भारद्वाज मुनि का सारा जीवन तपस्या में व्यतीत हुआ। शरीर त्याग के पश्चात् उन्होंने दूसरा जन्म लिया, उसमें भी उन्होंने तप किया, फिर भी उनकी ज्ञान पिपासा शान्त न हुई। तीसरा जन्म लेकर जब वे अपनी जीवन अवधि तपस्या में ही क्षीण करने लगे तो देवराज इन्द्र को बहुत आश्चर्य हुआ। वह मुनि के सम्मुख प्रकट हुए। पूछा—’ मुनिवर! आप जन्म−जन्मांतरों की तपस्या किस उद्देश्य से कर रहे हैं? क्या दो जन्मों की तपस्या के पश्चात भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके।
मुनि न सहज भाव से उत्तर दिया− ‘देवराज! यह तपस्या तो ज्ञानार्जन के लिए ही की जा रही है।’ ‘और यदि आपको एक जन्म और मिल गया तो उसमें क्या करेंगे?’
‘उस जन्म को भी ज्ञान प्राप्ति हेतु तपस्या में व्यतीत कर दूँगा।’