पाप की अवहेलना न करो। छोटा-सा बिच्छू अपने डंक से तिलमिला देने वाली पीड़ा उत्पन्न कर सकता है। पाप का प्रश्रय बिच्छू पालने के समान है। मन में पाप प्रलोभनों को पालने से कभी भी भयंकर विपत्ति टूट पड़ने की आशंका बनी रहेगी। आग की छोटी सी चिनगारी विशाल वन को जलाकर खाक कर देने वाली दवानल बन सकती है। पाप प्रवृत्ति की चिनगारी कार्यान्वित तो होती नहीं—मन में भीतर छिपी पड़ी है, उससे क्या हानि? ऐसा सोचकर उसे उपेक्षापूर्वक प्रश्रय नहीं दिये रहना चाहिए। उसका संचय कभी भी विस्फोटक परिणाम प्रस्तुत कर सकता है।
धर्म-बन्धनों से बँध हुआ मन ही बड़ी कठिनाई से काबू में रह पाता है। यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया जाय तो तोड़-फोड़ के ऐसे विग्रह खड़े कर देगा जो पीछे सम्भालने पर भी न सम्भल सकें। उच्छृंखल मन पानी के प्रवाह की तरह है, जिसकी सहज मति नीचे की ओर ही होती है। पानी जब भी बहेगा ढलान और निचाई की ओर अपना रास्ता बनावेगा। मन पर यदि कोई बन्धन न रहे-उसे जिधर भी चाहे चलने की छूट मिल जाय तो फिर निर्बाध गति से वह पतन की ओर ही बहेगा। पतन का परिणाम विनाश के अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं सकता। हिमालय से उतरते-उतरते गंगा खारे समुद्र में जा मिलती है और उसका निर्मल जल कडुआ, चिपचिपा, गाढ़ा और घिनौना बन जाता है।
पाप का अंकुर जब भी मन में उगा दिखाई पड़े तक उसे तत्काल उखाड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। देर तक उसे पलने देने से विषाणुओं की तरह वह इतना बढ़ता और पनपता रहेगा कि सारा जीवन ही उसकी लपेट में आ जाय। क्षय के रोग कीटाणु आरम्भ में थोड़ी ही संख्या में प्रवेश करते हैं, पर पीछे वे पूरे शरीर पर अधिकार कर लेते हैं और प्राण लेकर ही हटते हैं। पाप को थोड़ा भी प्रश्रय मिलने लगे तो समझना चाहिए कि विनाश की विभीषिका ने अपनी जड़ जमानी आरंभ कर दी और अंधकारमय भविष्य का आधार बन गया।
मन को कुमार्ग से रोकना एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। जो यह कर सका उसके लिए अन्य कठिन कार्यों को कर सकना सरल सिद्ध होगा। हम घिनौना जीवन न जियें। पतन को सहन न करें। उस दिशा में कदम न बढ़ायें जिस पर चलते हुए भविष्य में पश्चाताप करना पड़े। श्रेष्ठ जीवन के प्रति आस्था रखें और उसी स्तर की नीति अपनाकर अपनी रीति-नीति का निर्धारण करें। धुंआ देकर सुलगती हुई आग जैसी घुटन उत्पन्न करने की अपेक्षा थोड़े समय प्रकाश और ज्योति देकर बुझ जाने वाली अग्नि सराहनीय है। अपने लिए पतन और दूसरों के लिए घुटन उत्पन्न करने वाली जिन्दगी जीना निरर्थक है। भले ही थोड़े दिन जियें—भले ही अभावग्रस्त रहें, पर जीवन का स्वरूप ज्योतिर्मय ही होना चाहिए। पाप की कालिमा को उसमें स्थान नहीं ही मिलना चाहिए।
निरर्थक वस्तुएँ बड़ी मात्रा में संचय कर लेने की अपेक्षा बुद्धिमानी इसमें है कि बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह किया जाय भले ही वे थोड़ी ही मात्रा में क्यों न हों। अधर्म उपार्जित सम्पदा की अपेक्षा अभावग्रस्त रहना उत्तम है। अनाचार अपनाकर बहुत दिन जीने की अपेक्षा यह अच्छा है कि नीति युक्त रहकर छोटी और हलकी जिन्दगी जी ली जाय। जल्दी और अधिक कमाने के लिए अनीति की आतुरता अनुपयुक्त है। अधिक उपभोग और ‘अहंकारी वैभव पाने की लालसा से पाप प्रवृत्ति अपनाने के लिए तत्पर होना अबुद्धिमत्तापूर्ण है। पाप का प्रारम्भिक स्वरूप आकर्षक भर लगता है, पर उसे पकड़ने पर विषैली सर्प के साथ खेलने जैसी दुर्गति ही होती है।