या नहीं यह सर्वथा संदिग्ध है। आवश्यक नहीं कि जो कुछ हम सोचते या चाहते हैं वह होकर ही रहे। सफलता केवल चाहने पर निर्भर नहीं रहती। उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यदि साधन न जुटाये जा सकें तो अभीष्ट परिणाम कैसे प्रस्तुत होगा। आवश्यक साधन जुटाने के लिए अपनी योग्यतम, क्षमता और प्रतिभा को विकासोन्मुख होना पड़ता है। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्षमताओं के संवर्धन से व्यक्तित्व में प्रखरता आती है और उसी का उपयोग करके आमतौर से वे साधन जुटते हैं जिनसे अभीष्ट मनोरथों की पूर्ति का पथ− प्रशस्त हो सके। साधन ही सफलता के समीप ले पहुँचते हैं। साधन न जुट सके तो मनोरथों का पूरा हो सकना कठिन है। यह व्यवधान बना रहे तो असफलता के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा।

हमारी यह इच्छा है, इसलिए उसकी पूर्ति होनी ही चाहिए यह कोई तर्क नहीं है। देखना यह भी पड़ेगा कि जो चाहते हैं उसके लिए आवश्यक साधन जुटाये भी जा सकेंगे या नहीं। यह साधन दूसरों के सहयोग पर भी बहुत हद तक निर्भर रहते हैं। दूसरों को सहयोग के लिए, सहमत करने के लिए अपना व्यक्तित्व आकर्षक और मृदुल होना चाहिए। कटु,कर्कश और रूखे मनुष्य अकारण विद्वेष मोल लेते हैं और जिनसे सहायता की आशा थी उन्हें विरोधी बना लेते हैं। अपनी बौद्धिक योग्यता स्वल्प हो तभी परिस्थितियों के मोड़ के साथ ताल−मेल नहीं बैठता और आवश्यक साधन नहीं जुटते। साहस अथवा धैर्य के अभाव में भी मनुष्य हड़बड़ा जाता है। और सम्भावित सफलता को पीछे धकेल देता है। ऐसी दशा में सफलता की सम्भावना धूमिल होती चली जाती है।

परिस्थितियों का उतार चढ़ाव भी विलक्षण होता है। घटनाएँ कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूप से घटित होती हैं कि नजदीक आई सफलता उलट कर असम्भव बन जाती हैं। ऐसे उलट−फेर अपने हाथ से बाहर होते हैं इस संसार में परिस्थितियों की अनेकों धाराएँ बहती हैं। आँधी−तूफान की तरह कई बार उनका रुख हमारी दिशा में बहुत सहायक होता है और कई बार व उतना विपरीत होता है कि एक कदम भी आगे बढ़ते नहीं बन पड़ता। साहसी, सद्गुणी और क्षमता सम्पन्न व्यक्ति भी इन विपरीत परिस्थितियों में असहाय हो जाता है। जो सोचा गया है— जिसके लिए प्रयास किया गया है वह अवश्य ही पूरा होकर रहेगा, इसका कोई निश्चय नहीं। अपवाद ऐसे भी कम नहीं होते जिनमें सुयोग्य व्यक्तियों के पल्ले असफलता बँधी और अयोग्य ने अन्धे के हाथ बटेर लगने की उक्ति को चरितार्थ किया।

ऐसी ही अनेकों विडम्बनाएँ है जिनमें हम घिरे और जकड़े हुए हैं। आकाँक्षा, पुरुषार्थ की प्रबलता होते हुए भी अनेक कारण ऐसे हैं जो अभीष्ट सफलता की बात सुनिश्चित नहीं रहने देते। यों सत्प्रयत्नों का सत्यपरिणाम तो होता ही है और बहुत करके सफलताएँ भी उसी आधार पर मिलती हैं। किन्तु इतने पर भी दावा नहीं किया जा सकता कि हर सुयोग्य और हर प्रयत्नशील को सफलता उतनी मात्रा में मिल ही जायगी कि सोचा या चाहा गया है।

सफलता की प्रतिक्रिया मन पर आघात करती है। उससे निराशा होती है और खीज भी। कई बार तो यह आघात इतने गहरे होते हैं कि भविष्य में कुछ करने की हिम्मत जुटाना ही कठिन हो जाता है। कई व्यक्ति बेतरह टूट जाते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए यह मान लेते हैं कि अपना भविष्य अन्धकारमय है। ऐसी मनःस्थिति में दुबारा न तो उत्साह वर्धक सोचते बनता है और न हिम्मत के साथ कोई बड़े कदम उठाने का साहस होता है। जिनका अन्तर खोखला हो गया उनका बहिरंग पुरुषार्थ भी कैसे जगेगा और जहाँ भीतर बाहर का अवसाद छाया हुआ हो वहाँ उज्ज्वल भविष्य का सुर्योदय कहाँ होगा। असफलताएं कई बार दुर्बल मन वालों पर ऐसा ही अभिशाप पटक जाती हैं जिनके कारण वे सचमुच गई गुजरी स्थिति में दिन काटने के दुर्भाग्य के साथ समझौता कर लेते हैं और निराशा भरी मनःस्थिति में मौत के दिन पूरे करते हैं।

इन सब जंजालों से बचने को एकमात्र तरीका यह है कि हम कर्त्तव्य−कर्म को अपन लक्ष्य निर्धारित करें और उसके लिए किये गये पुरुषार्थों को ही सफलता जितना आ नन्द उपहार स्वीकार करलें। सचमुच कर्त्तव्य कर्म में उत्साह और आनन्द पूर्वक निरत रहने वाली निष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रहना एक उच्चकोटि की भावनात्मक सफलता ही है। जिसने इस सफलता को आनंददायक और सन्तोषजनक मान लिये उसे दृश्यमान सफलता के मिलने न मिलने की चिन्ता नहीं रहती वह अपने प्रयास पुरुषार्थ की उत्कृष्टता को ही सफलता मानकर सन्तोष कर लेता है और हर भले−बुरे परिणाम को खिलाड़ी की हार −जीत मानकर मुसकराते हुए स्वीकार करता रहता है।

कर्त्तव्य−कर्म निष्ठावान होना ही मानवी पुरुषार्थ की चरमसीमा है। अभीष्ट भौतिक परिणाम दैवाधीन हैं। अनेकों अविज्ञात कारण सफलता प्राप्त होने के मार्ग में सहायक बाधक होते रहते हैं। इसलिए यह अनुमान कदाचित ही खरा उतरता है कि इतना पुरुषार्थ करने पर इतने समय में अथवा साधनों से इतनी सफला प्राप्त करली जायगी। घटना क्रम किस प्रकार घटित होता जा रहा है इसे कोई नहीं जानता। ऐसी दशा में अनिश्चित को निश्चित मानकर चलने वालों को अगले दिनों निराश होना पड़े इसकी आशंका बनी ही रहेगी। आतुर फलाशा जब निराशा में परिणत होती है तो आदमी को आसमान से गिरकर पाताल में जा टकराने जितना कष्ट होता है। कई बार तो उसकी हड्डी−पसली इस बुरी तरह टूटती हैं कि भविष्य के लिए वह एक प्रकार का अपंग ही बनकर रह जाता हैं।

स्थिति का विश्लेषण करने वाले विज्ञान मनीषियों ने हमारे लिए सुरक्षित और सुनिश्चित मार्ग यह बताया है कि सफलता के लिए लक्ष्य निर्धारित करें— उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ करें— साधन जुटायें। इतने पर भी निर्दिष्ट फल मिल ही जायगा इसके सम्बन्ध में प्रस्तुत अनिश्चितता को भी ध्यान में रखें और इसके लिए अपनी मनोभूमि को तैयार रखें कि मनोरथ पूरा न हुआ तो भी बिना खीज और निराशा के आगत का स्वागत किया जायगा। अपने को टूटने न दिया जायगा।

इस प्रकार की सन्तुलित मनःस्थिति केवल उन्हें ही प्राप्त हो सकती है जो कर्त्तव्य कर्म को अपनी सीमा मर्यादा मान ले और उसके लिए जो तत्परता बरती गई है उसे ही सन्तोषजनक मान लें। सफलता को मनुष्य के गौरव की कसौटी नहीं माना जा सकता। प्रतिष्ठा उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ जुड़ी रहती हैं। असफल व्यक्तियों की सूची में वे समस्त महामानव गिने जा सकते हैं जिन्होंने उच्च आदर्शों के लिए अत्यन्त कष्ट सहें, और जो सदुद्देश्यों के लिए बलिदान हो गये। मोटी दृष्टि से इन्हें असफल ही कहा जायगा। जो परिस्थितियाँ वे प्राप्त करना चाहते थे वे कहाँ मिलीं। उलटे स्वयं ही विपत्ति में फँस गये। ऐसी दशा में कोई अदूरदर्शी उन्हें असफल अथवा दुर्भाग्य ग्रस्त ही कहेगा और इस श्रेणी में संसार के समस्त त्याग, बलिदान करने वाले लोगों को गिनेगा। इसके इस निष्कर्ष को भला बुद्धिमत्तापूर्ण कैसे ठहराया जा सकेगा।

इसी प्रकार अनीति पूर्वक दुष्ट दुष्प्रवृत्तियां अपनाकर अनेकानेक सफलताएँ प्राप्त करने वालों की संख्या भी कम नहीं है। आज तो उन्हीं का बाहुल्य है। इन सफल मनोरथ व्यक्तियों के लिए पदार्थ एवं परिस्थितियों रुचिकर मिल गई सो ठीक है, पर उन्हें न तो आत्म−सन्तोष ही मिलेगा और न लोक−सम्मान ही। ईश्वर की दृष्टि में भी वे घृणित ही समझे जायेंगे।इतनी महती हानि उठाकर जिनने कुछ भौतिक लाभ उठा लिए उन्हें सफल या सौभाग्यशाली नहीं कहा, माना जाना चाहिए।

कर्त्तव्य −कर्म पूर्णतया मनुष्य के हाथ में है। उसे वह पूरी ईमानदारी एवं तत्परता के साथ करता रह सकता हैं। अपने हिस्से का— अप ने हाथ का काम पूरा कर लिया जाय इतना ही सम्भव भी है और इतना ही पर्याप्त भी। इसलिए विवेकवान व्यक्ति कर्त्तव्यनिष्ठा को ही अपना लक्ष्य मानते हैं और उसमें जितनी अधिक उत्कृष्टता बरती गई उसी को सफलता का चरम बिंदु मानते हैं। यों कुछ भौतिक सफलता पाने का भी मनोरथ तो रहता ही है और उसी आधार पर कार्य−पद्धति का दिशा निर्धारण भी किया जाता है पर यह सब आरंभिक रूपरेखा बनाते समय ही ध्यान में रखने की बात होती है। जब दूरदर्शिता पूर्वक यह निर्धारण हो गया कि हमें इस दिशा में चलना है तो फिर यह सोचने की जरूरत नहीं पड़ती कि जिस हद की सफलता जितने समय में मिलने की बात सोची गई थी, वह बात बनी या नहीं।

प्रगति की चाल तेज या मन्द होना सर्वथा अपने ही हाथ में कहाँ होती है, हवा पीछे की चलने लगे तो नाव उल्टी ही निर्दिष्ट स्थान पर जा पहुँचती है और यदि हवा उलटी चले तो विलम्ब भी लगता है और श्रम भी पड़ता है। कई बार तो रास्ते में रु कने या लौटना भी पड़ता है। इसमें मल्लाह को कौन दोष देगा? हवा के रु ख न यदि अधिक जल्दी नाव किनारे लगाई तो इसमें मल्लाह को कोई श्रेय नहीं और यदि देर लगी तो भी उसका दोष नहीं। मल्लाह केवल इतने भर को श्रेयाधिकारी है कि उसने सतत जागरूकता और तत्परता बनाये रखी या नहीं। यदि वह इस कसौटी पर खरा होता है तो नाव उलट जाने पर भी उसकी गौरव गरिमा सराही ही जाती रहेगी।

हमें जो करना चाहिए था व पूर ईमानदारी से किया गया हमारे पास जो साधन थे उन्हें अभीष्ट लक्ष्य के लिए तत्परता पूर्वक प्रयुक्त किया गया—इन दो परीक्षाओं में यदि हम खरे उतरते हैं उस उत्तीर्णता को ही उच्चस्तरीय सफलता माना जा सकता है और प्रसन्न रहा जा सकता है। इस प्रकार की मान्यता बना लेने पर ही घड़ी अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा पर गौरवान्वित होने का — सन्तोष व्यक्त करने का अवसर बना रहेगा। जब कभी अभीष्ट सफलता सामने आवेगी तब तक के लिए अपनी प्रसन्नता रोके रहने की उन्हें जरूरत नहीं पड़ती; जो कर्त्तव्य−कर्म को ही सफलता का प्रतीक मानकर चलते हैं। सच तो यह हैं कि कर्त्तव्यनिष्ठ का हर घड़ी,हर क्षण जो सन्तोष मिलता है वही इतना गहरा और पर्याप्त होता है कि उसके रहते दृश्य मान सफलता का कोई बड़ा महत्व नहीं रह जाता। जो अनुदान पग −पग पर मिल रहा है उसके लिए आशा लगाये रहने या प्रतीक्षा करने की आवश्यकता भी क्यों पड़ेगी?

कर्त्तव्यनिष्ठ की आन्तरिक क्षमताएँ दिन−दिन परिपुष्ट होती चली जाती हैं। वह अपने गुण,कर्म, स्वभाव का स्तर बढ़ाने में निरन्तर निरत रहता है ताकि अधिक सुन्दरता के साथ कर्त्तव्यों का पालन करते रहना सम्भव हो सके। आशा −निराशा के झूले में जिसे झूलना नहीं पड़ रहा है, वह सन्तुलित मनःस्थिति में अपने प्रयास जारी रख सकेगा। फलतः उतावले लोगों की तुलना में उसकी भौतिक सफलता भी अधिक सुनिश्चित रहेगी। फल की ओर दृष्टि लगाये रहने वाले जड़ को नहीं साँच सकते। ऊपर टकराती लगाने से सामने की स्थिति का ध्यान छूट जाता है और पैर में ठोकर खाकर औंधे, मुँह गिरने का खतरा रहता है।


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