अन्तःक्षेत्र में छिपी समुद्र जैसी प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य

July 1974

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स्थूल जीवन को, थल की उपमा दी जाय तो सूक्ष्म जीवन को समुद्र कहना पड़ेगा। थल-भूमि और उसका वैभव हमें चर्मचक्षुओं से दिखाई पड़ता है, इसलिए मोटी बुद्धि उतना ही कुछ जानती है और उसके उपयोग से सन्तुष्ट रहती है। प्राप्त करने का प्रयत्न भी उतने पदार्थों तक ही सीमित रहता है जो आँखों से दीख पड़ते हैं।

समुद्र अर्थात् अन्तरंग इतना विस्तृत एवं महान है कि उसकी गरिमा पर विचार करने योग्य यदि परोक्ष दृष्टि प्राप्त हो तो पता चलेगा कि उस जलराशि को रत्नाकर ठीक ही कहा गया है, उसमें सन्निहित सम्पदाओं का बार पार नहीं। पौराणिक उपाख्यान में 14 रत्नों की चर्चा होती रही है ऐसे अगणित रत्न उसमें छिपे पड़े हैं। शोधकर्ता यदि गहराई में उतरें और प्राप्त करने के पुरुषार्थ में संलग्न हों तो जो पौराणिक समुद्र मंथन में पाया गया था, उसकी तुलना में अनेक गुना वैभव कभी भी पाया जा सकता है।

भौतिक जगत में—भौतिक जीवन में-भौतिक प्रयत्नों से स्थूल पुरुषार्थ से जो पाया जा सका है- उसकी तुलना में सूक्ष्म जगत में—सूक्ष्म जीवन में अत्यधिक मात्रा में छिपा पड़ा है। उसे समझने और प्राप्त करने के लिए अदृश्य में—अन्तर में प्रवेश कर सकने वाली दृष्टि चाहिए। इस दिशा में किये गये प्रयत्नों की तुलना समुद्री खोज से की जा सकती है। आँखों से न दीखने वाले वैभव को देख सकना और असामान्य प्रयत्नों से उस अदृश्य सम्पदा को खोज निकालना ठीक ऐसा ही है जैसा कि मानवी अन्तः जीवन में छिपी हुई विभूतियों को खोज निकालने के लिए आत्म-साधना में निरत होना।

स्थूल जीवन का वैभव विस्तार जितना है उसकी तुलना में सूक्ष्म जीवन की क्षमता और सक्रियता अत्यधिक है। उसे खोजने के प्रयत्न इतने दूरगामी परिणाम प्रस्तुत कर सकते हैं कि स्थूल जीवन तक सीमित रहने वाले व्यक्ति जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। समुद्र वैभव को खोजने वाले भी इस परिणाम पर पहुँचते जाते हैं कि धरती की सम्पदा का तारा विस्तार समुद्र की अदृश्य कृपा से ही होता है। भविष्य में मानवी प्रगति के लिए धरती का सहारा लेते रहना ही पर्याप्त न होगा, वरन् समुद्र वैभव की सहायता लेने से ही काम चलेगा। स्थूल जीवन की स्थूल सम्पदाओं तक सीमित न रहकर हमें सूक्ष्म जीवन की गहराई में उतरना होगा और उसमें छिपी हुई विभूतियों के सहारे समग्र विकास का पथ−प्रशस्त करना होगा।

पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। इस पानी का वजन प्रायः एक करोड़ खरब मन है। किनारों पर उसकी गहराई तक ही पहुँचता है। इसके नीचे की सतह घोर अन्धकार में डूबी हुई है। समुद्र तल पर विशाल पर्वत, पहाड़ियाँ, पठार, सुविस्तृत मैदान और भयानक खाइयाँ पाई जाती हैं।

यों नौका−नयन के लिए चिरकाल से समुद्र का उपयोग होता रहा है, पर मानवी बुद्धि चिरकाल से यह भी सोचती रही है कि उस सागर सम्पदा के अन्यान्य उपयोग भी हो सकते हैं। अरस्तू और सिकन्दर के समय भी इस सम्बन्ध में खोज−बीन हुई थी पीछे सन् 1670 के बाद तो समुद्र विज्ञान एक स्वतंत्र शास्त्र ही बन गया और तब से अब तक एक के बाद एक महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन होते चले गये।

रावर्ट वायल, वेंजामिन, फ्रेंकलिन, लुइस, अगेसिज, अलेक्जेण्डर, एडवर्ड फारब्स, चार्ल्स डार्विन आदि ने समुद्र की उपयोगिता पर विशेष रूप से प्रकाश डाला सन् 1872 में सी−डवल्यू थामसन ने प्रयत्नपूर्वक ब्रिटिश नौसेना का एक जहाज ‘चैलेंजर’ प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करली। उस यात्रा में उसने इतनी जानकारियाँ इकट्ठी की जिन्हें क्रमबद्ध लिखने में बीस वर्ष लगे और उसका प्रकाशन पचास मोटी जिल्दों में सम्भव हुआ। उस जहाज में यों एक स्टीम एंजिन भी लगा था, पर ज्यादातर पाल तानकर ही यात्रा पूरी की गई। इस अवधि में एक वैज्ञानिक और एक नाविक की भी इसी दौरान मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि उस सर्वेक्षण ने कई दृष्टियों से अपना एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया। इसके बाद सन् 1963−64 यूनेस्को के अंतर्गत 30 देशों ने समुद्री शोध का एक नया बड़ा प्रयास किया। यह खोज विशेष रूप से 280 लाख वर्ग मील में फैले हुए हिन्द महासागर में की गई। इसमें 44 जहाज जुटे और 500 मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने काम किया।

जीवन की उत्पत्ति समुद्र के उदर में ही हुई है। सबसे पहले एक कोशीय आदि प्राणी ‘अमीबा’ वहीं जन्मा। उसी से वनस्पति जगत एक जीव जगत की शाखाएँ फूटी। प्राणियों का विकास क्रम जानने के लिए समुद्र तल में जमे हुए अवशेष ही सबसे प्रामाणिक गवाह हैं। पृथ्वी की रासायनिक स्थिति में जो हेर−फेर आदि काल से अब तक होते रहे हैं उनके प्रमाण भी तल की कीचड़ में पूर्णतया सुरक्षित हैं। शोधकर्ता उसी आधार पर पृथ्वी के जड़−चेतन का विकास इतिहास तैयार कर रहे हैं।

समुद्र में पाई जाने वाली जलचर जातियों की प्रायः 14 हजार शाखाएँ अब तक ढूँढ़ निकाली गई है अभी इनमें नई कड़ियाँ जुड़ते जाने का सिलसिला जारी है। माँद खोदकर समुद्र तल में रहने और रेंगने वाले कीड़े वेन्थोस—मछली जैसे तैरने वाले नेक्टन— पौधे वनस्पति के रूप में विकसित प्लेँक्टन इन तीन वर्गों में इन जलचरों को विभक्त किया जाता है।

समुद्र तल में पर्वत और पहाड़ियाँ भी कम नहीं है प्रशान्त महासागर में अब तक 500 समतल चोटी वाले ऐसे पहाड़−खोजे जा चुके हैं जिनकी ऊँचाई 1520 से लेकर 18500 मीटर तक की है।

खनिज सम्पदा, खाद्य−पदार्थ, रासायनिक वस्तु, प्रबाल मोती आदि न जाने कितने प्रकार क सम्पत्तियाँ समुद्र तक में छिपी पड़ी है। धरती के वैभव की तुलना में समुद्र की तुलना उसे विस्तार अनुपात से कम नहीं अधिक ही कूती गई है। इस धरती का दो तिहाई से अधिक भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। अनुमान है कि खुली भूमि में पाई जाने वाली सम्पत्ति की तुलना में समुद्री सम्पत्ति उसी हिसाब से छिपी होनी चाहिए। मनुष्य की आँखें अब समुद्र की ओर ललचाई दृष्टि से देख रही हैं अन्तः जीवन की विभूतियों को भी यदि इसी अनुपात से देखा समझा जा सके और उसे खोजने, प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय तो फिर हम थलचरों को किसी प्रकार की कोई कमी न रहेगी

न केवल सम्पत्ति की दृष्टि से वरन् शक्ति की दृष्टि से भी समुद्र की गरिमा आश्चर्यजनक है। हमारी शारीरिक बौद्धिक और आर्थिक क्षमता जितनी है उसी तुलना में मनोबल और आत्मबल कह महत्ता भी असंख्य गुनी बढ़ी चढ़ी है। शक्ति की इच्छा एवं आवश्यकता सभी को रहती है, पर यह भुला दिया जाता है कि उसका भूल स्त्रोत अन्ती जीवन में ही सन्निहित है। समुद्री शक्ति और उसके द्वारा थल क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का यदि अध्ययन करें तो प्रतीत होगा कि सूक्ष्म जीवन की स्थिति भी हमारे बहिरंग जीवन को उसी प्रकार प्रभावित करती है।

धरती को मौसम सूर्य,हवा और समुद्र इन तीनों के योगदान से बनता बदलता है।सूर्य से जितनी गर्मी पृथ्वी को प्राप्त होती है उसका चौथाई भाग समुद्र के पानी को भाप बनाकर उड़ाने में खर्च होता है। प्रायः 3॰5 लाख धन किलो मीटर पानी भाप बनकर हवा में उड़ता है। बादल बनकर बरसता है और फिर समुद्र में वापिस लौट आता है।

समुद्री जल का तापमान उसी सतह के अनुसार भिन्न−भिन्न स्तर का पाया जाता है। सूर्य की गर्मी से समुद्र जल 50 से 90 मीटर तक प्रभावित होता है। इसके बाद तापक्रम एकदम गिर जाता है। इस परत को थर्मोक्लाइन ठंडी पेटी कहते हैं। नीचे और ऊपर के समुद्र तक के बीच की यह विभाजन रेखा है। यह पट्टी दिन में कुछ नीचे चली जाती है और रात को ऊपर उठ आती है। इस पट्टी में छिप कर बैठी हुई पनडुब्बियां खोजकर्त्ताओं की पकड़ में मुश्किल से ही आती हैं।

समुद्र निश्चल नहीं है उसमें हरकतें बराबर होती रहती हैं। पृथ्वी के घूमने से, हवा के झोकों से, चन्द्रमा के आकर्षण से, गिरने वाली नदियों के प्रवाह से, बादलों की उठक−पटक से, जलचरों की चलबली से भीतर ही भीतर अनेक प्रकार की हरकतें होती रहती हैं। लहरों के छोटे−बड़े उछाल देखकर समुद्री हरकतों का पता सहज ही लगाया जा सकता है। अगाध जलराशि के भीतर महानदी की तरह कितने ही प्रचण्ड प्रवाह विभिन्न देशों में बहते रहते हैं।गरम पानी की गल्फस्ट्रीम धारा उत्तरी योरोप को और क्यूरेशीवो धारा जापान क्षेत्र के मौसम को अनुकूल बनाने में बहुत सहायता करती है। ऐसी ही अन्यान्य धाराएँ हैं जो अपने ढंग की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करती हैं, इनमें उत्तरी सागरों की लैब्रोडोर− ओखोटस्क सागर की ओयाशीवो, का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह एक दिशा में नहीं, वरन् विपरीत दिशाओं में भी बहती रहती है।

प्रो. पोटर्सन के अनुसार समुद्र में प्रति सेकेंड दो लाख मैट्रिक टन के हिसाब से गर्मी के दिनों में भाप उठती है। गर्मी के अनुपात से यह न्यूनाधिक होती रहती है। लाल सागर का पानी सबसे अधिक भाप बनकर उड़ता है। यदि यह भार अकेले इसी के ऊपर रहा होता तो वह कब का सूख गया होता। पर वैसा इसलिए नहीं हो सकता कि हिन्द सागर का पानी उसकी सहायता के लिए बराबर पहुँचता रहता है। दोनों में से किसी को अभाव की अनुभूति नहीं होती। वे मिल−जुलकर अपनी सम्पदा को मिल बाँट लेते हैं और मजे का निर्वाह करते हैं।

लाल सागर और हिन्द महासागर का पानी जिस रेखा पर मिलता गिरता है, उस स्थान पर यदि बाँध बनाया जा सकना सम्भव हो सके तो अकेले उसी स्थान से पचास लाख हार्स पावर बिजली उत्पन्न की जा सकती है। ठीक इसी प्रकार ज्वार−भाटे भी शक्ति के स्त्रोत हैं। पानी ऊपर उठता है और फिर निचले गिरता है यह उठक−पटक इतनी सशक्त होती है कि यदि उसे काबू में दिया जा सके तो समस्त संसार की बिजली की आवश्यकता अकेले उसी माध्यम से पूरी की जा सकती हैं। यों समुद्री लहरें भी थोड़ी बहुत हलचल तो पैदा करती ही हैं और उनसे भी छोटी मात्रा में शक्ति उत्पन्न करने वाले बिजली−घर बन सकते हैं। नदी, नालों के पानी को ऊपर से नीचे गिरने या गिराने की जहाँ व्यवस्था हो सकी हैं, वहाँ बिजलीघरों, पनचक्कियों तथा कितने ही कल−कारखानों का संचालन किया जाता है।

ज्वार की पानी जब ऊपर उठ जाय तब नीचे गिरते समय उसकी गति पर रोकथाम करली जाय तो इतने से ही सशक्त टरबाइन चल सकते हैं। आमतौर से ज्वार दस से लेकर बीस फुट तक ऊंचाई के होते हैं। इतना उभार अच्छे बिजलीघर चलाने के लिए पर्याप्त है। सेवन के ज्वार तो पचास−साठ फुट तक ऊँचे होते हैं। उनके शक्ति तो अनुपात के आधार पर और भी अधिक ठहरती हैं।

हिसाब लगाया गया है कि परमाणु बम बनाने पर अब तक जितना खर्च हो चुका है यदि उतना धन समुद्र से बिजली उत्पन्न करने पर खर्च किया गया होता तो इन दिनों संसार भर में खर्च होने वाली बिजली उत्पन्न करने का सरल और सस्ता मार्ग निकल आया होता होता और उस बिजली की सहायता से मानवी श्रम में बचत करने तथा उद्योग वृद्धि के द्वारा समृद्धि बढ़ाने में अब तक आश्चर्य जनक सफलता मिल चुकी होती।

भूमध्य सागर से बादल जितना पानी उड़ा ले जाते हैं उसकी पूर्ति मिस्र की नील नदी पूरा नहीं कर पाती। इस क्षति की पूर्ति उसे अन्ध महासागर की सहायता लेकर करनी पड़ती है, अनुमान है कि अन्ध महासागर की स्थिति अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए भूमध्य सागर जिव्राल्टर की खाड़ी के रास्ते प्रायः एक मिनट में 18 करोड़ क्यविक फुट पानी का अनुदान अनवरत रूप से देर रहता है।

समुद्र में एक और शक्ति स्त्रोत है− उसकी ऊपरी और निचली सतह के बीच पाया जाने वाला तापमान का अन्तर। इस सर्दी को गर्मी के पेट में से और गर्मी को सर्दी के पेट में से गुजारा जाय तो शक्ति का एक आधार सामने आता है। उससे विशालकाय टरबाइन चल सकते हैं। फ्राँसीसी समुद्र विज्ञानी एम जार्ज क्लाड के मतानुसार बीव डिग्री फारेनहाइट तापमान या अन्तर के माध्यम से हर मिनट में साठ किलोवाट बिजली पैदा की जा सकती है, इस गणना के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, समुद्र के ऊपरी तथा नीचे की पर्तों को तापमान यदि एक दूसरे को सहयोग देने के लिए तैयार किया जा सके तो अपना शक्ति भंडार का एक नया आधार सामने आ खड़ा होगा।

इटली के कैप्टिन क्रिनोची ने समुद्री हलचलों का सहारा लेकर बिजली उत्पन्न करने का प्रयास किया था। उन्हें मारकोनी जैसे वैज्ञानिकों ने प्रामाणिक ठहराया था। इटली की नेशनल रिसर्च कौंसिल ने एक ऐसा प्लाट बनाया भी था पर द्वितीय विश्व− युद्ध की भगदड़ में वे प्रयत्न खटाई में पड़ गये।

प्रचण्ड शक्ति ऐसे ही अस्त−व्यस्त और बिखरी पड़ी रहती है यदि उसे निग्रहीत और व्यवस्थित किया जा सके, अभीष्ट प्रयोजनों में लगाया जो सके तो मानवी वैभव चरमसीमा तक पहुँच सकता है और धरती वालों को इनने सुख−साधन मिल सकते हैं कि वे देवताओं की तुलना में समृद्ध माने जा सकें। अन्तः जीवन की प्रवृत्तियाँ और क्षमताओं को निग्रहित करके यदि सुव्यवस्थित प्रयोजन में लगाया जा सके तो जीवन को समुन्नत बनाने में उसका लाभ इतनी बड़ी मात्रा में मिल सकता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े। समुद्री शक्ति को नियन्त्रित करके अभीष्ट प्रयोजन में लगाने का प्रयत्न जिस प्रकार वैज्ञानिक क्षेत्र में चल रहा है उसी प्रकार यदि अध्यात्म विज्ञान क्षेत्र में मनुष्य की अन्तःचेतना के विकास विस्तार का —सत्प्रयोजनों में नियोजित करने का प्रयत्न किया जा सके तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ निश्चित रूप से मूर्तिमान हो सकती हैं।


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