वेद में कहा गया है कि “जो लोग सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते हैं, परमात्मा उनका भार स्वयं वहन करता है।" पर समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का समुचित रीति से पालन न करने वाले ईश्वर भक्त आत्म-कल्याण में समर्थ नहीं होते। समाज भी तो मनुष्य का अपना ही स्वरूप है। अपने स्वार्थ की पूर्ति में तो उद्यत रहा जाय, पर अपने ही समान अपने समाज के प्रति परमार्थ का ध्यान न रखा जाय, तो उस ईश्वर-उपासना से आत्म-सन्तोष होना सर्वथा असंभव है।