आध्यात्मिकता का अर्थ है मनुष्य के भीतर सौंदर्य और वर्चस्व को बन्धन मुक्त और परिष्कृत करना। मनुष्य निश्चित रूप से ईश्वर का अंश है और उसमें वे सभी परमेश्वर सत् है—चित है—और आनन्द स्वरूप है यह तीनों ही विशेषताएँ जीवात्मा को उत्तराधिकार में मिली हैं। उसमें सत्यं शिवं सुन्दरं के दिव्य तत्वों का पूरी तरह समावेश हुआ हैं। इन विभूतियों के विकसित होने का अवसर जिसे भी मिल जाता है, वह मानव जीवन को धन्य बनाता है—देवत्व की सभी विशेषताओं से सम्पन्न होता है और नर से आगे बढ़कर नारायण बनने तक के लक्ष्य पर जा पहुँचता है।
अध्यात्म का अर्थ है आत्मा के मूल स्वरूप को प्रखर बनाने का अवसर—देने वाली विधि व्यवस्था। आस्तिकता क्रिया काण्ड इसी एक प्रयोजन के लिए बना है कि आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाने की सुविधा मिले और उस दिव्य चेतना को बल मिले जो अपनी गरिमा को प्रकट प्रस्फुटित करने के लिए उमँगती रहती है।
अध्यात्म का प्रयोजन है—आत्म-बोध और आत्म जागरण। हम संसार की अनेक बातें जानते हैं और बहिरंग जगत की अनेकों गुत्थियाँ सुलझाते हैं किन्तु आश्चर्य यह है कि अपनी सत्ता एवं चेतना की स्थिति के सम्बन्ध में हम नहीं के बराबर जानते हैं। हम कौन हैं? अपनी इच्छाएँ और क्रियाएँ किस दिशा में किस प्रयोजन के लिए गतिशील हो रही हैं, इसका निरीक्षण, विवेचन कोई विरला ही करता है। अध्यात्म चिन्तन हमारी विचारणा को इस केन्द्र पर केन्द्रीभूत करता है कि अपने चेतनात्मक अस्तित्व का स्वरूप एवं प्रयोजन समझें और जीवन के बहुमूल्य क्षणों को इस प्रकार प्रयुक्त करें, कि अन्ततः पश्चाताप करने की स्थिति सामने न आवे। सुरदुर्लभ मानव जीवन के दैवी वरदान का सदुपयोग कर सकने की प्रेरणा एवं सक्रियता उत्पन्न करना ही अध्यात्म विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य है।
अध्यात्म का प्रयोजन व्यक्ति के अन्तस्तल में दबी छिपी महानता का प्रकटीकरण करना और उसे विकासोन्मुख बनाना है। सामान्य मनुष्य बाह्य साधनों को तलाश करते हैं और बाहरी व्यक्तियों से सहायता की अपेक्षा करते हैं। उनके सुख स्वप्न बाह्य साधनों तथा अन्य व्यक्तियों पर आश्रित रहते हैं। इच्छित वस्तुएँ या परिस्थितियाँ मिल गई तो सुख, अन्यथा दुख। सम्बन्धित व्यक्तियों ने अनुकूल व्यवहार किया तो सुख अन्यथा दुख। इसी ज्वार–भाटे में लोग हर्ष-शोक के झटके खाते और अस्थिर परिस्थितियों में मरते-खपते रहते हैं। अध्यात्म का तत्वज्ञान इस परावलम्बी विडम्बना से छुड़ा कर मनुष्य को स्वार्थमयी बनाता है और सिखाता है कि प्रगति का चुम्बकीय केन्द्र अपने भीतर है यदि उसे सक्षम रखा जा सके तो सफलता के लिए आवश्यक सभी साधन सहज ही खिंचते चले आते हैं और सहयोगी व्यक्तियों की कमी नहीं रहती।
संसार में अनेकों शक्ति भंडार हैं और बहुमूल्य पदार्थों की खदानें भी अनेक हैं। पर उतना बड़ा कोष अन्यत्र कहीं भी नहीं है जितना कि मनुष्य के अपने भीतर विद्यमान है। दुर्भाग्य इतना ही है कि उसे कभी न तो समझा गया और न जगाया कुरेदा गया। जितना परिश्रम बहिर्मुखी प्रवृत्तियों में किया जाता है उसका एक स्वल्प अंश भी यदि आत्म-निरीक्षण—आत्म-जागरण और आन्तरिक विभूतियों के सदुपयोग में लगाया जा सके तो उसका सत्परिणाम इतना बड़ा हो सकता है जिसकी तुलना में संसार में बिखरे पड़े शक्ति भंडारों और सम्पत्ति कोषों को नगण्य ठहराया जा सके।
अध्यात्म आत्म-जागरण का वह विज्ञान है जिसके आधार पर अन्तरों में दबे अनन्त सौंदर्य, वर्चस्व और वैभव को विकासोन्मुख बनाकर मनुष्य जीवन को सच्चे अर्थों में सुखद, सार्थक और महान् बनाया जा सकता है।